Friday, April 1, 2011

और ग़ज़ल बनती रही

सुरों के तार में पहले सी वो बात न थी

नज़्म के वजूद में मै तुम्हे तलाशता रहा


जिगर से सटी हुई रुपहली शमशीर की धार थी

वो रंग बदलती रही और इबारत बनती रही


लहू और अब्र का नूर कुछ ऐसा निखरा

वो बारहा हिलती रही और ग़ज़ल बनती रही


अपनी हद दिखाने को मै जिद पर अड़ा रहा

दर्द के दर्द से तड़प वो सिसकियाँ लेती रही


हमारी दीवानगी पर दुनियां भी अमादा थी

ज़ख्म रिसता रहा , भीड़ देखती रही


कलम जब भी डूबी चोट की स्याही में

शब्द बहते रहे और ग़ज़ल बनती रही


इल्म था बर्दाश्त न होगा उसे इससे अधिक

ले लिया अलविदा दुनिया से तौबा कर ली


हम नहीं तो और भी फिर और भी होंगे यहाँ

सुर्ख उंगलियो से सनी फिर भी ग़ज़ल बनती रही

by--- adarshini srivastava


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