Monday, October 31, 2011

........कहाँ रोज़ का मिलना और पहरों पहरों की बातें .........

अकस्मात झटके हाथों को,
संभव था न मैं सह पाती,
भला किया,जो तूने
धीरे-धीरे हाथ छुड़ाया,
कहाँ रोज़ का मिलना
और पहरों पहरों की बातें,
एक-एक कम कर दिन छूटे
पहरों से पहर थे जाते,
अंतराल बढ़ता दिन-दिन का,
पहर का क्षणिकों में ढलना,
आज दिवस वो आया,
तुझमे मेरा नहीं है कोई सपना,
अभ्यस्त हुई हूँ मुश्किल से,
अब आवाज़ न मुझको देना,
संयत हो जैसे तुम प्रिय,
मुझको भी होने देना,
लाए तुम सिंदूरी बिंदिया,
कभी लाए थे कजरा,
तेरे हाथो से हर दिन
कतरों-कतरों में सजना,
हौले से चुनरी सरका के
माथे तक रख देना,
प्रेम में मैं भीगी थी जैसे
ओस में भीगे रैना,
दो संबल भुला सकूँ मैं,
पर बहुत कठिन है कहना,
तोडूँ कैसे तेरे प्रेम का,
पहने था जो अबतक गहना