Thursday, September 29, 2011

प्रेम अनिवर्चनीय यहाँ

नदी का नदी में विलय देखो
कितना अद्भुत है ये संगम देखो
एकता तो है नदी की नदी से मगर
पृथक भावों का विलक्षण प्रवाह देखो

अलग हो कर भी जो दिखती यहाँ एक हैं
एक होकर भी जिनका उद्गम है अलग
ज्ञान के चक्षु अब तो उकेरो जरा
ईश्वर का जगत को ये संकेत है

किसका निमंत्रण है किसका समर्पण है ये
चरम पर पता ये कैसे चले
प्रेम में हो लींन नदिया अद्वैत हो गईं
अब शांत समता का भाव प्रबल देखो

प्रेम अनिवर्चनीय यहाँ प्रेम अकथनीय यहाँ
वो क्या समझे, ईश्वर को पृथक जो जगत से करे
निर्लिप्त भावों से प्रेम जगत से करो
पूर्ण निष्ठां से सेवा तुम सबकी करो