Wednesday, December 28, 2011

सबने समझा मै काठ रची

जीवन जैसे युग बीता
दिन-दिन जीवन सा लम्ब हुआ
कठपुतली सी इठलाई गई
डोरी में अंतरद्वंद्व हुआ
ऊँगली कि थिरकन पर थिरकी
ऊँगली ठिठकी काठी ठिठकी
समझा ना कोई उर कि पीड़ा
जल-जल कर कैसा रंग हुआ
सबने समझा मै काठ रची
लोगो का तो आनंद हुआ
मेरे कोरों से नीर बहे
मन उमड़-उमड़ के छंद हुआ
इंद्र धनुषी जो कुछ भी था
शनैः-शनैः वो धवल हुआ
डाली का महका सुमन-सुमन
मुरझा मुरझा बदरंग हुआ

कोहरा

हिम सा प्रसरित है रजत कोहरा
गगन धरा सब श्वेत हुई
पाती-पाती सच्चे मोती को
पाकर् के अभिभूत हुई
विधु कि किरणों से लिपटी उतरी
कुछ पल को खामोश रही
रवि किरण के साथ जा उडी
फिर से नभ में विलीन हुई