Monday, January 14, 2013

कुछ तो करना होगा




 
      समाज में नैतिक पतन चरम पर है. सुशील शर्मा द्वारा तंदूर में पत्नी को झोंकना ,पिता द्वारा बाथटब में बेटी कि हत्या, बाप जीजा चचेरे रिश्तों द्वारा घर में असुरक्षित बेटियां, हत्याकर पेट चीर और अधिक विनाश के लिए टाइम बम फिट करना, सर कलम करना लाश को विकृत करना , एक तरफ कारवाही दूसरी तरफ रोज़ ही दुराचार कि घटनाओं से पटा पड़ा अखबार, वीभत्सता इतनी कि आंते तक बाहर खींच लेना क्या किसी भी तरह से ये कृत्य मानवीय गुणों के करीब है? या हमारा इतिहास हमें ही फिर से राक्षस या पशु कि श्रेणी में गिनेगा ?
     जो हमारा वर्तमान है वही कल भविष्य था हमने कभी अपने बच्चों के लिए ये नहीं सोचा था कि हमें भविष्य में ऐसे समाज के दर्शन होंगे, गर्त में जाती हुई नैतिकता और तमाम घटनाओं कि वीभत्सता कल्पना से भी परे है, विकृत हुए मन और दिमाग कि सुधार कि आशा दोबारा नहीं कि जा सकती, क्योंकि दुराचारी मन एक ऐसा दलदल है जिसके पंक से यदि स्वंय को बचा कर न रखा गया तो मनुष्य उसमे धँसता ही जाता है, हाँ इस मनो विकृति कि शुरुआत न हो ऐसा प्रयास जरूर किया जा सकता है,
      तमाम संचार माध्यम, इंटरनेट, आपत्तिजनक वेबसाईटस, बच्चों का कम उम्र में ही परिवार और माता-पिता से दूर बाहर जाकर पढ़ना और काम करना उन्हें मार्ग से अधिक भटकने के अवसर देता है, आधुनिक और आर्थिक युग में ये स्थितियां तो आनी ही हैं और बढ़ती भी जानी हैं, लड़का हो या लड़की अब दोनों ही महत्वाकांक्षी और उच्चाकांक्षी हैं और उन्हें समाज में निकलना ही है कोई भी शिक्षित और समझदार माता-पिता अब अपनी कन्या के लिए भी वही स्वप्न देखते है जो पुत्र के लिए, जिनका सब अच्छा-अच्छा हो गया तो समझो उन्होंने गंगा नहा लिया, किन्तु..., तो अब क्यों न जब तक बच्चे परिवार के सानिध्य में है उन्हें सही संस्कार के साथ कल आने वाले और घृणित युग से टकराने के लिए सक्षम बनाएँ, क्यों न बेटियों को गुडिया गुड्डा के साथ कार, बन्दूक, यंग इंजीनियर, मोनोपोली, रुबिक्स क्यूब, जैसे बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने वाले खिलौने भी दें, क्यों न उन्हें किताबी ज्ञान के साथ जुडो कराटे तैराकी के भी गुण सिखाएँ, क्यों हम लड़कों कि अपेक्षा उन्हें ही त्याग, बलिदान, समर्पण, समायोजन और बर्दाश्त का पाठ अधिक पढाएं, जबकि ये दोनों ही लिंगों के लिय सामान हितकारी है. एक सिगरेट पीती लड़की कि फोटो पर बहुत उपेक्षनीय टिप्पणियाँ आती है तो क्या पुरुषों के लिए ये गर्व का विषय माना  जाना चाहिए? बुराई दोनों के लिए बुराई है. हमारा एक के लिए छूट और स्वीकार्य और दूसरी ओर उपेक्षा और बंधन कैसे सही है? दो संतानों के प्रति ये कैसा विभेद? शायद यही महिला पुरुष के मध्य बढ़ती खाईयों का कारण है, ध्यान रखे अब वो समय आ गया है कि जैसा परिवेश, जैसा खेल, जैसी सीख दे वो बेटा बेटी कि बराबर हो. जिससे दोनों ही एक दूसरे के मानवीय गुणों को आत्मसात कर, समानता के अधिकार के सृजित समाज में सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकें, वरना शराबी पति आपकी बेटी को कौड़ी कौड़ी मोहताज कर भी देवत्व पद पर आसीन रहेगा, और लालची पति रोज़ लात घूँसों से प्रताड़ित कर माएके से धन कि माँग करवाएगा और चुप रहने पर जीते ही अग्नि दहन होगा, आपकी बेटी आपने अनाधिकारी परिजनों से नोची जायेगी और सहनशील कहलाएगी , आपकी बेटी का पति उसी के सामने दूसरी सेज सजायेगा और वो मर्यादित रहेगी, राम सिंह फिर किसकी बेटी का चयन करेगा कहा नहीं जा सकता, ध्यान दे ये किसी महिला को बिगाड़ने कि बात नहीं है और न किसी सीमा का उलंघन, आप शिक्षित ही है जो ये लेख पढ़ रहें है, ये आपकी नवजात, एक वर्ष, चार वर्ष, आठ वर्ष जैसी नन्ही कली कि सुरक्षा और अधिकार कि बात है, अब अगर उसे घर कि चार दीवारी में कैद कर, देवी बना, संस्कार थोप, अनावश्यक नारी का महिमामंडन कर बंधनों में बाँध मानसिक औए शारीरिक रूप से कमजोर किया तो उस पर हुए अत्याचार और बलात्कार के दोषी हम खुद ही होंगें, उसके निर्णय, आवश्यकता, सुख, इच्छओं, स्वास्थ्य, को शिक्षा को खुलकर महत्व दें

             घर कि महिलाओं को परिवार में ऊँचा स्थान, मान-सम्मान. और महत्त्व दें, व्यवहार, अत्यधिक अपेक्षाएं छोड़ मानसिकता बदलें, घर का बासी भोजन खुशी से मिलकर खाएं, ऐसा कदापि संभव नहीं कि आप अपनी बेटी कि सुभविष्य कल्पना कर उपरोक्त तथ्य का समर्थन तो कर रहे और घर कि महिलाओं कि ओर से नजरिया वही है .
आदर्शिनी श्रीवास्तव दर्शी
14/1/2013, meerut