रजनी की कालिमा धुलकर किनारे हट गई
प्रात का आलोक नव रश्मि ले कर सज गई
तरु पादपों को रंग कर हरे सुनहरे रंग में
झील नदियों जल प्रपातों को रुपहले रंग गई
स्वर्णिम दमकती सूर्य के चहुँ ओर कटीली पीतप्रभा
गुनगुनी हो रजत कुंदन के सदृश रेती धरा
पीली रवी की ज्योति से झिलमिल लहर हठ्खेलियाँ
अनंत जलधि दूरतक हजारों कोटि लघु मत्स्य सा
मधुमिश्रित नूपुर की झनक से संलिप्त सी मैं हो गई
नयन उठे जिस ओर धरा आलोकित सी हो गई
बच सका न कोई रूपसी वसुधा के यौवन से
डूबकर मद में उसके,खुद उन्मादी मै हो गई
द्वारा-आदर्शिनी श्रीवास्तव
11 july 2011 meerut