Sunday, July 31, 2016

गीत ---सुधियों में आते हो अनुराग जताते हो

सुधियों में आते हो अनुराग जताते हो
अपने मृदु बैनों से मुझको भरमाते हो

संदली बयार चली सुबह लेके साज़ चली
एक तू ही जिसकी न खोज न ख़बर है
दिन ढला साँझ हुई कुम्लाई छुईमुई
खोया कहाँ प्यार सूना जीवन सफ़र है
हर घड़ी पहर हर पल मानस पर छाते हो
अपने मृदु बैनों से मुझको भरमाते हो

कभी लगे दर पे तुम आये हो मुस्कान लिए
दौड़ी चली आई सब भूल अगुआई में
जैसे चंदा आये फिर घन बिच जाए
तुम दिखे नहीं झुँझलाई प्रिय निठुराई में
एक झलक दिखाने को कितना तरसाते हो
अपने मृदु बैनों से मुझको भरमाते हो

कभी पास बैठे जो हम हाथ में तुम हाथ लेके
आँखों में फिर मधु सोमरस भर लेते हो
फिर सुध-बुध रहे न ही कुछ होश रहे
जाने कैसे-कैसे मदहोश कर देते हो
क्यों प्रेम अगन मन की रह रह दह्काते हो
अपने मृदु बैनों से मुझको भरमाते हो
.....आदर्शिनी श्रीवास्तव......

Wednesday, July 27, 2016

गीत--पथरीले घर में रह कोई मौसम पर क्या गीत लिखे

सिमट गए उद्दीपन सारे न बारिश न धूप मिले
पथरीले घर में रह कोई मौसम पर क्या गीत लिखे

बीती माधव ऋतू रूठी सी
सावन में सूखी काया
थकित देंह पर हिमकर ने भी
रजत अमिय कब छलकाया
सारे अनुभव रूठे-रूठे
परिवर्तन के मोल बिके
पथरीले घर में रह कोई मौसम पर क्या गीत लिखे

पत्थर की धरती दीवारें
अँगनाई न तरुछाया
न तितली का चंचल रंजन
न मधुकर ने ही गाया
गीत हृदय में हुए है बंदी
अधर हुए हैं सिले-सिले
पथरीले घर में रह कोई मौसम पर क्या गीत लिखे

सुना है सावन सरसाया है
जल्द सुधा बरसाते हैं
स्वाती, कृतिका, रोहिणी, चित्रा\
नक्षत्रों की बाते हैं नन्हे हाथों में नावे पर
मुझसे मौसम खिंचे-खिंचे
पथरीले घर में रह कोई मौसम पर क्या गीत लिखे
.....आदर्शिनी श्रीवास्तव ....

Monday, July 11, 2016

कहानी ....... बाल कथा ...... मित्र वार्ता


                                               
विपरीत दिशा से आते हुए एक रोज़ सत्य और असत्य की भेंट हो गई l असत्य ने सत्य से कहा -- देखों मैं तुमसे ज्यादा प्रभावी हूँ l 

सत्य ने स्नेह से पूछा -- वो कैसे मित्र ? हमारे रास्ते तो पृथक थे फिर तुम मुझे बलात् रोक ये कटु वचन क्यों कहने लगे ?

असत्य ने कहा-- मैंने अनुभव किया कि तुम स्वयं पर बहुत घमंड करते हो l

सत्य ने कहा -- किन्तु मुझे अहंकार और घमण्ड का तो ज्ञान ही नहीं, हाँ स्वयं को गौरवान्वित अवश्य महसूस करता हूँ l

असत्य ने जिरह की --देखो! लोग मुझे कितनी जल्दी अपनाते हैं l मेरे ही कारण लोग स्वच्छंद और सुखी रहते हैं l चहुँओर दृष्टि फेरो तो ज़रा -- जिधर-जिधर मैं हूँ लोग कितने आनंदित और संपन्न हैं l कहीं भी कोई जाए  मेरे कारण उनका काम कितना आसान हो जाता है l व्यापार फलता-फूलता है l मुझमे कितनी चमक कितना आकर्षण है l मेरे कितने त्र हैं तुम्हारे मित्र तो बहुत कम हैं l मेरे श्यामल  हस्त  तले है आ मेरे सानिध्य  में लोग अपनी बड़ी आसानी से अतृप्त इच्छाएं पूर्ण करते हैं l

सत्य ने कहा -- तुम सही कहते हो मित्र l मेरे बिरले ही मित्र हैं किन्तु  तुम्हारे मित्रों के मूलह्रदय में मेरा भी गुप्त निवास अवश्य है l तुमने खुद आकर बात छेड़ी ही हैं तो मुझे भी कुछ तुमसे कहने की इच्छा जागी है , तो कहता हूँ सुनो मित्र --ऐसा संभव ही नहीं की कोई सदैव असत्य ही बोले जैसे-­­ भूख लगने पर कोई अधिक देर ये नहीं कह सकता की मैं भूखा नहीं हूँ l अतः अनेक अवसरों पर लोगों को मेरा आश्रय लेना ही होता है l समाज का सर्वनाश मेरे द्वारा कभी नहीं होता l मुझसे आधारित व्यापार जीवन यापन के लिए पर्याप्त ही सही फिर भी मैं स्वयं भूखा रहकर दूसरों को अपना भोजन देने की सामर्थ्य रखता हूँ,  मेरे पुत्र सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को तो तुम भलीभांति जानते ही हो ............l सत्य आकर्षणहीन भले लेकिन उसका स्वरुप शाश्वत है l तुम्हारा साठ जीवन मरण का चक्र है और मेरा मुक्ति l मैं सत्य (सत्व) हूँ इसलिए मेरा परिधान धवल है l असत्य तम है तदनुरूप तुम्हारा परिधान श्याम है l सत्य के महत्त्व से असत्यमन: भी अपरिचित नहीं किन्तु स्वीकारने से डरते हैं l ह्रदय में मेरे प्रवेश से लोगों के मुख दीप्तिमान हो उठते हैं उनसे भय दूर भाग जाता है l तुम्हारे ह्रदय में प्रवेश करने से मनुष्य दिनोदिन कुरूप होते जाते है और लोग उनसे दूर भागने लगते हैं l मित्र क्या तुमको केंद्र मान कोई ग्रन्थ लिखे गए? क्या तुम्हारे सम्मान में गीत रचे गए ? किसी धर्मिणी ने तुम्हारी महिमा के किस्से सुना अपने बालक को निद्रा देवी को समर्पित किया ? मैं एक बार ही मुख से निकल उसे कथन मुक्त कर देता हूँ और तुम्हे अनेको बार प्रश्नों का सामना करना पड़ता हैं l तुम्हारा आकार बड़ा होता जाता है अंत में हेय बन धराशाही हो जाता है l तुममे चमक है मुझमे तेज है l मैं अगोचर परमात्मा के अत्यंत निकट हूँ l

असत्य ने कहा -- छोडो-छोडो तुमसे कौन बात करे, मैं तो इस ओर यूँ ही भटक गया था l

सत्य ने कहा -- मिलते रहा करो मित्र, स्वागत है l
.......आदर्शिनी श्रीवास्तव , मेरठ .........

Tuesday, July 5, 2016

कहानी ....... जिजीविषा

बात बहुत पुरानी नही हैं l मात्र तीस वर्ष पहले की है l दो साल पुराना ब्याह l नन्ही नैन्सी गोद में l पलाश अचानक बाइक के तेज चलाने के शौक में अपने प्राण गँवा बैठे थे l नई ऊम्र, नया जोश, नई-नई शादी जैसे सपनो की दुनियाँ ही मिल गई थी l अभी इतनी परिपक्वता नहीं थी कि समझ पाते की अब उनकी ज़िन्दगी से नैन्सी और शीना की दो जिंदगियाँ और जुड़ चुकी हैं l कभी किसी के टोके जाने पर कहते “मौत तो एक बार आनी है जियेंगे शान से मरेंगे शान से l “ पलाश तेईस साल के शीना अट्ठारह वर्ष की l दोनों ही अभी नादान l पलाश अपने माँ-बाप का इकलौता पुत्र और शीना छ भाई बहनों में सबसे छोटी l छ भाई बहनों में सबसे छोटे होने के कारण शीना ने अभी अपने को बड़ा महसूस ही नहीं किया था l वो घर में सभी की दुलारी थी इसलिए सब उसे बच्चा ही समझते थे और उसपर भी अभी तक कोई जिम्मेदारी नहीं पड़ी थी की वो अपने को बड़ा महसूस कर पाती l दोनों की शादी बड़े धूम-धाम से हुई थी फारेस्ट रेंजर के पद पर पलाश को अपनी प्रतिभा के बल पर जल्दी ही नौकरी मिल गई थी l नौकरी लगी नहीं की लोग लड़की के रिश्ते ले कर आने लगे l शीना के पिता भी अब रिटाएर होने वाले थे और एक मात्र अनब्याही पुत्री का ब्याह कर वो भी सेवानिवृत्त के बाद का अपना समय भार मुक्त हो बिताना चाहते थे l अत: अपने ही विभाग में उन्हें पलाश पसंद आ गया l रोज़ सामने रहने के कारण देखा भला था l दोनों विवाह के बंधन में बंध गए l अब एक छोटा सा परिवार था उनका, माँ, पलाश, शीना और नैन्सी l गाँव में पलाश के दो चचेरे भाई थे l किन्तु कहाँ पलाश का हंसमुख, दयावान, प्रेमिल व्यक्तित्व और कहाँ उसके चचेरे भाइयों का लोभी क्रूर, व्यवहार और पिछड़ी विचारधारा l शुरू से ही उनका साथ कम रहा l कुछ विचारों ही असंगति के कारण से, कुछ शहर में पढने और फिर नौकरी के कारण l लेकिन नियति में सब निश्चित है उसपर किसी का बस नहीं l एक दिन तेज मोटरसाइकिल के सामने कोई आ गया उसे बचाते-बचाते पलाश खुद अपनी जान गँवा बैठे l नवविवाहित शीना के लिए ये अप्रत्याशित दुखद घटना थी l  उसके मन पर गहरी चोट लगी l शीना कभी इस आघात से पागल सी हो जाती कभी किंकर्तव्यविमूढ l उसे कुछ समझ में न आता था ये क्या हो गया ? नैन्सी का ख़याल भी उसे न रहता कोई लाकर गोद में दे दे तो उसका पेट भर जाए वरना वो भूखी ही पड़ी रहे l लुभावनी नैन्सी कभी इस अंक तो कभी उस अंक l पलाश की माँ का भी यही हाल l जिसका एक मात्र जवान पुत्र चल बसा हो उस माँ के ह्रदय का हाल कौन नहीं महसूस कर सकता ? जैसा हाल शीना का उससे भी बदतर माँ का l कौन किसको सान्त्वना दे l शव पैत्रिक निवास गाँव भंदियारपुरुवा लाया गया l रिश्तेदार इकठ्ठा होने लगे सबका अपना-अपना राग अलाप l कोई सात माह की नैन्सी को दोषी ठहराता कोई शीना को कोसता l धन के लोभी अलग ताक लगाने लगे l एक मात्र वारिस चला गया l औलाद भी है तो वो भी बेटी l एक मात्र रोड़ा शीना ही है उन चचेरे भाइयों के दस्यू मन ने झकझोरा और बूढी चाची को अब क्या चाहिए l अगर शीना पलाश के साथ ही चिता में सती हो जाए तो सारा बवाल ही ख़तम, उनके कुटिल दिमाग में बैठा काला गिद्ध चिल्लाया l  

माँ अपने बेटे-बहु और पोती से बहुत प्यार करतीं थी लेकिन इस समय जो उनकी हालत थी की उनसे कुछ भी करा लो विरोध करने की शक्ति चली गई थी l अपनी प्यारी बहू की बिंदिया पोछे जाने पर न उन्होंने विरोध किया न पत्थर से चूड़ियाँतोड़ी जाने पर l वह सूनी आँखों से खोई खोई सब देख रहीं थीं या विचारमगन कुछ सोच रहीं थीं l दुर्घटना से जुड़े मुख्य सदस्य तो बेजान हो गए थे l दाह संस्कार का समय हो गया था l अर्थी उठी, पलाश को अपने से दूर जाते देख कर माँ तो बेहोश हो गईं और शीना बिन पानी की मछली जैसी तड़प उठी l अभी कितने दिन का सानिध्य पा सकी थी पलाश का वह ? अभी तो अरमानो ने सिर्फ पर ही खोले थे l दोनों ने मात्र सपने सजाये थे उसमे उड़ान और रंग भरना तो अभी बाकी ही था l वो दहाड़ मार-मार के रो उठी l वो भी अर्थी के पीछे दौड़ती चली गई l उसकी ये स्थिति देख चचेरे देवर ने कहा भाभी अगर चाहो तो दाह स्थल तक तुम भी चल चलो l शीना भी उस छोटे से दल में गिरती पड़ती रोटी चिल्लाती जा रही थी l पास ही तालाब पारकर शव जलाया जाता था l छोटा सा स्थान l अधिकतर जमीन को हथिया लोगों ने झोपड़ियाँ डाल लीं थीं l निर्जन सा इलाका प्राणहीन l जैसा स्थान वैसी मानसिकता से परिपूर्ण l जहाँ विधवा अगर जीवित है तो एक जानवर और वस्तु से कम नहीं l चार पैसे वाले लार टपकाते मिल जाएंगे उनसे बचो तो जियों अस्तित्वहीन हो कर l पिछड़ा इलाका पति के मरने के बाद भी पति का लोक ही पत्नी का लोक होता है l ऐसी मान्यता रखने वाला l पीढ़ियों से अपने स्वार्थ लाभ के लिए थोपे जाते रहे हैं ऐसे विचार कपटी पुरुषों द्वारा l  पीढ़ी दर पीढ़ी उनका मस्तिष्क सुन्न कर दिया गया है वहाँ l शीना को बाध्य किया जाने लगा पलाश के साथ सती होने के लिए l दुःख से आहत होते हुए भी शीना अपनी एस अप्रत्याशित आत्महत्या के लिए तैयार नही थी l वो अवाक रह गई l  गाँव के लोग उसे समझा रहे थे कोई कहता अब बिना पति के क्या जीना ? दुनिया जीना दूभर कर देगी l पुराने समय से पति के साथ स्त्रियाँ सती होती आईं हैं l एक बार विवाह हो जाने पर स्त्री का सम्पूर्ण अस्तित्व पति में समाहित हो जाता है , न तन उसका, न मन उसका, न धन उसका, कुछ उसका अपना नहीं रह जाता l एक व्याहता के लिए पति का लोक ही पुण्य लोक है उसी लोक से पति पत्नी दोनों को मोक्ष की प्राप्ति होती है l

अचानक शीना को ऐसी पिछड़ी सोच से घिन आने लगी l उसकी शिक्षा दीक्षा अधिक नहीं थी लेकिन उसने ऐसी मानसिकता के लोग करीब से नहीं देखे थे l पलाश आधुनिक विचारों का, हर चीज़ को विचारों की कसौटी पर कसने वाला, मस्त पर बुद्धिमान युवक था और सास किसी भी तरह माँ के पद से कम नहीं थीं l एक बार भी उन्होंने शीना को अपनी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी थी l  उन्होंने एक माँ की तरह ही दुलार, प्यार और सुरक्षा दी थी अपनी बहू को भी l शीना को इन सम्बन्धियों और स्थानीय लोगों में से कहीं कूटनीति की गंध आने लगी थी l वो इस स्थान से निकलने को छटपटाने लगी l लेकिन सबने जैसे अनर्थ करने की ठान ही ली थी l उसे विरोध से बचाने के लिए सुरापान को देवामृत बता सेवन कराया जाने लगा l ढोल-ताशे नगाड़े बजने लगे, आज एक औरत मानवी से देवी होने वाली थी l करीबी उसे घेरे हुए थे और लोग दूर से मात्र शोर सुन रहे थे और घटना को अनुभव करने की कोशिश कर रहे थे l धीरे-धीरे शीना पर नशा चढ़ने लगा वो नशे में धुत्त हो बावली होने लगी कभी हंसती कभी रोती, न उसे बहू होने की लाज थी न बड़ों का सम्मान l लोग कहते कैसे पति के  दुःख में टूट गई है और सती होने की हठ कर रही है l चिता तैयार हो गई पलाश की चिता धूं-धूँ कर जलने लगी l ढम-ढम कर नगाड़े बजने लगे इतना शोर हुआ कि कान फटने लग गए किसी की आवाज़ किसी को सुनाई न देती थी l नशे में धूत शीना को लोग चिता की ओर घसीट कर ले जा रहे थे l बिखरे बाल, अस्त व्यस्त वस्त्र में शीना घिसटती जा रही थी l इस बेहोशी में भी उसके सामने नन्ही नैन्सी की धुँधली स्मृति मचल रही थी बहुत देर से उससे दूर रहने के कारण स्तन अपने कसाव का बाँध तोड़ दूध की धारा बहाने लगा था l वो अर्धचेतन में भी अपनी बेटी के लिए तड़प रही थी l कुछ ढोंगियों, कुछ लोभियों से ये कार्य हो रहा था l उसे चिता में जबरदस्ती ढकेल दिया गया l तन झुलसने लगा तो वो हाहाकार कर चिल्ला उठी किन्तु उस ढोल-ताशों के बीच उसकी आवाज़ खो कर रह गई l अपना दर्द, अपनी बेटी की चाह ने मातृत्व को जिता दिया वो बदहवास वहाँ से निकल भागी l चार पुरुष के बल पर जिजीविषा और मातृत्व भाव भारी हो गया l उसने सीधे घर आकर साँस ली l अभी तक माँ सोच रहीं थी की शीना रोते-रोते थककर कहीं निढाल हो पड़ सो गई होगी l क्योंकि वो पलाश की विदाई को सहन न कर सकने के कारण बेहोश हो गईं थी और उन्हें उसके बाद का कुछ भी होश नहीं रह गया था l l पर जब रोते रोते शीना ने उसे सब बताया तो वो हतप्रभ रह गई l

परिणामत: पलाश के दोनों चचेरे भाई जेल में थे l गाँव में अपने घर का हिस्सा जरुरातमंद को दान दे शीना और माँ शहर में आ गए थे l शीना सिर्फ आठ पास थी उसे पलाश की जगह पर ऑफिस में एक उसके हिसाब का पद मिल गया l शीना को भी पढाई का महत्त्व समझ में आया l उसने हाईस्कूल का फार्म भरा और अपनी लगन, मेहनत से पास हुई l उसने नौकरी के साथ पढाई जारी रखी और बी०ए० उत्तीर्ण कर स्नातक की डिग्री प्राप्त कर लिया l आठवीं पास अबोध शीना अब अपने डिमार्टमेंट में बैडमिन्टन और शतरंज में राष्ट्रीय स्तर पर खेलने बाहर भी जा रही थी उसका घर शील्ड से भर रहा था l पढ़ाई, ऑफिस, नैन्सी और अपनी सास की देखभाल के साथ वो रोज़ बैडमिन्टन की प्रक्टिस के लिया भी जाती l 

विश्वास नहीं होता ये वही तीस साल पुरानी शीना है l अब एक स्मार्ट, मेहनतकश, पलाश की तरह विचारों को तोल-मोल, परख कर व्यवहार में लाने वाली, l उसने अपने पलाश की एक मात्र निशानी को एम० बी० ए० करा ऊँची शिक्षा दी, शीना और नैन्सी की हर मुश्किल में उसकी दादी माँ उनके साथ थीं l समय पड़ने पर उनके छ हाथ मिलकर एक हाथ हो जाते थे l तीन पीढ़ियों का एक बहुत सुन्दर सामंजस्य l

आज नैन्सी और हर्षित की शादी है l दोनों एक ही कम्पनी में काम करते हैं l दोनों नवयुगल ने पलाश की तस्वीर और माँ शीना के पैर छुए l और दादी माँ के चरण छू उनके बूढ़े कोमल हाँथों से आशीर्वाद लिया l

 अगर मनुष्य जीता रहे तो उसे कभी न कभी हर्ष और आनंद की प्राप्ति जरुर होती है l शीना और उसकी सास हर उस मानसिकता पर करारा तमाचा है जो किसी भी औरत को दकियानूसी विचारधारा के कारण उसे जीने के अधिकार से वंचित करना चाहते हैं l     
.....आदर्शिनी श्रीवास्तव ...

मेरठ 

Saturday, July 2, 2016

गीत .... झील सी गहरी आँखों में

सागर सी गहरी आँखों में जो डूबा न उतराया
मधुशाला सी मदिरा सा इन नैनों को जब छलकाया
जो डूबा न उतराया

खंजन भी क्या इनके सम्मुख
आकर नयन मिला पायें
झीलों पर स्पंदित पलकें
अलि के जैसी इठलायें
अलसाई नैनों के मद से मदिरालय भी बौराया
जो डूबा न उतराया

मन में उठते भावों का
हों दरपन जैसे ये आँखें
अनगिन सुप्त विचारों का
आवेदन जैसे ये आँखें
नैनों से बातें करने का हुनर कहाँ तूने पाया
जो डूबा न उतराया


मिलने वाले नैना इनसे
भूल झपकाना जाते हैं
उनके नैना मधुकर बनकर
ललचायें मंडराते हैं
लोचन कानन में जो उलझा फिर वो कहाँ सुलझ पाया
जो डूबा न उतराया

शांत निमीलित लोचन हों तो
सोई-सोई साँझ लगे
चंचल-चपल अगर चितवन हो
प्राची अरुण प्रभात जगे
सुबहा और साँझ का ढलना इन नैनों की है माया
जो डूबा न उतराया
....आदर्शिनी श्रीवास्तव .....