Monday, January 23, 2017

एक नदी बस बहती जाती

कितना खाली खाली मन है करने की कुछ चाह नहीं
लेकिन यदि करना ही चाहो करने की कोई थाह नहीं
घोर घना जंगल हो फिर भी पगडण्डी मिल ही जाती है
व्यवधानों के बीच में चलकर  एक राह मिल ही जाती है
अभी जवानी के कुछ पल हैं जी लो अर्थ व्यर्थ कुछ करके
कल होगा एकाकी मन जब रोना होगा शीश पकड़ के
सुख की नींव आज पड़ती है अब न सोवो अब तो जागो
मैला मन अब तो धूल डालो बुकर,न लो कुछ सपने निर्मल से
अहंकार को रख दो कोने, हम सब एक सामान बौने हैं
मेरे दृग में तुम बौने हो तेरे दृग में हम बौने हैं
मैं मुखिया हूँ तुम बस अनुचर, ये रिश्ता मेरा वो तेरा
बरसों बरस साथ बीते जब कहाँ रहा अब तेरा मेरा
सुख का मुख स्याही से धुलकर, कर डाले क्यों उसको मैला
सबका सुख दुःख अपना समझें तभी दिखे उजियारा फैला
एक नदी के दो तट जैसे बीच में बहता निर्मल जल है
कभी-कभी ही बढ़कर लहरें ये तट छू लें वो तट छू लें
पर ऐसे घनघोर अँधेरे से उजियार कहाँ जीतेगा
मौन उधर सदियाँ बितेंगीं इधर मौन एक युग बीतेगा
हँसी ठिठोली पड़ी अजानी भय से शब्द मूक हो ताकें
प्यारी रैना का श्यामल मुख बोले हम कैसे निशि काटें
यंत्रचलित सी कर्तव्यों की एक कहानी बढ़ती जाती
बड़वानल से झुलसी फिर भी एक नदी बस बहती जाती