Monday, July 11, 2016

कहानी ....... बाल कथा ...... मित्र वार्ता


                                               
विपरीत दिशा से आते हुए एक रोज़ सत्य और असत्य की भेंट हो गई l असत्य ने सत्य से कहा -- देखों मैं तुमसे ज्यादा प्रभावी हूँ l 

सत्य ने स्नेह से पूछा -- वो कैसे मित्र ? हमारे रास्ते तो पृथक थे फिर तुम मुझे बलात् रोक ये कटु वचन क्यों कहने लगे ?

असत्य ने कहा-- मैंने अनुभव किया कि तुम स्वयं पर बहुत घमंड करते हो l

सत्य ने कहा -- किन्तु मुझे अहंकार और घमण्ड का तो ज्ञान ही नहीं, हाँ स्वयं को गौरवान्वित अवश्य महसूस करता हूँ l

असत्य ने जिरह की --देखो! लोग मुझे कितनी जल्दी अपनाते हैं l मेरे ही कारण लोग स्वच्छंद और सुखी रहते हैं l चहुँओर दृष्टि फेरो तो ज़रा -- जिधर-जिधर मैं हूँ लोग कितने आनंदित और संपन्न हैं l कहीं भी कोई जाए  मेरे कारण उनका काम कितना आसान हो जाता है l व्यापार फलता-फूलता है l मुझमे कितनी चमक कितना आकर्षण है l मेरे कितने त्र हैं तुम्हारे मित्र तो बहुत कम हैं l मेरे श्यामल  हस्त  तले है आ मेरे सानिध्य  में लोग अपनी बड़ी आसानी से अतृप्त इच्छाएं पूर्ण करते हैं l

सत्य ने कहा -- तुम सही कहते हो मित्र l मेरे बिरले ही मित्र हैं किन्तु  तुम्हारे मित्रों के मूलह्रदय में मेरा भी गुप्त निवास अवश्य है l तुमने खुद आकर बात छेड़ी ही हैं तो मुझे भी कुछ तुमसे कहने की इच्छा जागी है , तो कहता हूँ सुनो मित्र --ऐसा संभव ही नहीं की कोई सदैव असत्य ही बोले जैसे-­­ भूख लगने पर कोई अधिक देर ये नहीं कह सकता की मैं भूखा नहीं हूँ l अतः अनेक अवसरों पर लोगों को मेरा आश्रय लेना ही होता है l समाज का सर्वनाश मेरे द्वारा कभी नहीं होता l मुझसे आधारित व्यापार जीवन यापन के लिए पर्याप्त ही सही फिर भी मैं स्वयं भूखा रहकर दूसरों को अपना भोजन देने की सामर्थ्य रखता हूँ,  मेरे पुत्र सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को तो तुम भलीभांति जानते ही हो ............l सत्य आकर्षणहीन भले लेकिन उसका स्वरुप शाश्वत है l तुम्हारा साठ जीवन मरण का चक्र है और मेरा मुक्ति l मैं सत्य (सत्व) हूँ इसलिए मेरा परिधान धवल है l असत्य तम है तदनुरूप तुम्हारा परिधान श्याम है l सत्य के महत्त्व से असत्यमन: भी अपरिचित नहीं किन्तु स्वीकारने से डरते हैं l ह्रदय में मेरे प्रवेश से लोगों के मुख दीप्तिमान हो उठते हैं उनसे भय दूर भाग जाता है l तुम्हारे ह्रदय में प्रवेश करने से मनुष्य दिनोदिन कुरूप होते जाते है और लोग उनसे दूर भागने लगते हैं l मित्र क्या तुमको केंद्र मान कोई ग्रन्थ लिखे गए? क्या तुम्हारे सम्मान में गीत रचे गए ? किसी धर्मिणी ने तुम्हारी महिमा के किस्से सुना अपने बालक को निद्रा देवी को समर्पित किया ? मैं एक बार ही मुख से निकल उसे कथन मुक्त कर देता हूँ और तुम्हे अनेको बार प्रश्नों का सामना करना पड़ता हैं l तुम्हारा आकार बड़ा होता जाता है अंत में हेय बन धराशाही हो जाता है l तुममे चमक है मुझमे तेज है l मैं अगोचर परमात्मा के अत्यंत निकट हूँ l

असत्य ने कहा -- छोडो-छोडो तुमसे कौन बात करे, मैं तो इस ओर यूँ ही भटक गया था l

सत्य ने कहा -- मिलते रहा करो मित्र, स्वागत है l
.......आदर्शिनी श्रीवास्तव , मेरठ .........