Tuesday, November 1, 2011

...........पगतल से कण-कण सरकती हुई जमी को ..........

धरती को आकाश संग झूलते हुए देखा
हाथों में हाथ डाले टहलते हुए देखा
पगतल से कण-कण सरकती हुई जमी को,
लहरों को दौड दौड कर खेलते हुए देखा,

सीधी कभी गोलाई में उछलती हुई लहरें
दौड़ती हुई कभी तो थकी थकी सी भी लहरे,
सांप सा फन काड़े विष टपकाती सी लहरे
सागर में गोल-गोल घूम समाती हुई लहरें

तमतमाती धूप में सधी-सी थीं जो लहरे
विधु की चमक देख जैसे बौरा गईं लहरे
लहर लहर को जब ज्योत्सना चूमने लगी
छूने को चाँद, बाँध तोड़, बहक गई लहरे,

जहाँ दिखे कोमल सा मन-मोहक सा सागर,
उन्मादी, कर्ण विदीर्ण करे कभी घोष भयंकर,
नीले तरल में जैसे फेनिल झाग का मिश्रण,
कभी दिखे प्रवाह में बहता लोगो का बवंडर,

श्वेत, कभी नीली, हरी कतार की रफ़्तार,
वृत्त कभी तो लगे कभी समतल सी चट्टान,
नीली घटाओं में लगे कभी रुई का फाहा,
शांत समुद्र करता कभी नाग सी फुफ्कार,

बहाव में इसके घर मकान उजड़ते हुए देखा,
हजारों सीप और मीन को उछलते हुए देखा,
ईश्वर का सौंदर्य कहूँ या विध्वंस की लीला,
कितने जलचरो को किनारों पे तडपते हुए देखा,

एक चिंतन और एहसास के साथ रची ये रचना

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