Wednesday, January 16, 2013

                                           अंजना (कहानी)

आज अंजना की आँखों से आंसूंरुक नहीं रहे थे. दिल जैसे फटा पड़ रहा था. चीखना चाह रही थी लेकिन घुट रही थी, आँखों में मजबूरी भी थी याचना भी, कि प्ल्ज़ मेरे दर्द को समझो. विवशतावश लिए गए पैसे, और अब उस पैसे भी महरूम मैं अपने वायदे से मजबूर हूँ. काश वो रूपये होते तो उसे वापस कर अपने जिगर के टुकड़े जिसे नौ माह अपने उदर में रख खून से सींचा उसे अन्य को कभी न देती. अपने उदर में उन शुक्राणुओं के प्रतिस्थापन के साथ ही मां बन्ने का विचार हिलोरे लेने लगा था. दिन बीतते-बीतते जी मिचलाना,धीमी लात तो कभी सर का एहसास, भारी होता पाँव,बेडौल होता शरीर,पेट और कमर का दर्द, अपने ही आकार को दर्पण में देख मुस्कुराना और अनायास ही पेट पर हाथ चला जाना फिर वो प्रसव की असहनीय पीड़ा? पूरे के पूरे शरीर में मातृत्व का एहसास. अनजान शहर में अनजान लोगों से विभिन्न परामर्श, जो उसकी हकीक़त से अनजान थे. कोई तेज चलने को मन करता तो कोई उसे गरी मिसरी खाने की सलाह देता. कोई कोई छेड़ता अरे ..अभी जो मन चाहे खा लो वर्ना बच्चा लार टपकायेगा और अंजना उस समय किये हुए सौदे को भूल जाती.

               अंजना अकेले में खुद को उस बच्चे से बिछोह के लिए तैयार करती और दूसरी ओर मातृत्व मोह में बंधती भी जाती. स्वीकृति देने से पूर्व अंजना इस उहापोह से अनजान थी. उसे नहीं पता था ममता की डोर क्या होती है? वह सिर्फ किताबों में मां की महिमा का बखान पढ़, मां के महत्त्व को समझती थी. कहते हैं रिश्तों को समझने के लिए रिश्तों का होना जरूरी है उसे ये बात अब समझ में आ रही थी. वह ये भी महसूस कर रही थी कि जोड़े कि दो बूँद का अंशांश उसके किलो-किलो रक्त पर भारी पड़ गया, वो तरस रही थी बच्चे को सीने से लगाने के लिए. पंद्रह दिन से बच्ची उसके साथ थी. शहद, पानी, गोरस से पेट भरने के बाद भी वो रोटी रही थी किन्तु एक दिन बाद डॉ की सलाह से अंजना के वक्ष से लग उसे जो तृप्ति हुई थी फिर तो नन्ही कली कितने घंटे सोती रही थी और अंजना अपलक नेत्रों से उसे निहार निहाल हुई जा रही थी. जैसी गोरी निश्छल अंजना वैसा ही गोरा निश्छल उसका प्रतिबिम्ब. वो तरस रही थी उन सब बाल क्रीडाओं के लिए जो उसने अन्य नन्हे-मुन्हों में अनुभव किये थे. बिस्तर गीला करना घुटनों-घुटनों चलना, सामानों की उठा पटक, तुतलाती बोली, पानी के स्तान पर मम्म: मम्म: कह पीछे लगाना, रात भर मां को जगा फिर दिन भर खुद चैन से सोना. आज ये सब सुख अनायास ही चिरंश की झोली में चले गए थे. किन्तु हाय! अब किये किये गए वादे  से विश्वासघात अंजना के लिए संभव न था.

           दूसरी ओर मृदु कि भी तरसती आँखों में मातृत्व हिंडोले ले रहा था. उसने गर्भ को महसूस भले न किया हो लेकिन एक-एक दिन कर इस शुभ दिन कि प्रतीक्षा अवश्य कि थी और स्वस्थ बच्चे कि अभिलाषा में उसने उस नियोग माँ (सेरोगेट मदर) को स्वस्थ रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, मृदु और चित्रांश डॉक्टर के द्वारा अंजना का हाल-चाल लेते रहते और जबरदस्ती उसकी जरूरत का सामान उसे पहुंचाते रहते. मृदु इस शुभ दिन कि प्रतीक्षा में कभी मोज़े बिनती,कभी स्वेटर,तो कभी मुलायम सूती कपडे कि लंगोटी बनाने लग जाती तब चित्रांश इस उतावलेपन को देख उसे छेड़ता, आलिंगन में लेता और मुस्कुराता खुश होता. आखिर वो भी पिता के पद पर प्रतिष्ठित होने वाला जो था .

            अंजना के पास तो नई-नई अनुभूतियाँ थीं किन्तु मृदु...? उसे तो बस इंतज़ार ही करना था. निष्क्रीय खाली बैठ कल्पनाओं के महल संजोती रहती. ...व्यस्तता में घंटों छूमंतर हो जाते हैं किन्तु खाली पण में इंतज़ार कष्टकारी होता है .

       अंजना उन दंपत्ति कि आभारी थी कि उनके बढे धन के सहयोग से उसके गरीब घर के भविष्य के लिए सहारा मिल गया था और उसकी न होकर भी उसकी बच्ची एक संपन्न,शिक्षित और सदाचारी घर में जा रही थी
जिसे  भविष्य में,आपने खून पर गर्व करने कि पूरी सम्भावना थी . मृदु और चित्रांश ने इन दिनों उसे लगातार संपर्क में रखा था और अपरिचित या प्रथम प्रसव के भय को मक्ह्सूस नहीं होने दिया था फिर भी आज अंजना का मन मृदु के प्रति मृदुलता का अनुभव नहीं कर पा रहा था .वो ये भी जानती थी कि इस विपरीत भावना कि वो अधिकारी नहीं क्योंकि जो हुआ वो उसकी स्वीकृति से हुआ और आपने परिवार के सुखद भविष्य के लिए किया गया .

आज अंजना को वो तमाम घटनाएं जो टी.वी. पर देखती रही थी और अब तक भूल चुकी थी याद आने लगी थी. उसने उन तमाम औरतों कि व्यथाकथा सुनी थी जो सेरोगेट मदर बनने के लिए जबरदस्ती ढकेली जातीं हैं और उनकी शारीरिक पुष्टि को अनदेखा कर उस औरत को धन उपार्जन का साधन मात्र बनाया जाता है . कितने ही लालची पति अपनी पत्नी कि भावनाओं को ताख पर रख कोख का सौदा करते हैं और साथ ही उन्हें कलंकिनी भी कहते हैं .पुरुष का ये अपना ही व्यक्तित्व होता है औरत के त्याग और समर्पण को इतना उपेक्षित करो कि वो अपनी महत्ता ही भूल जाए. कितनी ही अपहृत कन्यायें बच्ची से औरत बन नियोग माँ का काम जबरन करतीं हैं .
    फिर भी अंजना इन सब से अपने को सौभाग्यशाली मान रही थी .उस पर कोई दबाव नहीं था, दबाव था तो बस जिम्मेदारियों का . यह त्याग उसने पूरे होशोहवास में किया था. एक बड़े परिवार को सम्भालने हेतु उसने स्वंय डॉक्टर से संपर्क किया था और अपना परिचय गुप्त रखने का अनुरोध भी. आज के लिए वह अपने को मानसिक तौर पर तैयार कर रही थी फिर भी उसकी जो मनोदशा थी उससे देवकी और अन्य अभागी माँओं से तुलना कर अपने को शान्त रखने का प्रयास कर रही थी कम से कम कंस जैसा वहशी हाथ तो नहीं था जो देवकी के समक्ष ही सद्य: जात: शिशु को चट्टान पर पटक लहुलुहान कर दे और देवकी प्रतिदिन दीवार पर पड़े रक्त बिंदु को लाल से कत्थई होता देखती रहे. पिछड़े  प्रदेशों में अनेकानेक घटनाएं ऐसी होती है जिसमे शिशुओं को अन्धविश्वास कि बलिवेदी पर चढाते हैं और कुछ कायर कन्या भ्रूण का पता लगते ही उसकी गर्भ में ही हत्या करा देतें हैं. पुरुष के चक्रव्यूह में घिरी इस पुरुषप्रधान समाज में एक लड़की कितना और कितना सहतीं हैं

       धीरे-धीरे अंजना को अपने पर और उस युगल दम्पत्ति पर गर्व होने लगा था . जिसने एक बेटी को  ममता कि छाँव दी थी और उस पर बेटा या बेटी होने कि शर्त भी नहीं रखी थी . अब अंजना को कोई पश्चाताप नहीं था बल्कि उसे गर्व था कि उसके कारण किसी के घर कि बगिया लहलहाई है वरना ममता के बदले इन रुपयों का क्या मोल ? समय में करवट बदली नहीं  कि ऐसे जाने कितने लाख चंद सिक्के बन जायेंगे. लेकिन मृदु और चित्रांश कि सूखी बगिया बिना उसके त्याग के हरी-भरी होना संभव नहीं थी. उसे गर्व था जिस प्रकार भगवान भास्कर ने अपने तेज से कुंती को मोहित कर और योगशक्ति से उसके भीतर प्रवेश कर गर्भ स्थापित किया और उसके कन्यात्व को दूषित नहीं किया उसी प्रकार उसे वासना छूई भी नहीं और वह माँ कि गौरव अनुभूति से परिचित हुई वो प्रसवावस्था के नौ माह और उससे जन्मी पन्द्रह दिन कि कन्या के सानिद्ध्य कि स्मृति में पूरा जीवन गुजार सकती है .
         
तुम धन्य हो अंजना ..............II

..........ADARSHINI.........16/01/2013    















 
                                      

Monday, January 14, 2013

कुछ तो करना होगा




 
      समाज में नैतिक पतन चरम पर है. सुशील शर्मा द्वारा तंदूर में पत्नी को झोंकना ,पिता द्वारा बाथटब में बेटी कि हत्या, बाप जीजा चचेरे रिश्तों द्वारा घर में असुरक्षित बेटियां, हत्याकर पेट चीर और अधिक विनाश के लिए टाइम बम फिट करना, सर कलम करना लाश को विकृत करना , एक तरफ कारवाही दूसरी तरफ रोज़ ही दुराचार कि घटनाओं से पटा पड़ा अखबार, वीभत्सता इतनी कि आंते तक बाहर खींच लेना क्या किसी भी तरह से ये कृत्य मानवीय गुणों के करीब है? या हमारा इतिहास हमें ही फिर से राक्षस या पशु कि श्रेणी में गिनेगा ?
     जो हमारा वर्तमान है वही कल भविष्य था हमने कभी अपने बच्चों के लिए ये नहीं सोचा था कि हमें भविष्य में ऐसे समाज के दर्शन होंगे, गर्त में जाती हुई नैतिकता और तमाम घटनाओं कि वीभत्सता कल्पना से भी परे है, विकृत हुए मन और दिमाग कि सुधार कि आशा दोबारा नहीं कि जा सकती, क्योंकि दुराचारी मन एक ऐसा दलदल है जिसके पंक से यदि स्वंय को बचा कर न रखा गया तो मनुष्य उसमे धँसता ही जाता है, हाँ इस मनो विकृति कि शुरुआत न हो ऐसा प्रयास जरूर किया जा सकता है,
      तमाम संचार माध्यम, इंटरनेट, आपत्तिजनक वेबसाईटस, बच्चों का कम उम्र में ही परिवार और माता-पिता से दूर बाहर जाकर पढ़ना और काम करना उन्हें मार्ग से अधिक भटकने के अवसर देता है, आधुनिक और आर्थिक युग में ये स्थितियां तो आनी ही हैं और बढ़ती भी जानी हैं, लड़का हो या लड़की अब दोनों ही महत्वाकांक्षी और उच्चाकांक्षी हैं और उन्हें समाज में निकलना ही है कोई भी शिक्षित और समझदार माता-पिता अब अपनी कन्या के लिए भी वही स्वप्न देखते है जो पुत्र के लिए, जिनका सब अच्छा-अच्छा हो गया तो समझो उन्होंने गंगा नहा लिया, किन्तु..., तो अब क्यों न जब तक बच्चे परिवार के सानिध्य में है उन्हें सही संस्कार के साथ कल आने वाले और घृणित युग से टकराने के लिए सक्षम बनाएँ, क्यों न बेटियों को गुडिया गुड्डा के साथ कार, बन्दूक, यंग इंजीनियर, मोनोपोली, रुबिक्स क्यूब, जैसे बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने वाले खिलौने भी दें, क्यों न उन्हें किताबी ज्ञान के साथ जुडो कराटे तैराकी के भी गुण सिखाएँ, क्यों हम लड़कों कि अपेक्षा उन्हें ही त्याग, बलिदान, समर्पण, समायोजन और बर्दाश्त का पाठ अधिक पढाएं, जबकि ये दोनों ही लिंगों के लिय सामान हितकारी है. एक सिगरेट पीती लड़की कि फोटो पर बहुत उपेक्षनीय टिप्पणियाँ आती है तो क्या पुरुषों के लिए ये गर्व का विषय माना  जाना चाहिए? बुराई दोनों के लिए बुराई है. हमारा एक के लिए छूट और स्वीकार्य और दूसरी ओर उपेक्षा और बंधन कैसे सही है? दो संतानों के प्रति ये कैसा विभेद? शायद यही महिला पुरुष के मध्य बढ़ती खाईयों का कारण है, ध्यान रखे अब वो समय आ गया है कि जैसा परिवेश, जैसा खेल, जैसी सीख दे वो बेटा बेटी कि बराबर हो. जिससे दोनों ही एक दूसरे के मानवीय गुणों को आत्मसात कर, समानता के अधिकार के सृजित समाज में सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकें, वरना शराबी पति आपकी बेटी को कौड़ी कौड़ी मोहताज कर भी देवत्व पद पर आसीन रहेगा, और लालची पति रोज़ लात घूँसों से प्रताड़ित कर माएके से धन कि माँग करवाएगा और चुप रहने पर जीते ही अग्नि दहन होगा, आपकी बेटी आपने अनाधिकारी परिजनों से नोची जायेगी और सहनशील कहलाएगी , आपकी बेटी का पति उसी के सामने दूसरी सेज सजायेगा और वो मर्यादित रहेगी, राम सिंह फिर किसकी बेटी का चयन करेगा कहा नहीं जा सकता, ध्यान दे ये किसी महिला को बिगाड़ने कि बात नहीं है और न किसी सीमा का उलंघन, आप शिक्षित ही है जो ये लेख पढ़ रहें है, ये आपकी नवजात, एक वर्ष, चार वर्ष, आठ वर्ष जैसी नन्ही कली कि सुरक्षा और अधिकार कि बात है, अब अगर उसे घर कि चार दीवारी में कैद कर, देवी बना, संस्कार थोप, अनावश्यक नारी का महिमामंडन कर बंधनों में बाँध मानसिक औए शारीरिक रूप से कमजोर किया तो उस पर हुए अत्याचार और बलात्कार के दोषी हम खुद ही होंगें, उसके निर्णय, आवश्यकता, सुख, इच्छओं, स्वास्थ्य, को शिक्षा को खुलकर महत्व दें

             घर कि महिलाओं को परिवार में ऊँचा स्थान, मान-सम्मान. और महत्त्व दें, व्यवहार, अत्यधिक अपेक्षाएं छोड़ मानसिकता बदलें, घर का बासी भोजन खुशी से मिलकर खाएं, ऐसा कदापि संभव नहीं कि आप अपनी बेटी कि सुभविष्य कल्पना कर उपरोक्त तथ्य का समर्थन तो कर रहे और घर कि महिलाओं कि ओर से नजरिया वही है .
आदर्शिनी श्रीवास्तव दर्शी
14/1/2013, meerut