Tuesday, November 29, 2011

..खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,.........

खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,
इस बेरूखी कि वजह बताइए हुज़ूर,
नज़र में कोई और है तो वो भी बोलिए,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

किसी का हाथ था निभाना भी है दस्तूर,
अरसे बंद क्यूँ है जुबां ये तो बोलिए,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

मशरूफ हैं कहीं या है मेरा ही कुसूर,
करना अगर किनारा है तो ये भी बोलिए,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

किसी कि मोहब्बत ने क्या ला दिया गुरूर
इस ओर गौर कीजिये फिर दिल से तोलिये,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

समझ गई कि 'आदर्शिनी' कि फ़िक्र है फ़िज़ूल,
आज़मा अगर रहे हैं तो आज़मा के बोलिए,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

Monday, November 28, 2011

.........ईश वंदना .........

हे विघ्न विनाशक ईश मेरे,
मुझको एक दृष्टि नवल दे दो,
सर्वप्रथम आराधन हो तेरा,
निर्विघ्न कार्य हो वर दे दो,

हे मात शारदा नमन तुम्हें,
करूँ भक्ति अमित ये वर दे दो,
स्वर झंकृत हो मेरे मन का,
शब्द मचल पड़े ये वर दे दो,

माँ लक्ष्मी रूप अनूप तेरा,
वैभव हो अपार सुमति दे दो,
प्रणिपात करूँ मै चरण तेरे,
मन निश्छल, ज्ञान मुझे दे दो,

हे रूद्र,ब्रह्म,विष्णु मेरे,
उत्साह पूर्ण तन-मन दे दो,
आशीष सदैव रहा तेरा,
इस योग्य रहूँ ये वर दे दो,

हे सृष्टि रचयिता ब्रह्मणिप्रिय,
हे चक्र गदाधर लक्ष्मीप्रिय,
हे चन्द्रमौलिशिव गौरिप्रिये,
हे धनुधर राम जानकीप्रिय.
हे मुरलीधर तुम राधेप्रिय,
हे अम्बे माँ तू भक्ति प्रिय,
हे सरस्वती माँ तुम इष्ट मेरी,
करती हूँ प्रणाम सब ईश कि जय,

Friday, November 18, 2011

............क्या होगा गीत सजाने से............

कभी सोचती हूँ मै ये, क्या होगा गीत सजाने से,
अमर नही ये अगर हुआ, फिर होगा कौन ठिकाने पे,
मेरे आँचल कि छाया बिन गीत अंक को ढूंढेगा,
किसके हाथ लगेगा ये कुछ कह सकती नहीं भरोसे से,

कभी सोचती हूँ मै, ये धरोहर किसको दे जाऊँगी,
पात्र कोई समझे जो इसको उसके हाथ थमाउंगी,
पीले पन्नों के शब्दों को शायद वो श्वेत बिछौना दे,
न रहकर भी उस रक्षक का मै उपकार चुकाऊँगी


गीतों कि जैसे पाँत बढ़ रही,जीवन छोटा होता जाता है,
मेरे निचुड़े मन के कारण, इनसे प्रेम सा होता जाता है,
रोज़ नया एक शिशु जन्मता उदर से मेरे भावों के,
वात्सल्य छोड़ जब जाना चाहूँ तो मन विचलित हो जाता है,

हाथोंहाथ लिया कुछ ने और कुछ ने इसको धिक्कार दिया,
सही प्रयोजन था जिसका उसने इसपर उपकार किया,
उर से जो बहता है सब अंकित मैं करती जाती हूँ,
ये निर्णय पाठक ही लें, कितना भावों को विस्तार दिया,

कभी सोचती हूँ मैं ये, वीतरागी तो हूँ मै लेकिन,
गीत मोह में फंसकर, अंत समय दुर्बल हो जाऊँगी,
सही मार्ग दे माँ मुझको, लिपटूं उससे पर निर्लिप्त रहूँ,
तुझसे प्रेरित गीतों को भगवन तेरे सुपुर्द कर जाऊँगी,

Monday, November 14, 2011

उनसे मुलाकात हो गई,

रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,
आज अचानक फिर उनसे मुलाकात हो गई,

विरह मौन का सह-सहकर जो आकुल थी गालियाँ,
बहुत दिनों से बुझी हुई थी जो मधुरिम कलियाँ,
आज अनोखे रंगों कि उनमे भरमार हो गई,
रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,

इन्द्रधनुष के पाश में बंधकर मन ऐसा झूमा,
गोलाकार पवन सा मन मेरा नाच-नाच घूमा,
साँसे मेरी गतदिन से मानो तेज हो गईं,
रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,


कुसुमाकर दौड़ा आया, जैसे नीरस पतझड़ छोड़,
शांत उडुगन भी नभ पर, आज मचाते कितना शोर,
उर में उसके धड़कन कि मेरी गूँज हो गई,
रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,

मतवाला होने दो हमको आज न बोलो हमसे कुछ,
नयन मूँद लेने दो मुझको खोने दो अब हमको सुध,
पीकर आँख-आँख का प्याला महामिलन कि भोर हो गई,
रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,
आज अचानक फिर उनसे मुलाकात हो गई,


Thursday, November 10, 2011

मिलने का अगर कुछ इरादा लगे,

तेरा मन जब तुझसे खफा सा लगे,
टूटा-टूटा सा कुछ बेवफा सा लगे,
मेरी याद सनम तुम कर लेना,
मिलने का अगर कुछ इरादा लगे,

कभी नेह बदरी में भीगा था तन-मन,
अधर-पंखुडी मुस्कुराई थी तुम संग,
अब तेरे बिना बेसहारा लगे,
चले हो किधर कुछ बुरा सा लगे,
मेरी याद सनम तुम कर लेना मिलने का ...........................

कर भरोसा तुम्हारी रहूंगी सदा,
भूलो तुम मुझे मैं न भूलू ज़रा,
रुंधा सा गला जब तुम्हारा लगे,
विकल सा हृदय जब तुम्हारा लगे,
मेरी याद सनम तुम कर लेना मिलने का ...........................

कोने कोने में अंकित है नाम तेरा,
छिपकर रखा दिल में प्यार तेरा,
परेशां अगर मन ज़रा सा लगे,
पलकों पे अगर भीगा भीगा लगे,
मेरी याद सनम तुम कर लेना मिलने का ...........................

Wednesday, November 9, 2011

हृदय अगर यूँ मोम न होता

हृदय अगर यूँ मोम न होता,

हृदय अगर प्रस्तर का होता,
तो कोई आघात न होता,
अहर्निश के मानस-मंथन से,
मन यूँ सिसक सिसक न रोता, हृदय यदि कसकभरा न होता,
हृदय अगर यूँ मोम न होता,



धक-धक कि हर गूँज से आतुर,
प्रतीक्षित आहट आभास न होता,
श्वास-श्वास उठने-गिरने से,
मिलन-भय का संकोच न होता, हृदय यदि कवि का न होता,
हृदय अगर यूँ मोम न होता,

आता-जाता जीवन में कोई,
गहरा मगर लगाव न होता,
चित्त-वेदना पूर्ण भाव का,
दृग द्वार से पार न होता , हृदय पट पर यदि भाव न होता,
हृदय अगर यूँ मोम न होता,


औरों सा ही दे प्रत्युत्तर ,
मन पर कोई क्लेश न होता,
रूप बिम्ब अपने साजन का ,
निशि-वासर प्रत्यक्ष न होता,हृदय यदि दर्पण न होता,
हृदय अगर यूँ मोम न होता,

Saturday, November 5, 2011

..........क्यूँ भरते हो इतना दर्द............

क्यूँ रोते हो जीवन का रोना, क्यूँ भरते हो इतना दर्द,
दुःख के निर्मल सागर में सीपी और सजा करते,

गीत लिखो जो हंसी बिखेरे
टीस परे हट जाने दो,
मिले जो आगे दुलार उसे लो,
रो रो नहीं जिया करते ,

कुछ ही समय बही थी नदियाँ अश्रु नयन के सूख गए,
गीली-गीली आँखे रख कर जीवन नहीं जिया करते,

कई बार बिखरी थी कड़ियाँ,
फिर जोड़ा है तुमने ही,
जीवनपथ पर हार न मानो,
यूँ ही लोग बढा करते,

बिखरना हो मोती बिखराओ, अपने से टूटे रस्तो पर,
प्रेमिल वही जो बिखरा मुस्काने मोती नहीं गिना करते,

तुमने उतना दिया नहीं,
जितना संतोष मिला है तुम्हे,
दुःख ले मिसरी देने वाले,
सुख को नहीं छिपा सकते,
तुम हो आज जहाँ पर स्थित कल कोई और रुका होगा,
कलेवर बदला करते हैं, पर मानव वही रहा करते,

Tuesday, November 1, 2011

...........पगतल से कण-कण सरकती हुई जमी को ..........

धरती को आकाश संग झूलते हुए देखा
हाथों में हाथ डाले टहलते हुए देखा
पगतल से कण-कण सरकती हुई जमी को,
लहरों को दौड दौड कर खेलते हुए देखा,

सीधी कभी गोलाई में उछलती हुई लहरें
दौड़ती हुई कभी तो थकी थकी सी भी लहरे,
सांप सा फन काड़े विष टपकाती सी लहरे
सागर में गोल-गोल घूम समाती हुई लहरें

तमतमाती धूप में सधी-सी थीं जो लहरे
विधु की चमक देख जैसे बौरा गईं लहरे
लहर लहर को जब ज्योत्सना चूमने लगी
छूने को चाँद, बाँध तोड़, बहक गई लहरे,

जहाँ दिखे कोमल सा मन-मोहक सा सागर,
उन्मादी, कर्ण विदीर्ण करे कभी घोष भयंकर,
नीले तरल में जैसे फेनिल झाग का मिश्रण,
कभी दिखे प्रवाह में बहता लोगो का बवंडर,

श्वेत, कभी नीली, हरी कतार की रफ़्तार,
वृत्त कभी तो लगे कभी समतल सी चट्टान,
नीली घटाओं में लगे कभी रुई का फाहा,
शांत समुद्र करता कभी नाग सी फुफ्कार,

बहाव में इसके घर मकान उजड़ते हुए देखा,
हजारों सीप और मीन को उछलते हुए देखा,
ईश्वर का सौंदर्य कहूँ या विध्वंस की लीला,
कितने जलचरो को किनारों पे तडपते हुए देखा,

एक चिंतन और एहसास के साथ रची ये रचना

........शीतल तन,तपता मन ..........

निशि ठंड से बच धरती ने,
हिमकण की चादर तानी,
सच कहूँ तब क्या,
चांदनी थी चन्दा से अनजानी?
ठिठुर रही थी निशा
और वे बाँहों में बाहें डाले,
तिरछी दृष्टि थी सबकी उनपर,
पर वे भी थे मतवाले,
जल सीकर से भीगी थी वसुधा,
उनदोनों को होश नहीं था,
देख शीतल तन पर तपते मन को,
अम्बर भी कुछ हतप्रभ था,
लोगों की रातें थीं लम्बी,
उनदोनो की कितनी छोटी,
इंदु जहाँ-जहाँ जाता था,
इंदु किरण संग होती,
"पागल हैं दोनों" कह रवि ने
धीरे से आँखें खोली,
हल्की-हल्की गर्मी दे कर
उनपर भी बाहें फेरी,
हिम चादर वसु ने सरकाई,
विधु-अंशु ने होश सम्भाला,
वसुधा और प्रणयी दोनों को
मिल गया एक सुखद सहारा,
लुप्त हुए निशिचर नभ से
खग मृग ने ली अंगड़ाई,
शीश झुका चल दिए वे भी
महकी फूलो से अँगनाई,
इंदु,विधु =चाँद
अंशु=किरण
प्रणयी=प्रेमिल जोड़ा
वसु,वसुधा=धरती