Monday, October 31, 2011

........कहाँ रोज़ का मिलना और पहरों पहरों की बातें .........

अकस्मात झटके हाथों को,
संभव था न मैं सह पाती,
भला किया,जो तूने
धीरे-धीरे हाथ छुड़ाया,
कहाँ रोज़ का मिलना
और पहरों पहरों की बातें,
एक-एक कम कर दिन छूटे
पहरों से पहर थे जाते,
अंतराल बढ़ता दिन-दिन का,
पहर का क्षणिकों में ढलना,
आज दिवस वो आया,
तुझमे मेरा नहीं है कोई सपना,
अभ्यस्त हुई हूँ मुश्किल से,
अब आवाज़ न मुझको देना,
संयत हो जैसे तुम प्रिय,
मुझको भी होने देना,
लाए तुम सिंदूरी बिंदिया,
कभी लाए थे कजरा,
तेरे हाथो से हर दिन
कतरों-कतरों में सजना,
हौले से चुनरी सरका के
माथे तक रख देना,
प्रेम में मैं भीगी थी जैसे
ओस में भीगे रैना,
दो संबल भुला सकूँ मैं,
पर बहुत कठिन है कहना,
तोडूँ कैसे तेरे प्रेम का,
पहने था जो अबतक गहना

Friday, October 28, 2011

......मालूम नहीं उनको हम गुजरें हैं किधर से ........

आँखों में दर्द का सैलाब,होठ कुछ कहने को बेताब,
शायद मेरी ही तरह तुम्हे भी लगे ज़ख्म गहरे हैं,
खुद की तकलीफ बयां करने की आदत नहीं तुम्हे,
काँधे का दूँ सहारा इस पर भी तो लगे पहरे हैं,

कदम बढ़ रहे हैं मेरी ओर हम समझ रहे हैं,
फासला दरमियाँ रहे अनजान बन पीछे खिसक रहे हैं,
मिलने की ख्वाहिश है इस पर हमने बात टाल दी,
याद आ गए वो दर्द जो अबतक हमें तोड़ रहे हैं,

दिल मोहब्बत करने की फिर गलती ना कर जाये,
प्यार को ठुकराना भी तो आसान नहीं है,
क़ुबूल करूँ तोहफा जिद थी उनकी बहुत लेकिन,
कह दिया तुम में जो बात है दौलत में नहीं है,

मालूम नहीं उनको हम गुज़रे हैं किधर से,
कैसे कहूँ हदतक मोहब्बत कर चुकी हूँ मैं,
दिल लेना और देना कोई दिल्लगी नहीं है,
एकबार जिसका होना था उसकी हो चुकी हूँ मैं,


Saturday, October 22, 2011

बेचैन रूहों का क्या करूँ?

गीत ही नहीं फिर सुरों का क्या करूँ?
सूरत ही नहीं,फिर इन शायरी का क्या करूँ ?

दिल में घुटती है आवाज़ किस क़दर हमदम,
फंसी दरारों में जो, उन बेचैन रूहों का क्या करूँ?

चाहते तुम भी नहीं,चाहते है हम भी नहीं,
बढ़ती दूरियों का जिकर, अब करूँ भी तो क्या करूँ?

तुझसे लिपटा मेरी जिंदगी का तराना है,
जब जिंदगी ही नहीं फिर उन खजानों का क्या करूँ?

तड़प के रोज कई, इज़हार कर दिया मैंने,
हँसकर वो बोल दिए तेरी इस दिल्लगी का क्या करूँ?

ना समझे बेरहम,"दर्शी"है किस क़दर तन्हा,
दरकती दीवार की ज़मी को अब मज़बूत क्या करूँ?

Monday, October 17, 2011

..........आज कलम कुछ बोल ...........

कलम आज तू क्यूँ है मौन ?
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल,

कल्पनाएँ पथराई क्यूँ हैं,
भाव, शब्द घूंघट में क्यूँ है,
अलसाई ऊँगली के मध्य छिपी तू,
शब्दों में विहान मत खोज,जो मन में हो वो बोल,
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल

सकल सर्जन की उत्कंठा तेरी,
क्या तू तर्जन से है डरती,
पन्ना-पन्ना स्नात प्रतीक्षित,
शान्त किवाड़ तू खोल आज कलम कुछ बोल,
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल

उद्दाम अभिव्यक्ति का भाव कहाँ है,
स्याही का कौमुदी कलश कहाँ है,
उत्फुल्लता का तूणीर कहाँ है,
विषय मंथन तू छोड़ आज कलम कुछ बोल,
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल

यौवन में अलिभय हो चाहे,
विरही का संताप हो चाहे,
जो भी वारित हो तेरे भीतर,
कर मुखर सभी,मत तौल आज कलम कुछ बोल,
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल,

व्यापाश्रय=विशेष आश्रय
विहान=सवेरा
तर्जन=डाट,उपेक्षा
स्नात=नहाया हुआ
उद्धाम=तीव्र
तूणीर=तरकश
अलि=भँवरा
वारित=छिपा हुआ

Sunday, October 16, 2011

...........तुम साथ मुझे अपना दे दो........

तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

भटक रही अनबूझ सवालों में,
साथ अपना दे दो संवर जाऊँगी,
स्मृतियाँ है जहाँ-तहां ठहरी,
थाम लो हाथ फिर से सम्भल जाऊँगी,
तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

पेशाने का वो मीठा बोसा,
बंद पलकों पर भीनी ऊष्मा,
बना विश्वसनीय सखा था तू,
लौट आ,उपहार फिर दे जाऊँगी,
तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

कुछ पल को नैनों का मिलना,
उन आँखों से सागर चखना,
धडकन-धडकन का स्पन्दन,
जन्मो तक क्या बिसरा पाऊँगी,
तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

मधुरिम थी अब तक मंजरियाँ,
अब शान्त पड़ी सुस्ताती है,
सिन्दूरी शब्द हो साथ तेरे,
गीत हजार मै रच जाऊँगी,
तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाउंगी,

तेरा आकर प्रत्यक्ष प्रियम् ,
फिर चुपके से यूँ चल देना,
व्याकुल करता कितना मुझको,
शब्दों से क्या मै कह पाऊँगी,
तुम साथ मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

समर्पित अनछुआ सा प्यार मेरा,
बूझो खुद से मिला था तुम्हे?
जिस समर्पण से चाहा तुमको,
ऐसा कोई और मिला था तुम्हे?
तुम साथ मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

Friday, October 14, 2011

......व्यक्तिगत ...........,

कार्तिक माह का आगमन,
शीतलता का सतसंग,
ललसित हो 'दर्शी'बंधी,
मनोहर रूप बंधन,
राजीव लोचन कामिनी,
रंगी रंग मतंग,
रजनी शरद का पूर्णिमा,
लहरों में कंगन,
मणि सी अवनी की ज्योत्सना,
बनी दिवाली पंक्ति,
रागिनी राग अलापती,
लख वन-उपवन-नंदन,
श्रद्धा से नयनी ताक रही,
करवा चौथ चन्दन,
अमीरस में वीरांगना,
तज चली अनी अनन्त,
माँ सिद्धेश्वरी औ श्रीकृष्ण को नमन करे,
'आदर्शिनी' अग्रजों संग,
दृग से अश्रु पोछती,
उठी कर स्मृतियाँ भंग,

पिता जी =श्रीकृष्ण
मम्मी=सिद्धेश्वरी
भाई भाभी=राजीव-कामिनी,अवनी-मणि
बहने=रजनी,रागिनी,नयनी,वीरांगना,आदर्शिनी

सभी को बहुत बहुत याद करते हुए

.........उठो शुभे ............

भोर हुई अब जाग मोहिनी रेन गई उठ दिवा जगा दे
कम्पित कर दे पलक भ्रमर को मुख से उलझी लट सरका दे

स्वर्ण-कलश से छलका मधुजल
निखिल दिशाओं को नहला दे
देव प्रतीक्षित भी हैं तेरे
मृदुल भक्तिमय गीत सुना दे
झिन्झारियों से पात-पात के
झाँक रहा आलोक नया है
वन उपवन ठहरा-ठहरा है खग-जन में हिल्लोर मचा दे

कलिकाएँ अधखिली रुकीं हैं
तरुओं पर कलरव है ठहरा
फूलों पर न कूजन रंजन
पंखुड़ियों में बंद है भँवरा
पग धरने की आहात सुन
सबका चित रंजक हो जाता
चहुँदिशि चाहत में हैं तेरी उठ प्राची को ध्वजा थमा दे

भोर वर्तुली हुई धरा अब
लो हो गई आज की होली
प्रस्थित हुई निशा की डोली
गूँजी खग की मीठी बोली
अनुस्वार से सज्जित माथा
श्रीमुख ने आलस्य है त्यागा
बहुरंगी हो गई दिशायें प्रात सुन्दरी शंख बजा दे




Wednesday, October 12, 2011

.............आशिकों के बीच मुझको जलाया गया ..........

उन्मुक्तता को गले से लगाया गया,
सौम्यता अकेले, कहीं घुटती रही,
शलभ मचलता रहा इधर से उधर,
शम्मा जल जल, धुआँ-धुआँ होती रही,

सीमित दायरा ही सही मेरा मगर,
रौशनी देती हूँ मै, अंशुमान न सही,
चाँद को चैन मिल जाता है मगर,
रोज जलती हूँ मै कहीं न कहीं,
पीर गल गल कर मेरा बहता रहा,
तन पर बहते लावों को मै सहती रही,
शलभ मचलता रहा इधर से उधर,मै जल-जल धुआँ-धुआँ होती रही

जिधर चाह हवाओं ने झिझोडा मुझे,
खुद के हुस्न को,पिघल मैं छलती रही,
हिलती लौ में चेहरा तेरा दिखता रहा,
पीकर अंधकार रौशनी मै देती रही,
खूबसूरती को तराशे गए बदन मेरे,
नक्काशी कि चोट से सिसकती रही,
शलभ मचलता रहा इधर से उधर,मै जल-जल धुआँ-धुआँ होती रही

आशिकों के बीच मुझको जलाया गया,
कसक अपनी मै फिर भी छिपाती रही,
पिघले आँसुओ को भर, चषक बन गई
देख कर समझे शायद वो पीर मेरी,
रहूँ खामोश हुक्म ये बक्शा गया,
बहुत डरी जलने से मगर चीखी नहीं,
शलभ मचलता रहा इधर से उधर,मैं जल-जल धुआँ-धुआँ होती रही

गीत....................रंगों कि फूहार दे गया

रंगों की फुहार दे गया,मनके भीतर एक प्यास दे गया
आँख मेरी सपने थे उसके,सपनो का संसार दे गया,
मन के भीतर एक प्यास दे गया

पाती लिख सहलाया उसने,
मिली नहीं पर पाया उसने,
मीठी मीठी बांतों से, कितना
मुझको भरमाया उसने,
हठी बनी,किन्तु रह सकी नहीं,
ऐसा प्यार जताया उसने,

साँसें मेरी सरगम थे उसके,मधुर मिलन कि आस दे गया
मन के भीतर एक प्यास दे गया

रही नहीं मैं अपने वश में,
भावों से नहलाया उसने,
कह पाती कुछ उससे पहले,
अंशु बना चमकाया उसने,
समझ मद्य के अंतराल को,
कन्दर्प सदृश महकाया उसने,

पंखुड़ी मेरी ओस थी उसकी,सुन्दर वो बागबान दे गया,
मन के भीतर एक प्यास दे गया,

निदिया से रजनी जागी जैसे,
जाने का राज़ बताया उसने,
बिछुडन के भय से काप उठी जब,
मिसरी सी थपक लगया उसने,
बगिया का कोई फूल न छूटा,
फिर से सुमन खिलाया उसने,

उर मेरा अनुराग था उसका,दुल्हन का सा एक रूप दे गया
मन के भीतर एक प्यास दे गया,

Monday, October 10, 2011

भावस्रोत बहने दो आज

रोपा बीज आज पुलक रहा है,
आतुर है कुछ कहने को,
मुस्काकर वो झाँक रहा है,
ऊपर गिरती बूँदों को,
शीतल सिक्त उर मचले मेरा,
बाँहों में भर लेने को,
बरस ले तू झूम-झूम, मै
बैठूँ हार पिरोने को,

मेघों को तू समझ ले काजल,
बदरी को अलकें बनने दे,
नैनो को दोना तू कह दे,
कन्चे पुतली को बनने दे,
अधर बने गर पंखुडियाँ,
अलिनी सी बोझिल पलकें हों,
कुंभ मदिरा से भरा लगे,
विधु को मुखड़ा तू बनने दे,

उलझी डाली का घेरा,
तुझको बाँहों का हार लगे,
मृगया कि चंचल गति,
तुझको मधुबाला कि चाल लगे,
कंपन से छनके पैजनियाँ,
पग-तल गुडहल का फूल लगे,
डग-डग कि कोमलता ऐसी,
वसुधा हरियाली दूब लगे,

उदित भाव में आज पिया,
तू अपने शब्द पिरोकर देख,
पीर हरेंगे वो निश्चय ही,
तू बौछार उड़ाकर देख,
भावों को दो छोड़ निरंकुश,
स्वच्छंद उसे बहने दो आज,
घर-संसार संग बदले अंतस,
तू वो गीत सजा कर देख,

नहीं फिकर कर ओ बाँवरी,
भावस्रोत बहजाने दो,
क्या होगा और क्या न होगा,
बात परे हट जाने दो,
अंतर्मन जगा कर देखो,
प्यासी कलम पुकार रही,
पृष्ठ-पृष्ठ छूने दो उसको,
धार और घिस जाने दो,
अलकें=बाल
अलिनी=भ्रमरी
विधु=चंद्रमा
वसुधा=धरती

Sunday, October 9, 2011

वर्तिका बन खुद को जलने दे

पालक भांति चल चुकी बहुत तू ,
कर्तव्यों से कुछ उठ चुकी है तू ,
कर चुकी बहुत विश्राम लेखनी ,
अब खुद की खातिर कुछ जी ले तू,

दीपक रख मन में तू सजनी,
वर्तिका बन खुद को जलने दे,
पसरेगा उजियार जो पगली,
जग को उससे तू सजने दे,
स्वच्छ निर्मल तेरे मन ने,
जो भी सोचा सब कह डाला,
अब घुट-घुट कर निकले जो भी ,
पन्नों पर उसको बहने दे,.....................वर्तिका=दीपक कि बत्ती

तू प्रेयसी बन खोल जरा,
अपने भीतर के रस घट को,
छलका दे प्रेम पियूष सुधा,
उतराने दे उसमे जन-जन को,
पतंगों का मन मचले जिससे,
ऐसे रस में तू गान करे ,
रिक्त मनस न शेष रहे,
प्रेमिल कर दे हर मानस को, ............घट=गगरी
सुधा=अमृत
मनस=मन,बुद्धि
मानस=इंसान

जाग विरहनी! तू भी अब,
वदन ढांप कर क्या होगा,
चल खोल हृदय को तू भी तो,
रोने धोने से क्या होगा,
शब्दों-शब्दों में वो करुणा हो,
जो मन को विह्वल कर जाये,
अश्रु बहे इस लय में ऐसे,
तरणी भी उसमे तिर जाये,................वदन=चेहरा
विह्वल=व्याकुल
तरणी=नौका

लोग जान लेंगे तुमको कि,
तुम भी एक वीरांगना हो,
जान डाल कर फूंक शंख तू,
छंद-छंद अंगारा हो,
जोश उफन कर निकले ऐसे,
जैसे उबला दूध बहे,
शांत रहे न कोई यौवन,
सबके भीतर एक ज्वाला हो,..............वीरांगना=वीर स्त्री

कभी बरस बदरी के जैसी,
कभी तड़ित का वह्नि बने,
हास्य व्यंग छिटका तू ऐसी,
आनन-आनन गुलाब बने,
रीति रंग में भिगोकर फेंको,
फूलों कि पिचकारी को,
देश भाव जब जगे हृदय में,
मानव मन हा हाकार करे .........................तड़ित=आकाश कि बिजली
वह्नि=अग्नि
आनन=मुखड़ा

Friday, October 7, 2011

बार बार ये क्यों होता है

........बार बार ये क्यों होता है........

बार बार यह क्यूँ होता है
मेरा मन विचलित क्यूँ होता है
प्रेम अगर सच्चा है मेरा
दोष तुम्हे यह क्यूँ देता है

इच्छायें करती हूँ तुझसे
चाहत की चाहत है तुझसे
सच है या फिर भ्रम है मेरा
के तुम बिछड रहे हो मुझसे

सुनती आई हूँ मै सबसे
निष्काम प्रेम में रब होता है
तथ्य बिसर यह क्यूँ जाता है
प्रेम सरल निर्मल होता है

याद करो इसको मन मेरे
प्रेम का अंकुर जब फूटा था
अपेक्षा का कोई भाव न था
देने का सुख ही स्वभाव था

प्रेम एक विस्तार भाव है
विधाता का इसमें प्रभाव है
सीमाबद्ध बनाकर इसको
प्रतिइच्छा की इच्छा कुभाव है

फिर आशीष मिले यदि तेरा
दिल में कोई आस न पालूं
तेरे दीप जले जो मन में
उस दीपक को हरदम बालूँ

तुम मेरे हो प्राणप्रिये
मेरा भी क्या है मेरा?
नहीं जानती विवश हो तुम
या बदला है मन तेरा

किन्तु सत्य मानो हे प्रिये
मै बिल्कुल पहले जैसी हूँ
अंतस से तुम देखो मुझको
मै भी तेरे जैसी हूँ

पथदर्शकहे ,मै अनुगामिनी तेरी
चंदा तुम मै लहर तेरी
उपकार तेरा इतना होगा
मनबद्ध रहो हे प्रीत मेरी

Thursday, October 6, 2011

मेरी यादों में मत आना

मेरी यादों में मत आना

तेरी यादों से जगता है मेरे मन का कोना कोना

मेरी यादों में मत आना


प्रभाती नव नवेली जब अपना घूंघट सरकती है,

लाली से अपनी धीरे-धीरे धरती का रूप सजती है,

निशि विछोह की पीर,प्रभा जब ओस रूप दिखलाती है,

तेरे यादों से आता है तब हृदय बिम्ब में रूप सलोना

मेरी यादों में मत आना


सागर में तिरते मोती को जब प्यासा मृग पी जाता है,

अपने अधरों से चूम चूम हंस, क्षीर-क्षीर पी जाता है,

नीले नैनो की बरसाते दिल को ढांप ले जाती है,

पीर हृदय को दे जाता है तेरी यादों का शूल चुभोना

मेरी यादों में मत आना


अम्बर के काँधे पर जब बदरी का कुन्तल होता है,

धीरे-धीरे अम्बर का गर्जन स्वनगुंजन सा लगता है,

लरज लरज अम्बर औ बदरी खुशहाली दरशाती है,

तुझसे ही लिपटा होता है भीतर का मेरे हर एक तराना

मेरी यादों में मत आना


कमलपत्र जब शबनम को अपने हाथों में लेता है,

सूर्यरश्मि से मुखड़ा उसका जुगनू की तरह चमकता है,

संदली बयार जब आस लिए अक्षि तृषित कर जाती है,

बिखर जाता है यादों का था जो अब तक बंद खजाना

मेरी यादों में मत आना

तेरी यादों से जगता है मेरे मन का कोना कोना

मेरी यादों में मत आना

आदर्शिनी

क्षीर=दूध

कुन्तल=गेसू

बिम्ब=आकृति

स्वन=शब्द

संदली बयार =सुगन्धित पवन

अक्षि=नयन

तृषित=प्यासा