Sunday, October 9, 2011

वर्तिका बन खुद को जलने दे

पालक भांति चल चुकी बहुत तू ,
कर्तव्यों से कुछ उठ चुकी है तू ,
कर चुकी बहुत विश्राम लेखनी ,
अब खुद की खातिर कुछ जी ले तू,

दीपक रख मन में तू सजनी,
वर्तिका बन खुद को जलने दे,
पसरेगा उजियार जो पगली,
जग को उससे तू सजने दे,
स्वच्छ निर्मल तेरे मन ने,
जो भी सोचा सब कह डाला,
अब घुट-घुट कर निकले जो भी ,
पन्नों पर उसको बहने दे,.....................वर्तिका=दीपक कि बत्ती

तू प्रेयसी बन खोल जरा,
अपने भीतर के रस घट को,
छलका दे प्रेम पियूष सुधा,
उतराने दे उसमे जन-जन को,
पतंगों का मन मचले जिससे,
ऐसे रस में तू गान करे ,
रिक्त मनस न शेष रहे,
प्रेमिल कर दे हर मानस को, ............घट=गगरी
सुधा=अमृत
मनस=मन,बुद्धि
मानस=इंसान

जाग विरहनी! तू भी अब,
वदन ढांप कर क्या होगा,
चल खोल हृदय को तू भी तो,
रोने धोने से क्या होगा,
शब्दों-शब्दों में वो करुणा हो,
जो मन को विह्वल कर जाये,
अश्रु बहे इस लय में ऐसे,
तरणी भी उसमे तिर जाये,................वदन=चेहरा
विह्वल=व्याकुल
तरणी=नौका

लोग जान लेंगे तुमको कि,
तुम भी एक वीरांगना हो,
जान डाल कर फूंक शंख तू,
छंद-छंद अंगारा हो,
जोश उफन कर निकले ऐसे,
जैसे उबला दूध बहे,
शांत रहे न कोई यौवन,
सबके भीतर एक ज्वाला हो,..............वीरांगना=वीर स्त्री

कभी बरस बदरी के जैसी,
कभी तड़ित का वह्नि बने,
हास्य व्यंग छिटका तू ऐसी,
आनन-आनन गुलाब बने,
रीति रंग में भिगोकर फेंको,
फूलों कि पिचकारी को,
देश भाव जब जगे हृदय में,
मानव मन हा हाकार करे .........................तड़ित=आकाश कि बिजली
वह्नि=अग्नि
आनन=मुखड़ा