Friday, October 25, 2013

एकल काव्य मंच की ओर से चित्र उन्वान .....ह्रदय विहंग



 
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पाँखी बन उड़कर तो देखो
भावों को पढ़कर तो देखो
तण्डुल बिखरी तमिस्र निशा में
क्षीर उगलती श्वेत विभा में 
पंख खोल उड़कर तो देखो
पाँखी बन उड़कर तो देखो

एक परिंदा भर उम्मीदें
है उड़ चला फलक को छूने
तन के पागल पंछी को
दीवारों दर से मतलब क्या?
एक शिकारी दौड़ रहा है
खोल हथेली हाथ उठाये
साँकल चाहे जितनी जड़ लो
नश्वर घर से मतलब क्या?
एक बार भरोसा कर तो देखो
पाँखी बन उड़कर तो देखो

अरुण भोर की स्वर्ण प्रभा में
क्या कहता है मन का पंछी
शायद आँखों से आँखे मिल
किसी विधा से प्यार हो रहे
या शायद पहला वो हूँ मैं
जिस तक नज़र नहीं पहुँची हो
नभ की किरणों में से मेरी
एक किरण एक बार हो रहे
तनिक वक़्त देकर तो देखो
पाँखी बन उड़कर तो देखो
..........आदर्शिनी "दर्शी"....मेरठ, गोंडा ...

Thursday, October 17, 2013

अपना देश

रक्त से सनी हुई धरा नहीं चाहिए
धुएं के गुबार का आसमान नहीं चाहिए
तड़तडाती गोलोयों की गूँज न सुनाई दे
गोले बारूदों का अब हमें सामान नहीं चाहिए
देखने में श्वेत हों पर लाल हो टोपियाँ
ऐसे हिंसक के सर पर ताज नहीं चाहिए
कोटि जन भूखे रहें भरी रहें तिजोरियां
ऐसे निर्दय, निर्मम का आराम नहीं चाहिए
डर है तुम्हे किस बात का देते नहीं क्यों फांसियां
तुम भी इनमे साने नहीं अक्सर लगती है बाजियां
बड़े-बड़े उद्दंडी है जो जेल में आराम से
इन दुष्टों के जीवन का अंजाम हमें चाहिए .........

पुष्प के मकरंद सी धरा हमें चाहिए
आसमां में प्रेम का गुलाल हमें चाहिए
आँगन में सबके सदा गूंजा करे किलकारियां
निर्भीक हँसता मुस्कराता परिवार हमें चाहिए
गांधी जाकिर इंदिरा सा नेतृत्वगर मिले हमें
खादी जीवन खुद जी कर फिर उपदेश जो करें हमें
एक निवाला दे आपको फिर स्वंय को वे एक दे
कर में हिस्सेदारों के ये पतवार हमें चाहिए
ऐसे संतों के सर पर अब भार हमें चाहिए ...................
......आदर्शिनी.....

गीता

श्रीमद्भगवद्गीता पढ़कर जिंतनी सुंदर अनुभूति हुई थी वही सुखानुभूति आज कल स्टार उत्सव पर फिर “श्री कृष्णा” के रणभूमि में श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए उपदेश से हुई इस कई दिन चलने वाले अंश को हम कभी छोड़ना नहीं चाहते चाहे जितनी बार ये सीरियल आये आज के एपिसोड को महसूस करते हुए हम डूबे तो ऐसा डूबे कि हम थे पर नहीं थे .....गीता एक ऐसा ग्रन्थ जिसमे हर समस्या का समाधान, हर उलझे प्रश्न का उत्तर है ...जो हर लिंग, हर जाति, हर धर्म के लिए सामान उपयोगी है....ऐसे अनुपम ग्रन्थ को प्रणाम

भावुक अहसास

उस असीम तत्व से मुझे इनकार नहीं ....विशवास है उस तेज पुंज पर I मंदिर का प्रांगण बहुत संतोष देता i वहां से निकलने वाली उर्जा में अजीब सा सम्मोहन होता है स्वीकारती हूँ I स्वाध्याय और आत्मचिंतन को महत्त्व देती हूँ किन्तु पूजा कि तमाम विधियाँ मेरी समझ से बाहर हैं I धुप दीप नैवेध्य कभी कभी ही आत्मा को स्पर्श कर पाया है मुझे I अतः नित्य दो तीन मिनट कि ही पूजन का नियम बना सकी फिर भी कभी कभी विशवास या भक्ति के कारण आँखें तक भीगी हैं I 
ईश्वर की अनुकम्पा, विचारों कि उहापोह, कुछ कर गुजरने की चाहत, जीवन निस्सार निरर्थक न जाए इसकी कामना से ही शायद हाथ में स्वंय ही लेखनी आ गई I फिर उसमे व्यवधान कष्ट देने लगा I कलम से कुछ ख़ास न निकल पाने की वेदना ले रोज़ ही कलम थाम बैठ जाती और छुटपुट कुछ सृजित हो जाता I इसी असंतोष के बीच माँ कि याद सताने लगी और सारी जिम्मेदारियों को कठोरता से दरकिनार कर उनके पास जाने की ठान ली I
वाह! कितना सुकून है यहाँ I मगर मुझे ऐसा नहीं लगता कि यहाँ बचपन बिताने का आकर्षण है ये I वास्तव में यहाँ सुकून और संस्कार हैं संस्कृति बचाए रखने की परंपरा है I आधे किलोमीटर की घर तक पहुँचने कि गली में तीन जगह धार्मिक अनुष्ठान होते मिले वो भी इतने सुन्दर और आडम्बरहीन तरीके से कि मन उसमे डूबने लगा I संगीतमय भजन की धुन कानो में शीतलता घोलने लगी लगा कोई सुन्दर कैसेट बज रहा हो पर करीब आते आते वाद्य यंत्रों कि धुन और उन चार युवाओं की ओर ध्यान गया जिसमे तीन उस मुख्य युवा के सहयोगी के रूप में कैशियो, ढोलक हारमोनियम और मंजीरे से उनकी संगत कर रहे थे और बीच-बीच में अपने कंठ से भी उस मुख्य युवा का सहयोग कर भजन को और भक्तिमय और सुमधुर बना रहे थे I मन जैसे बंध सा गया उसका आनन्द लेने के लिए चाल एकदम धीमी कर दी करीब जा कर पता चला ये सात दिवसीय भजन संध्या है I फिर उस गली में घर के हर सदस्य के साथ चक्कर लगता रहा और स्वर्गीय सुख का रसास्वादन होता रहा I घर करीब था तो रात में दो बजे तक उन भजनों कि ध्वनि कानो में पड़ती रहती और जाने कब आँख लग जाती I दो दिन बाद ही घर के बिलकुल बगल में अखंड रामचरित मानस बहुत सुन्दर सुन्दर तर्ज़ में आरम्भ हुई और उनके दोहे चौपाइयाँ मन्त्र मुग्ध करती रहीं I शांति प्रिय, घर की टीवी को भी बहुत धीमी सुनने वाली मैं, मुझे उन २४ घंटो में एक बार भी शोर का अहसास नहीं हुआ I 
छोटा सा शहर मगर कितना सुकून है यहाँ I कहीं कोई तमन्ना नहीं ,अपव्यय रहित आडम्बर से परे जीवन यापन.......अपने परिवार में ही तमाम सृजनात्मक शक्तियों को, निर्लिप्तता से झरनों की तरह बहता हुआ बचपन से देख रही हूँ I अपने अपने काम में सभी मगन एक जुट होकर जैसे गुथी हुई माला की सभी मणियों में एक ही सूत्र व्याप्त हो I ईर्ष्या, द्वेष, छल उन महानगरो की अपेक्षा दशमलव एक प्रतिशत ही हो शायद I 
लौट आई हूँ फिर अपने धाम .....ये.समझते हुए की कुछ भी ठहरने वाला नहीं I यही का किया यही रह जाएगा I कृतियाँ दो पीढ़ी बाद धुल चाटेंगी I जाने कितने मेरे जैसे आये और गए फिर भी जीने लगी हूँ एक असंतोष के बीच......... 
...........आदर्शिनी .....२१/७/०१३

कुछ मेरी सामाजिक बाते fb की

वयस्क को बाल सुधार गृह में रखा गया, पता नहीं वह सुधरेगा कि अन्य बाल अपराधियों को और बिगड़ेगा ..... कल तो न्याय का इंतजार व्यर्थ गया आज देखें न्याय कौन सा गुल खिलाता है ........ ९ सितम्बर की रात इसी विषय पर एक कार्यक्रम आ रहा था ...जिसमे प्रसून बाजपेई जी ने अंत में बताया कि "आप लोगों ये जान कर बहुत हैरानी होगी कि १६ दिसंबर के बाद १५०० (डेढ़ हजार ) "रजिस्टर्ड" मामले ऐसे ही दर्ज हो चुके हैं " 
हो भी क्यों न जब कोई भय ही नहीं है तो तो ये दुष्कृत्य तो होंगे ही ...जब १५०० रजिस्टर्ड मामले है तो न जाने कितने बिना रजिस्टर्ड किया मामले होगे................

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सरकार गंभीरता से प्रदेश में आई पर विपत्ति ओर ध्यान दे, वोटों की राजनीती में बेगुनाहों का खून बहा कर कोई पार्टी अपनी रोटियां न सेकें, हमारे नगरवासी अफवाहों पर भरोसा न करे आज कल कुछ भी कृतिम बनाना असंभव नहीं कोई भी सी डी कोई भी पिक्चर एडिट कर झूठी बनाई जा सकती है या वो कब की है कितने वर्ष पुराणी है इसको जांचे, हिंसा से हिंसा कभी शांत नहीं होती इसे समझे हम देश के नागरिक सद्भाव से रहें उपद्रियों को दंड देने का कार्य हमरा नहीं और न हम देने में समर्थ ही है किसी एक की जान लेकर समस्या का समाधान नहीं निकल सकता क्योंकि यहाँ अगर लोग रोज़ मरते हैं तो रोज़ जन्मते भी है इसको समझे, विवेक से सोचे, धैर्य रखे, प्यार बाँटें,............

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प्राईम टाइम में हमेशा भारतीय दो पार्टियों कि नोक छोंक सुनती थी लेकिन आज पाकिस्तानी पत्रकार के समक्ष जिस तरह मीनाक्षी लेखी जी ने अपनी बात अपने आक्रोश के जरिये और किशोर जी ने जिस आक्रामक रूप के साथ देश का प्रतिनिधित्व किया उसे देखकर मन खुश हो गया.....अगर आपलोग सुनने से वंचित रह गए हों तो नेट पर सर्च कीजिये और हम भारतियों का जज्बा देखिये, और देखिये कि हमारे मामले में किस तरह बाहर वाले टांग अडाते है लेकिन हम उनको ये छूट नहीं देते....

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आज सर्वेश अस्थाना जी ने कहा कि हम स्वदेशी चीजों का इस्तमाल करके रूपये की कीमत को बढ़ा सकते है और प्रभात प्रणय जी ने स्वदेशी वस्तुओं की लिस्ट प्रस्तुत की जिसमे पता चला कि बहुत से जाने माने उत्पादन भारत के हैं जो फैंसी नाम के कारण बाहर के लगते हैं .......पर यहाँ एक विचार और भी कई दिनों से मन में है उत्तर प्रदेश में लाखों लैपटॉप बांटे गए वैसे तो वो कोई अपनी जेब से नहीं बांटे जा रहे है फिर भी अगर वो "hp" का लैपटॉप न होकर "hcl" का होता तो भारत की काफी मुद्रा विदेश जाने से बच जाती .....क्या इतनी समझ अखिलेश जी को नहीं है? या देश के प्रति दर्द नहीं है? या बाहर वालों के आगे छले जाने में लाज नहीं आती?.....

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आज सर्वेश अस्थाना जी ने कहा कि हम स्वदेशी चीजों का इस्तमाल करके रूपये की कीमत को बढ़ा सकते है और प्रभात प्रणय जी ने स्वदेशी वस्तुओं की लिस्ट प्रस्तुत की जिसमे पता चला कि बहुत से जाने माने उत्पादन भारत के हैं जो फैंसी नाम के कारण बाहर के लगते हैं .......पर यहाँ एक विचार और भी कई दिनों से मन में है उत्तर प्रदेश में लाखों लैपटॉप बांटे गए वैसे तो वो कोई अपनी जेब से नहीं बांटे जा रहे है फिर भी अगर वो "hp" का लैपटॉप न होकर "hcl" का होता तो भारत की काफी मुद्रा विदेश जाने से बच जाती .....क्या इतनी समझ अखिलेश जी को नहीं है? या देश के प्रति दर्द नहीं है? या बाहर वालों के आगे छले जाने में लाज नहीं आती?

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दो बातें हो सकतीं हैं या तो मुल्क के किसी बड़े राज नेता के भाषण या राष्ट्रीय त्योहारों पर सुरक्षा कर्मियों और पुलिस विभाग पर इतना अधिक मानसिक और शारीरिक श्रम करना पड़ता है कि उनको खाने पीने तक की फुर्सत नहीं मिलती तभी तो थोड़ी देर के भाषण में बगल में ही खड़ा पुलिस कर्मी बेहोश हो गया ....पर भाषण एक सेकेण्ड के लिए भी न रुका.... क्या यह मानवता है? अच्छा वक्ता बिना पढ़े अच्छा भाषण देगा ये तो निश्चित है मगर आज के दिन भी उसका व्यक्तिपरक भाषण क्या सही है? क्या सर्फ़ को ऊँचा दिखाने के लिए टाइड की कमी बताना जरुरी है? कहा जाता है दूसरी लाइन को छोटा करना हो तो उसके बगल एक बड़ी रेखा खींच दो ......(मैं किसी पार्टी से रिश्ता नहीं रखती )......

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पक्षपात न हो


संस्कारों में भेद की पक्षधर मैं बिलकुल नहीं हूँ ...जो गलत है वो दोनों वर्ग लिए गलत है कोई चीज़ एक के लिए हव्वा और एक के लिए क्षम्य या कम क्यों? एक बार कल्पना कर के अवश्य समझे....सम्मानित है वह घर जहाँ हर रिश्तों के प्रति अलग-अलग कर्तव्यों को तो समझाया जाता हैं लेकिन संस्कारों की सीख समग्र रूप से दी जाती है उसमे बेटा बेटी का भेद नहीं होता ...अति प्राचीन काल की आत्मतुष्टि कि विचारधारा से बाहर आकर सोचना हो

अभी बारिश पर ...एक चिंतन

खुले आकाश में कुछ ही देर में कहीं सफ़ेद तो कहीं सिलेटी बादलों ने नभ को कांतिहीन कर दिया I लगा हवा का झोंका मात्र आशान्वित कर इन बादलों को उड़ा ले जायेगा, किन्तु बूँदा-बाँदी के साथ उसका क्रम तेज वर्षा में परिवर्तित हो गया I हम दोनों अपना काम छोड़ मन्त्र-मुग्ध से उस वर्षा को निहारने लगे I 
वह कह उठी नेहा की तबियत ठीक नहीं, आँगन में कपड़े भीग गए होंगे वह टाइफाइड से कमजोर हो गई है कैसे उठाएगी, मैंने भी उसकी इन विषम परिस्थितियों के चिंतन में व्यर्थ की सान्त्वना दे अपना उत्तरदायित्व निभाया फिर १५-२० मिनट की तेज बारिश की सुन्दरता में अपने को डुबा दिया I

मन जाने कहाँ-कहाँ कुलाचें मारने लगा, कभी आसमान देखते कभी मध्य तो कभी तल I ध्यान टूटा तो सोचा निशा से पूछूँ कि उसके मन में अब तक क्या चला बारिश को देख, किन्तु लोगों के घर में काम कर दो जून का जुगाड़ कर संघर्षमय जीवन जीने वाले उनका कल्पनालोक क्या होगा सोच खामोश रही वैसे भी वह अपने घर के प्रति चिता अभी ज़ाहिर कर चुकी थी I तभी वह मासूमियत से बोल पड़ी “भगवान के घर भी कितना पानी होगा जो वह पूरी दुनियां में बरसाता है “ मेरी झिझक का उत्तर स्वयं ही मिल गया मुझे ...मैं मुस्करा दी I 
सोचने लगी ठीक ही तो कहा उसने ये बीच के विषय ...समुद्र, गरम हवा, पहाड़ इन सब का ज्ञान तो आत्मसंतुष्टि और छलावा मात्र है I कुछ ऐसा है जो अब भी सहस्य है, जो इन सब दृष्यमान पदार्थों का उत्पादक है I जिस तथ्य को निशा जैसे व्यक्ति पल में भाँप लेते हैं और हम जीवन का कितना समय उसे समझने में व्यर्थ करते हैं I 
............अभी की बारिश पर .....

महत्त्व बालिका का

कन्या भ्रूण बचाओ पर बहुत सी संस्थाएं काम कर रही हैं, भ्रूण संरक्षण संस्थाओं की ओर से और इस विषय को लेकर बहुत से कविसम्मेलन भी होते रहते हैं लेकिन क्या सिर्फ बेटी को जन्म देने के प्रोत्साहन से ही अपना कार्य पूर्ण हो रहा है ? देश का जो हाल है उससे क्या कन्याओं का औसत और कम नहीं हो रहा? 'कन्या भ्रूण संरक्षण संस्थाओं' को अपना नाम बदल कर 'बालिका सुरक्षा संस्थान' रख लेना चाहिए ......लेकिन इतना बड़ा उत्तरदायित्व निभाने की हिम्मत कौन कर सकता है ?

........आज के सन्दर्भ में बेटी शब्द बहुत संकुचित हो गया है दायरा कुछ सीमित सा लगता है अपने घर में रहने वाले दूसरी प्रजाति के लोगों से भी स्नेह हो जाता है फिर बेटी की तो बात ही क्या ..... बेटी के स्थान पर लड़की ,बालिका, कन्या ज्यादा विस्तृत है

........सच पुछो तो "सेव गर्ल चाइल्ड" कि जरुरत ही न पड़े यदि घर-घर में स्त्री जाति के हर रिश्ते को महत्वपूर्ण मान लिया जाए खासतौर से बहू को ......जब बालिका, युवती, महिला का महत्व स्वीकार कर लिया जायेगा तो बेटियां तो खुद ही जन्म लेने लगेंगी .......

डॉ मित्रेश गुप्त जी कि कुछ पंक्तियाँ ध्यान में आ रही है

लडकी है सौगात ईश की वह घर की फुलवारी है 
फूलों की है गंध सुगंध वह नव चन्दन की क्यारी है 
योग्य बनाना, नहीं लादना कभी उसे परिधान से 
विदा उसे करना है धन से नहीं, स्नेह सम्मान से 
...................................
गर अपने शब्दों में लड़कियों को कहूँ तो ये कहना है सन्देश रूप में 

दिल की धड़कन को जरा गौर से सुनना होगा 
आते जाते हुए ठहराओ को गुनना होगा 
रेल जीवन की तभी अपने मुकाबिल होगी 
साँस लेने का हुनर खुद हमें चुनना होगा 
............आदर्शिनी....

पुरुष महत्त्व

जिस तरह कहा जाता है कि पुरुष कि हर कामयाबी में किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है ....उसी तरह जीवन की तमाम सीढ़ियों को पार करना और किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना पुरुष के सहयोग के बिना संभव नहीं ....जीवन के प्रत्येक मोड़ पर पुरुष के अस्तित्व को दिल से स्वीकारती हूँ ....आदर्शिनी....

एक इच्छा

रूचि-रूचि सुरों में बाँध कर मनमीत लिखता होगा 
क्या कोई मेरे लिए भी गीत लिखता होगा ?
मेरे अंतस के उजाले की सियाही में डुबोकर 
कल्पना की डोर से संगीत लिखता होगा 
क्या कोई मेरे लिए भी गीत लिखता होगा ?
.........आदर्शिनी.......मेरठ ,gonda

क्या चल पड़े इधर सजन ....गीत

उस गोरी के मन की बात जिसका सांवरा रोज़ शहर नौकरी करने सुबह-सुबह जाये और सांझ ढले आये ..तो वो बिचारी रोज़-रोज़ का बिछोह कैसे सह पाए .....प्रस्तुत है ....
....................................................
ये चाँद कुछ झुका-झुका 
ये दीप से सजी सड़क 
ये द्वार पूजती पवन 
क्या चल पड़े इधर सजन?

तारे कुछ ही बच रहे 
विहग के शोर मच रहे 
किरण धरा को चूमती 
अधर-कपोल रच रहे 
खड़ी है भोर रंग लिए 
सुबह बढ़ी तुरंग लिए 
नयन-युगल विकल हुए 
विछोह कर रहे सहन 

ये पत्तियों की जालियाँ 
हिला उठी हैं बालियाँ
क्यों हरसिंगार बेसमय 
सजा रहा है डालियाँ ?
हवा की साँस तेज है 
कुछ पीर निस्तेज है 
ह्रदय धड़क-धड़क उड़ा 
पकड़ जरा चला गगन 

आ प्रीत को सँवार लूँ 
निशा को बलिहार लूँ 
साँझ से सुबह तलक 
को कतरा-कतरा हार लूँ 
हर एक क्षण सुभग रहे
ये चेतना सजग रहे 
गुलों से ले के गंध-रंग 
सजा लूँ रैन का वसन 

ये चाँद कुछ झुका-झुका 
ये दीप से सजी सड़क 
ये द्वार पूजती पवन 
क्या चल पड़े इधर सजन?
........आदर्शिनी......मेरठ, गोण्डा....

एक बरसात

जब भी आसमान अपने उमड़ते-घुमड़ते, काले-सफ़ेद मेघ से सूरज को अवगुण्ठन में ले अपने मखमली आँचल से सरसरी छेड़, बरखा की सूचना भर देता है तभी से मन मयूर सा नाचने लगता हैI फिर भोर हो या सायं मन का उल्लास न रोके रुकता है न छुपाये छुपता है Iतब निकल पड़ते हैं कुछ न कुछ खुशनुमा शब्द जुबान से .....

आज मौसम ने जो राग मल्हार का आलाप छेड़ा है उससे लगता है आज प्रथम ट्रेन छूटनी ही है आज कार्यालय की रिक्त कुर्सी भी टकटकी लगाये पथ निहारेगी .......

धीमी बारिश में आम्र-पल्लव को सहलाती, आँगन में रखे बर्तनों में से एक आधी टेढ़ी कटोरी जो आधा मुह निकाले बाहर झाँक रही है उस पर बूँद-बूँद टपकती जल तरंग सी टिप-तिन की मिली जुली ये मधुर धुन इतनी कर्ण प्रिय है की अभी भी उन बर्तनों को छेड़ने मन नहीं कर रहा ......कुछ गुनगुना लूँ ...रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम .......

पर्वों पर जनहित में जारी

हम व्यर्थ ही प्रकृति को कहर का दोषी ठहराते हैं जिस तरह हम प्रकृति से खिलवाड़ करते है इस विषय पर आत्मावलोकन कर खुद महसूस कर सकते हैं ....दुर्गा पूजा बंगालियों का प्रमुख त्यौहार है और कलकत्ता में धूमधाम से मनाया जाता है l
हमारे एक बंगाली बड़े भ्राता सरीखे मित्र से जब बात हुए तो वे बहुत दुखी थे उनका मानना था कि अब प्रकृति पर विभिन्न तरीकों से बहुत चोट पहुँच रही है तो हमें अपने को बदलना चाहिए l लकीर के फकीर कि तरह हम समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुँह नहीं मोड़ सकते l गलत को नकार, विवेक से सही के बदलाव को स्वीकारने की अब हम में समझ और क्षमता है l उन्होंने बताया कि मैं मूर्ति विसर्जन करने नहीं जाता ...मुझसे नहीं देखा जाता ...जिसकी नव दिन सजा संवराकर भक्तिभाव से पूजा करो उसे जैसे तैसे नदी में बहा दो l जबकि विसर्जन हर शहर में होता है पर उतना पानी सब जगह नहीं होता और खण्डितमूर्ति और पूजन सामग्री किनारे पर रह जाती है जो जल और थल दोनों को गन्दला करती है औरउस मूर्ति और पूजन सामग्री का अपमान भी l आज fb पर ही दिखा की दुर्गा माता को किसी धनाड्य ने १६ करोड़ का ५.५ लाख किलो घी चढ़ाया है l तस्वीर में लोग उसपर खड़े दिख रहे हैं l जब ये सब पानी में जायेगा तो पानी को कितना प्रदूषित करेगा और स्थल कोभी......

कृपया आगामी वर्ष तक इसपर विचार कर लें ..वर्ना जाने कितने सुनामी, फाइलीन और केदार नाथ जैसी विपत्तियाँ हमें धर दबोचेंगीं l ............जनहित में जारी......आदर्शिनी श्रीवास्तव , मेरठ


Friday, March 8, 2013

महिला दिवस पर ----हमें बदलना होगा

Sunday, February 24, 2013

प्रतिबिम्ब

आज पर अतीत का
प्रतिबिम्ब ही हूँ लख रही
संभाव्य को दे आत्मा
मैं आज कल जीने लगी हूँ
उलझी हुई एक डोर थी
सुलझी न मुझसे अब तलक
तन पर गिरा एक जाल है
जिससे अभी निकली नहीं हूँ
अर्थ जीवन का रहे
इस सोच में जीने लगी हूँ
संभाव्य को दे आत्मा............

अंतस्तल झाँक देखा
हर सदन खाली मिला
एक कोने में मगर
हल्का उजाला भी मिला
रख दी थी पतवार मैंनें
राह दो तो फिर उठाऊँ
एक सरल विश्वास दो तो
नव सवेरा झिलमिलाऊँ
अर्थ जीवन का रहे .................
संभाव्य को दे आत्मा .............

थे कदम जिसपर धरे
राह उससे थी परे
कल्पना है तुझमे बेहतर
सोच दो तो पग बढ़ाऊँ
बस यही मन में प्रबल
एक प्यास का दीपक लिए हूँ
प्रेरणा बन कर किसी को
दीप्त दीपक मैं थमाऊँ
अर्थ जीवन का रहे ................
संभाव्य को दे आत्मा .............
.......आदर्शिनी.........२३/२/०१३

Saturday, February 2, 2013

सासू माँ

अभी कुछ समय पहले ही तो मुलाकात हुई थी l लगभग सवा वर्ष पहले दस दिन मेरे पास रहकर गईं थी वो l उनकी पोती का ब्याह जो था l किन्तु आज आभास होने लगा है कि एक महापुराण पर धूल जमने लगी है. जिसकी परत लाख पोछने पर भी मोटी होती जायेगी l जिसने अब तक थोडा भी उस पुराण का अध्ययन कर लिया या थोडा भी समझ लिया तो वह अवश्य ही अपने मनोभाव से इस भवसागर को पार कर जायेगा l उस पुराण के अमृत वचन, उसकी छाँव, उसका ज्ञान, उसका निर्देश, दूरदर्शिता, समस्याओं का निवारण, तपती देह पर शबनमी फुहार है, उस ग्रंथ का सानिध्य कंटकाकीर्ण पथ को रानीखेत का सुन्दर बाग करने में समर्थ है.

आज उनकी नज़र में मैं उनकी बहू नहीं बल्कि किसी परिचित इंजीनियर के घर में ब्याही गई कन्या थी फिर भी चरण स्पर्श के समय उनकी स्नेह पूरित डबडबाई आँखें, आशीर्वचन और पूरा खुला करतल सर पर महसूस कर इस रामायण से लिपटने को छटपटा गया l उनका कभी जागृत तो कभी सुप्त होता स्मरण बूढ़े को बच्चा, छोटे बच्चे को पिता और शादी के घर को सौरी का घर बना रहा था . सजी संवरी नई नवेली पौत्र वधू उन्हें सद्यः प्रसूता माँ लग रही थी, कभी औषधि तो कभी अन्न त्याग का हठ, चालीस पचास वर्ष पुराने दिवंगत स्वजनों को स्मरण कर विलाप, वर्षों पहले स्वीकार कर चुकी अपने वैधव्य के बावजूद अपने प्राणनाथ कि प्रतीक्षा...., वो और कोई नहीं मेरी सासू माँ हैं, उनकी एक-एक क्रिया उनके प्रति कभी माँ जैसा ममत्व जगा देती और उन्हें दुलारने का मन करता और कभी उनकी ओर सबकी विवशता पर मन सिहर जाता और आँखें द्रवित हो जातीं l

अपने बचपन से जवानी तक के सफर में अपना मायका अपनी माँ याद आने लगीं, याद आने लगी उनकी स्नेहपूर्ण फटकार, गोदी का झूला, आँगन में बिछी खाट पर अनमोल लोरियाँ, हर बच्चे के लिए रातों रात जगती आँखें, कभी मनगढंत तो कभी इतिहास और अध्यात्म को खंघालती सदराह दिखाती सशक्त करती कहानियां, ऐसी होती है एक माँ और एक महिला.

वो महापुराण तो चिरंजीवी है......., कोई संशय नहीं... फिर भी ......, फिर भी निरंतर समय कि गर्द झाड़ते, प्यार, दुलार, श्रद्धा, सम्मान, संरक्षण देते उसे और अधिक दिन बहुत दिन सुरक्षित रखा जा सकता है l अपना साया बहुत दिन बनाए  रखना हम सब पर 
माँ l ...............आदर्शिनी...........२/२/०१३

Wednesday, January 16, 2013

                                           अंजना (कहानी)

आज अंजना की आँखों से आंसूंरुक नहीं रहे थे. दिल जैसे फटा पड़ रहा था. चीखना चाह रही थी लेकिन घुट रही थी, आँखों में मजबूरी भी थी याचना भी, कि प्ल्ज़ मेरे दर्द को समझो. विवशतावश लिए गए पैसे, और अब उस पैसे भी महरूम मैं अपने वायदे से मजबूर हूँ. काश वो रूपये होते तो उसे वापस कर अपने जिगर के टुकड़े जिसे नौ माह अपने उदर में रख खून से सींचा उसे अन्य को कभी न देती. अपने उदर में उन शुक्राणुओं के प्रतिस्थापन के साथ ही मां बन्ने का विचार हिलोरे लेने लगा था. दिन बीतते-बीतते जी मिचलाना,धीमी लात तो कभी सर का एहसास, भारी होता पाँव,बेडौल होता शरीर,पेट और कमर का दर्द, अपने ही आकार को दर्पण में देख मुस्कुराना और अनायास ही पेट पर हाथ चला जाना फिर वो प्रसव की असहनीय पीड़ा? पूरे के पूरे शरीर में मातृत्व का एहसास. अनजान शहर में अनजान लोगों से विभिन्न परामर्श, जो उसकी हकीक़त से अनजान थे. कोई तेज चलने को मन करता तो कोई उसे गरी मिसरी खाने की सलाह देता. कोई कोई छेड़ता अरे ..अभी जो मन चाहे खा लो वर्ना बच्चा लार टपकायेगा और अंजना उस समय किये हुए सौदे को भूल जाती.

               अंजना अकेले में खुद को उस बच्चे से बिछोह के लिए तैयार करती और दूसरी ओर मातृत्व मोह में बंधती भी जाती. स्वीकृति देने से पूर्व अंजना इस उहापोह से अनजान थी. उसे नहीं पता था ममता की डोर क्या होती है? वह सिर्फ किताबों में मां की महिमा का बखान पढ़, मां के महत्त्व को समझती थी. कहते हैं रिश्तों को समझने के लिए रिश्तों का होना जरूरी है उसे ये बात अब समझ में आ रही थी. वह ये भी महसूस कर रही थी कि जोड़े कि दो बूँद का अंशांश उसके किलो-किलो रक्त पर भारी पड़ गया, वो तरस रही थी बच्चे को सीने से लगाने के लिए. पंद्रह दिन से बच्ची उसके साथ थी. शहद, पानी, गोरस से पेट भरने के बाद भी वो रोटी रही थी किन्तु एक दिन बाद डॉ की सलाह से अंजना के वक्ष से लग उसे जो तृप्ति हुई थी फिर तो नन्ही कली कितने घंटे सोती रही थी और अंजना अपलक नेत्रों से उसे निहार निहाल हुई जा रही थी. जैसी गोरी निश्छल अंजना वैसा ही गोरा निश्छल उसका प्रतिबिम्ब. वो तरस रही थी उन सब बाल क्रीडाओं के लिए जो उसने अन्य नन्हे-मुन्हों में अनुभव किये थे. बिस्तर गीला करना घुटनों-घुटनों चलना, सामानों की उठा पटक, तुतलाती बोली, पानी के स्तान पर मम्म: मम्म: कह पीछे लगाना, रात भर मां को जगा फिर दिन भर खुद चैन से सोना. आज ये सब सुख अनायास ही चिरंश की झोली में चले गए थे. किन्तु हाय! अब किये किये गए वादे  से विश्वासघात अंजना के लिए संभव न था.

           दूसरी ओर मृदु कि भी तरसती आँखों में मातृत्व हिंडोले ले रहा था. उसने गर्भ को महसूस भले न किया हो लेकिन एक-एक दिन कर इस शुभ दिन कि प्रतीक्षा अवश्य कि थी और स्वस्थ बच्चे कि अभिलाषा में उसने उस नियोग माँ (सेरोगेट मदर) को स्वस्थ रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, मृदु और चित्रांश डॉक्टर के द्वारा अंजना का हाल-चाल लेते रहते और जबरदस्ती उसकी जरूरत का सामान उसे पहुंचाते रहते. मृदु इस शुभ दिन कि प्रतीक्षा में कभी मोज़े बिनती,कभी स्वेटर,तो कभी मुलायम सूती कपडे कि लंगोटी बनाने लग जाती तब चित्रांश इस उतावलेपन को देख उसे छेड़ता, आलिंगन में लेता और मुस्कुराता खुश होता. आखिर वो भी पिता के पद पर प्रतिष्ठित होने वाला जो था .

            अंजना के पास तो नई-नई अनुभूतियाँ थीं किन्तु मृदु...? उसे तो बस इंतज़ार ही करना था. निष्क्रीय खाली बैठ कल्पनाओं के महल संजोती रहती. ...व्यस्तता में घंटों छूमंतर हो जाते हैं किन्तु खाली पण में इंतज़ार कष्टकारी होता है .

       अंजना उन दंपत्ति कि आभारी थी कि उनके बढे धन के सहयोग से उसके गरीब घर के भविष्य के लिए सहारा मिल गया था और उसकी न होकर भी उसकी बच्ची एक संपन्न,शिक्षित और सदाचारी घर में जा रही थी
जिसे  भविष्य में,आपने खून पर गर्व करने कि पूरी सम्भावना थी . मृदु और चित्रांश ने इन दिनों उसे लगातार संपर्क में रखा था और अपरिचित या प्रथम प्रसव के भय को मक्ह्सूस नहीं होने दिया था फिर भी आज अंजना का मन मृदु के प्रति मृदुलता का अनुभव नहीं कर पा रहा था .वो ये भी जानती थी कि इस विपरीत भावना कि वो अधिकारी नहीं क्योंकि जो हुआ वो उसकी स्वीकृति से हुआ और आपने परिवार के सुखद भविष्य के लिए किया गया .

आज अंजना को वो तमाम घटनाएं जो टी.वी. पर देखती रही थी और अब तक भूल चुकी थी याद आने लगी थी. उसने उन तमाम औरतों कि व्यथाकथा सुनी थी जो सेरोगेट मदर बनने के लिए जबरदस्ती ढकेली जातीं हैं और उनकी शारीरिक पुष्टि को अनदेखा कर उस औरत को धन उपार्जन का साधन मात्र बनाया जाता है . कितने ही लालची पति अपनी पत्नी कि भावनाओं को ताख पर रख कोख का सौदा करते हैं और साथ ही उन्हें कलंकिनी भी कहते हैं .पुरुष का ये अपना ही व्यक्तित्व होता है औरत के त्याग और समर्पण को इतना उपेक्षित करो कि वो अपनी महत्ता ही भूल जाए. कितनी ही अपहृत कन्यायें बच्ची से औरत बन नियोग माँ का काम जबरन करतीं हैं .
    फिर भी अंजना इन सब से अपने को सौभाग्यशाली मान रही थी .उस पर कोई दबाव नहीं था, दबाव था तो बस जिम्मेदारियों का . यह त्याग उसने पूरे होशोहवास में किया था. एक बड़े परिवार को सम्भालने हेतु उसने स्वंय डॉक्टर से संपर्क किया था और अपना परिचय गुप्त रखने का अनुरोध भी. आज के लिए वह अपने को मानसिक तौर पर तैयार कर रही थी फिर भी उसकी जो मनोदशा थी उससे देवकी और अन्य अभागी माँओं से तुलना कर अपने को शान्त रखने का प्रयास कर रही थी कम से कम कंस जैसा वहशी हाथ तो नहीं था जो देवकी के समक्ष ही सद्य: जात: शिशु को चट्टान पर पटक लहुलुहान कर दे और देवकी प्रतिदिन दीवार पर पड़े रक्त बिंदु को लाल से कत्थई होता देखती रहे. पिछड़े  प्रदेशों में अनेकानेक घटनाएं ऐसी होती है जिसमे शिशुओं को अन्धविश्वास कि बलिवेदी पर चढाते हैं और कुछ कायर कन्या भ्रूण का पता लगते ही उसकी गर्भ में ही हत्या करा देतें हैं. पुरुष के चक्रव्यूह में घिरी इस पुरुषप्रधान समाज में एक लड़की कितना और कितना सहतीं हैं

       धीरे-धीरे अंजना को अपने पर और उस युगल दम्पत्ति पर गर्व होने लगा था . जिसने एक बेटी को  ममता कि छाँव दी थी और उस पर बेटा या बेटी होने कि शर्त भी नहीं रखी थी . अब अंजना को कोई पश्चाताप नहीं था बल्कि उसे गर्व था कि उसके कारण किसी के घर कि बगिया लहलहाई है वरना ममता के बदले इन रुपयों का क्या मोल ? समय में करवट बदली नहीं  कि ऐसे जाने कितने लाख चंद सिक्के बन जायेंगे. लेकिन मृदु और चित्रांश कि सूखी बगिया बिना उसके त्याग के हरी-भरी होना संभव नहीं थी. उसे गर्व था जिस प्रकार भगवान भास्कर ने अपने तेज से कुंती को मोहित कर और योगशक्ति से उसके भीतर प्रवेश कर गर्भ स्थापित किया और उसके कन्यात्व को दूषित नहीं किया उसी प्रकार उसे वासना छूई भी नहीं और वह माँ कि गौरव अनुभूति से परिचित हुई वो प्रसवावस्था के नौ माह और उससे जन्मी पन्द्रह दिन कि कन्या के सानिद्ध्य कि स्मृति में पूरा जीवन गुजार सकती है .
         
तुम धन्य हो अंजना ..............II

..........ADARSHINI.........16/01/2013    















 
                                      

Monday, January 14, 2013

कुछ तो करना होगा




 
      समाज में नैतिक पतन चरम पर है. सुशील शर्मा द्वारा तंदूर में पत्नी को झोंकना ,पिता द्वारा बाथटब में बेटी कि हत्या, बाप जीजा चचेरे रिश्तों द्वारा घर में असुरक्षित बेटियां, हत्याकर पेट चीर और अधिक विनाश के लिए टाइम बम फिट करना, सर कलम करना लाश को विकृत करना , एक तरफ कारवाही दूसरी तरफ रोज़ ही दुराचार कि घटनाओं से पटा पड़ा अखबार, वीभत्सता इतनी कि आंते तक बाहर खींच लेना क्या किसी भी तरह से ये कृत्य मानवीय गुणों के करीब है? या हमारा इतिहास हमें ही फिर से राक्षस या पशु कि श्रेणी में गिनेगा ?
     जो हमारा वर्तमान है वही कल भविष्य था हमने कभी अपने बच्चों के लिए ये नहीं सोचा था कि हमें भविष्य में ऐसे समाज के दर्शन होंगे, गर्त में जाती हुई नैतिकता और तमाम घटनाओं कि वीभत्सता कल्पना से भी परे है, विकृत हुए मन और दिमाग कि सुधार कि आशा दोबारा नहीं कि जा सकती, क्योंकि दुराचारी मन एक ऐसा दलदल है जिसके पंक से यदि स्वंय को बचा कर न रखा गया तो मनुष्य उसमे धँसता ही जाता है, हाँ इस मनो विकृति कि शुरुआत न हो ऐसा प्रयास जरूर किया जा सकता है,
      तमाम संचार माध्यम, इंटरनेट, आपत्तिजनक वेबसाईटस, बच्चों का कम उम्र में ही परिवार और माता-पिता से दूर बाहर जाकर पढ़ना और काम करना उन्हें मार्ग से अधिक भटकने के अवसर देता है, आधुनिक और आर्थिक युग में ये स्थितियां तो आनी ही हैं और बढ़ती भी जानी हैं, लड़का हो या लड़की अब दोनों ही महत्वाकांक्षी और उच्चाकांक्षी हैं और उन्हें समाज में निकलना ही है कोई भी शिक्षित और समझदार माता-पिता अब अपनी कन्या के लिए भी वही स्वप्न देखते है जो पुत्र के लिए, जिनका सब अच्छा-अच्छा हो गया तो समझो उन्होंने गंगा नहा लिया, किन्तु..., तो अब क्यों न जब तक बच्चे परिवार के सानिध्य में है उन्हें सही संस्कार के साथ कल आने वाले और घृणित युग से टकराने के लिए सक्षम बनाएँ, क्यों न बेटियों को गुडिया गुड्डा के साथ कार, बन्दूक, यंग इंजीनियर, मोनोपोली, रुबिक्स क्यूब, जैसे बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने वाले खिलौने भी दें, क्यों न उन्हें किताबी ज्ञान के साथ जुडो कराटे तैराकी के भी गुण सिखाएँ, क्यों हम लड़कों कि अपेक्षा उन्हें ही त्याग, बलिदान, समर्पण, समायोजन और बर्दाश्त का पाठ अधिक पढाएं, जबकि ये दोनों ही लिंगों के लिय सामान हितकारी है. एक सिगरेट पीती लड़की कि फोटो पर बहुत उपेक्षनीय टिप्पणियाँ आती है तो क्या पुरुषों के लिए ये गर्व का विषय माना  जाना चाहिए? बुराई दोनों के लिए बुराई है. हमारा एक के लिए छूट और स्वीकार्य और दूसरी ओर उपेक्षा और बंधन कैसे सही है? दो संतानों के प्रति ये कैसा विभेद? शायद यही महिला पुरुष के मध्य बढ़ती खाईयों का कारण है, ध्यान रखे अब वो समय आ गया है कि जैसा परिवेश, जैसा खेल, जैसी सीख दे वो बेटा बेटी कि बराबर हो. जिससे दोनों ही एक दूसरे के मानवीय गुणों को आत्मसात कर, समानता के अधिकार के सृजित समाज में सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकें, वरना शराबी पति आपकी बेटी को कौड़ी कौड़ी मोहताज कर भी देवत्व पद पर आसीन रहेगा, और लालची पति रोज़ लात घूँसों से प्रताड़ित कर माएके से धन कि माँग करवाएगा और चुप रहने पर जीते ही अग्नि दहन होगा, आपकी बेटी आपने अनाधिकारी परिजनों से नोची जायेगी और सहनशील कहलाएगी , आपकी बेटी का पति उसी के सामने दूसरी सेज सजायेगा और वो मर्यादित रहेगी, राम सिंह फिर किसकी बेटी का चयन करेगा कहा नहीं जा सकता, ध्यान दे ये किसी महिला को बिगाड़ने कि बात नहीं है और न किसी सीमा का उलंघन, आप शिक्षित ही है जो ये लेख पढ़ रहें है, ये आपकी नवजात, एक वर्ष, चार वर्ष, आठ वर्ष जैसी नन्ही कली कि सुरक्षा और अधिकार कि बात है, अब अगर उसे घर कि चार दीवारी में कैद कर, देवी बना, संस्कार थोप, अनावश्यक नारी का महिमामंडन कर बंधनों में बाँध मानसिक औए शारीरिक रूप से कमजोर किया तो उस पर हुए अत्याचार और बलात्कार के दोषी हम खुद ही होंगें, उसके निर्णय, आवश्यकता, सुख, इच्छओं, स्वास्थ्य, को शिक्षा को खुलकर महत्व दें

             घर कि महिलाओं को परिवार में ऊँचा स्थान, मान-सम्मान. और महत्त्व दें, व्यवहार, अत्यधिक अपेक्षाएं छोड़ मानसिकता बदलें, घर का बासी भोजन खुशी से मिलकर खाएं, ऐसा कदापि संभव नहीं कि आप अपनी बेटी कि सुभविष्य कल्पना कर उपरोक्त तथ्य का समर्थन तो कर रहे और घर कि महिलाओं कि ओर से नजरिया वही है .
आदर्शिनी श्रीवास्तव दर्शी
14/1/2013, meerut