Saturday, November 26, 2016

हम जाने हम कौन

ख़बर आई है कि दाल में नमक कम होने के कारण उसे देंह मुक्त कर दिया गया और उद्धारक को इसमें कोई अफ़सोस नहीं l एक पुराने घर में तमाम मानव बच्चों के कंकाल ढेर लगा और फ्रीज़र में लोथड़े रख लोग मदोन्मत्त हो ज़श्न में डूबे हैं l कहीं कुछ नरों को तेज़ाब से गल-गल के टपकते मांस की महक बहुत सोंधी लग रही है l पूरा एक समूह किसी एक पर हावी हो अपना पुरुषत्व सबित करने को अमादा है l कुछ नरों ने जाल बिछाया है जिसमे एक आतिशबाजी से उछाले गए रंगीन पन्नों की तरह कुछ लोग हवा में लहरा लहरा जमीन पर आ रहे हैं l क्या इंद्रधनुषी छटा है l उन नरों में कुछ पुरुष भी यदा कदा दिख जाते है l पर नरों में बहुत उथल-पुथल है वो अच्चम्भित हैं कि मैंने तो सारे नरों को पुरुषत्व के चोले से अच्छी तरह रंग दिया था और असली पुरुष को उसी असीम सत्ता को अपने पास रखने को तैयार कर लिया था फिर ये कैसे बाहर आ गये ?

कभी-कभी लगता है नर को पुरुष नाम से संबोधित करना भी स्वयं नर की सोची-समझी साजिश है स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए l जिससे वह देवत्व पद पर बड़ी आसानी से आसीन हो सके l उन्हें परमेश्वर कहा जा सके l जब एक परमेश्वर हो गया तो अन्य पदार्थ, जीव  स्वतः नगण्य, भक्त, साधारण, अति साधारण हो गए l फिर जैसा चाहो वैसा उपयोग करो, उपभोग करो , क्या चिंता ? हर नियम कानून, घर, परिवार, समाज, अधिकार में उसका स्थान ऊपर रहे l वैसे शुरू-शुरू में इतनी भीषण समस्या नहीं रही होगी बस यूँ ही मजाक मजाक में नाम रूपांतरण हो गया होगा l पर दिन बीतते ये साधारण बात न रह गई l इसमें से गरल टपका जो बूँद पर बूँद पड़ने से ऊँचा और ठोस होता गया और उस ठोस पदार्थ का नाम हो गया अहंकार l और नर उसे अपना मान सदैव साथ लिए लिए फिरने लगा l नर खद ही भूल गया कि मेरा नाम रूपांतरित है वास्तव में हम पुरुष नहीं नर हैं l जो पुरातन पुरुष से बिलकुल भिन्न है .....और अहंकार तत्व उसमे सर्वथा वर्जित है इसलिए वो पुरुष है l  

दूसरी ओर ---- परिवर्तन रूप क्रिया होना प्रकृति का स्वाभाव है l हाँ प्रकृति परिवर्तनशील है l वह नश्वर है वह स्वीकारती है l वह जब से अस्तित्व में आई पल-पल, हर क्षण बदल रही है l स्वीकार कर रही है l वो ऋतुओं में ढलती है l ओस की बूँद अभी दिखती है कुछ देर बाद नष्ट हो जाती है l वो कली अभी बंद थी अभी खिला फूल हो गई l हरियाली धरा बंजर हो जाती है l लहलहाती धरती भौगोलिक उथल-पुथल से रेगिस्थान में तब्दील जाती है l गाँव का गाँव जल प्रवाह में विलीन हो जाता है l वो कभी प्रियतम के लिए संजीवनी है तो कभी दावानल l कभी कोमल चन्दन का लेप तो कभी कैकटस l उसमे परिवर्तन होता है वो स्वीकारती है उसे नष्ट होना है वो स्वीकारती है इसलिए उसे अहंकार नहीं l उसने किसी और नाम का चोला नहीं ओढा उसने किसी और पुण्य नाम का लबादा नहीं ओढा l उसे अपनी शाश्वश्ता का अहंकार नहीं l अपने नश्वरता पर खेद भी नहीं l 

किन्तु नर अपनी शाश्वत सत्ता के लोभ में खुद को भूल बैठा है और शाश्वत नाम पुरुष का चोला ओढ़ रखा है l वह सोचना नहीं चाहता की वो, वो नहीं जो खुद को समझ रहा है l वो भी प्रकृति की तरह चित्रकार का मात्र एक संकल्प भर है जो कभी भी ढह सकता है l 

नहीं समझे मैं क्या कह रही हूँ ? ......

आओ मैं बताती हूँ पुरुष क्या है ? .... पुरुष वो चेतन सत्ता है जो सर्वथा अपरिवर्तनशील है......, नित्य है,...... अचल है,...... निर्विकार है......, वो कर्म रहित है......., एक रस है......., क्रिया करने की योग्यता उसी मे होती है  जिसमे परिवर्तन और विकार होता है...... पुरुष में परिवर्तन का स्वाभाव नहीं,..... जो अहंकार से मोहित नहीं होता वही तत्त्ववित् है....... वही तत्वदर्शी है ..... निरंकार है ......ओंकार है और .........वही पुरुष है l

......आदर्शिनी श्रीवास्तव .....