Thursday, December 29, 2011
क्यों सजना यूँ व्यथित हुए
Wednesday, December 28, 2011
सबने समझा मै काठ रची
कोहरा
गगन धरा सब श्वेत हुई
पाती-पाती सच्चे मोती को
पाकर् के अभिभूत हुई
विधु कि किरणों से लिपटी उतरी
कुछ पल को खामोश रही
रवि किरण के साथ जा उडी
फिर से नभ में विलीन हुई
Sunday, December 11, 2011
नव वर्ष बधाई -----२०१२
भजन
तुम ज़हन में अभी भी रहते हो
Tuesday, November 29, 2011
..खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,.........
Monday, November 28, 2011
.........ईश वंदना .........
Friday, November 18, 2011
............क्या होगा गीत सजाने से............
Monday, November 14, 2011
उनसे मुलाकात हो गई,
Thursday, November 10, 2011
मिलने का अगर कुछ इरादा लगे,
Wednesday, November 9, 2011
हृदय अगर यूँ मोम न होता
Saturday, November 5, 2011
..........क्यूँ भरते हो इतना दर्द............
Tuesday, November 1, 2011
...........पगतल से कण-कण सरकती हुई जमी को ..........
........शीतल तन,तपता मन ..........
Monday, October 31, 2011
........कहाँ रोज़ का मिलना और पहरों पहरों की बातें .........
Friday, October 28, 2011
......मालूम नहीं उनको हम गुजरें हैं किधर से ........
Saturday, October 22, 2011
बेचैन रूहों का क्या करूँ?
Monday, October 17, 2011
..........आज कलम कुछ बोल ...........
Sunday, October 16, 2011
...........तुम साथ मुझे अपना दे दो........
Friday, October 14, 2011
......व्यक्तिगत ...........,
.........उठो शुभे ............
Wednesday, October 12, 2011
.............आशिकों के बीच मुझको जलाया गया ..........
गीत....................रंगों कि फूहार दे गया
Monday, October 10, 2011
भावस्रोत बहने दो आज
Sunday, October 9, 2011
वर्तिका बन खुद को जलने दे
Friday, October 7, 2011
बार बार ये क्यों होता है
Thursday, October 6, 2011
मेरी यादों में मत आना
मेरी यादों में मत आना
तेरी यादों से जगता है मेरे मन का कोना कोना
मेरी यादों में मत आना
प्रभाती नव नवेली जब अपना घूंघट सरकती है,
लाली से अपनी धीरे-धीरे धरती का रूप सजती है,
निशि विछोह की पीर,प्रभा जब ओस रूप दिखलाती है,
तेरे यादों से आता है तब हृदय बिम्ब में रूप सलोना
मेरी यादों में मत आना
सागर में तिरते मोती को जब प्यासा मृग पी जाता है,
अपने अधरों से चूम चूम हंस, क्षीर-क्षीर पी जाता है,
नीले नैनो की बरसाते दिल को ढांप ले जाती है,
पीर हृदय को दे जाता है तेरी यादों का शूल चुभोना
मेरी यादों में मत आना
अम्बर के काँधे पर जब बदरी का कुन्तल होता है,
धीरे-धीरे अम्बर का गर्जन स्वनगुंजन सा लगता है,
लरज लरज अम्बर औ बदरी खुशहाली दरशाती है,
तुझसे ही लिपटा होता है भीतर का मेरे हर एक तराना
मेरी यादों में मत आना
कमलपत्र जब शबनम को अपने हाथों में लेता है,
सूर्यरश्मि से मुखड़ा उसका जुगनू की तरह चमकता है,
संदली बयार जब आस लिए अक्षि तृषित कर जाती है,
बिखर जाता है यादों का था जो अब तक बंद खजाना
मेरी यादों में मत आना
तेरी यादों से जगता है मेरे मन का कोना कोना
मेरी यादों में मत आना
आदर्शिनी
क्षीर=दूध
कुन्तल=गेसू
बिम्ब=आकृति
स्वन=शब्द
संदली बयार =सुगन्धित पवन
अक्षि=नयन
तृषित=प्यासा
Friday, September 30, 2011
देखो मैंने देख लिया
Thursday, September 29, 2011
प्रेम अनिवर्चनीय यहाँ
Friday, September 16, 2011
बदरी
Thursday, September 15, 2011
तुम ही प्यासे के लिए हो जल
Monday, September 12, 2011
नहीं मै कह नहीं सकती तुझे मै प्यार करती हूँ
Sunday, September 11, 2011
ऑनलाइन मुशएरा,शीर्षक----------तस्वीर जो बसा ली है दिल में
Tuesday, September 6, 2011
दुल्हन
हरित मेहदी अब लाल हुई,सबने बोले ये मृदुल वचन,
छनकाती मद्धम पग धरती,जुगनू छिटकाती चली नवल,
अधर हिले पर खुल न सके,दर्पण में देख झुक गए नयन
रातो रात सुहागन बन,ले ध्रुव तारे से सौभाग्य अखंड,
पाँव धरे जब डोली में,भर चंचल नीर से मीन नयन,
घर जैसा भी है अपना है,संतोष सांस ले हुई मगन,
दर पे थपकी से लाज भरी मुस्कान लिए निकली दुल्हन,
लौट रही पग फेरे कर,प्रथम प्रस्थान से अधिक बिलख,
आगत दिन कैसे होंगे,सशंकित बेचैन लिए चिंतन,
सदा कोमल अनुभूति नहीं रहती,जीवन है सुख दुःख का संगम,
इस हेतु विराम मैं लेती हूँ, दुखे न कहीं पाठक का मन,
शायद मेरा मन तब कुछ साफ़ नहीं था
भावों के हिचकोले थे पर, भावसृजन का सूत्र नहीं था
शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था
संघर्षों से एकाकी मन जब जूझ रहा था
हर क्षण,हर दिन सपना मेरा टूट रहा था
उस वक्त लेखनी बाधित क्यू है पता नहीं था
शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था
कितने पन्ने फाड़े फिर कितने लिख डाले
अवलोकन किया गतदिन में वह मन न भाये
उधेड़बुन में मैंने वख्त बीता डाले
हृद-मंथन में कितने वर्ष गँवा डाले
मुझमे निहित ही मेरा सारा लेख होता था
शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था
ऐसा नहीं, संघर्ष नहीं अब जीवन में है,
कसौटी पर कस कर निखरा अब मेरा मन है,
विचलित होती हूँ कुछ पल, फिर सध जाती हूँ,
दोष न दे ओरों को, खुद में ही रम जाती हूँ,
सह सकने मेरा ही अभ्यास नहीं था
शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था,
आदर्शिनी
Friday, August 5, 2011
ब्रह्म सर्वत्र वर्तते...................आकाश झांकती,शीश स्पर्शी
Thursday, August 4, 2011
maa bharti
ख्वाब में अद्भुत अजूबी एक दिवार देखी
खुदे शब्दों की तमाम इबारत देखी
कहीं नज़म कहीं ग़ज़ल कहीं शेर छपे थे
हास्य औ व्यंग की अजब गजब तस्वीर देखी
सुप्रभात की कहीं सुन्दर शब्दावलियाँ
पूजा अर्चना श्लोकों से सजी हुई कई गलियां
ज्योतिष औ सद्विचारों का कहीं बोलबाला था
लोगों के विचारों पर, विचारों की टिप्पड़ियाँ
कहीं कहीं तो मंच सजा था
बिना निमंत्रण के ही अच्छा खासा रंग जमा था
अनदेखे अनजाने थे फिर भी पहचाने पहचाने थे
कभी वाह वाह, कभी चुटकी,तो कभी हसीं ठठ्ठा था
राजनीति भी उसमे पीछे न थी
ये राजा का वचन,तो कहीं मनमोहन की चुप्पी की चर्चा थी
कांग्रेस का बखान करते हरीश तो बी जे पी के सुरेश थेजो भी है दिवार बहुत थी खुबसूरत सुन्दर
अकेलेपन को बांह पसार अपनाता मित्रमंडल
छुपी प्रतिभा निखारता सवांरता
कल रात देखा अजीब-ओ-गरीब मंज़र
Tuesday, August 2, 2011
prabhat
रजनी की कालिमा धुलकर किनारे हट गई
प्रात का आलोक नव रश्मि ले कर सज गई
तरु पादपों को रंग कर हरे सुनहरे रंग में
झील नदियों जल प्रपातों को रुपहले रंग गई
स्वर्णिम दमकती सूर्य के चहुँ ओर कटीली पीतप्रभा
गुनगुनी हो रजत कुंदन के सदृश रेती धरा
पीली रवी की ज्योति से झिलमिल लहर हठ्खेलियाँ
अनंत जलधि दूरतक हजारों कोटि लघु मत्स्य सा
मधुमिश्रित नूपुर की झनक से संलिप्त सी मैं हो गई
नयन उठे जिस ओर धरा आलोकित सी हो गई
बच सका न कोई रूपसी वसुधा के यौवन से
डूबकर मद में उसके,खुद उन्मादी मै हो गई
द्वारा-आदर्शिनी श्रीवास्तव
11 july 2011 meerut
लेखनी की पीड़ा
लिखने को कलम उठाई
जब सच की सियाही में,
वो भी परेशान हो आग उगलने लगी,
यूँ तो झूठ से सहारा मिला
सच लिखने में बहुत,
बात बदलते गए
सच्चाई छपती गई,
एक के बाद एक मामले सामने आते गए,
शर्म से मुंह छिपा अब
लेखनी भी दुबकने लगी,
वक्त की मार ने कहाँ ला दिया मुझे,
सोचने लगी,
कभी रुकने,कभी चलने
पथभ्रष्ट होने से डरने लगी,
किसने समझl मुझ निर्जीव के मर्म को,
शब्दों में बिखरते आँखों के दर्द को,
वो श्रृंगार, प्रकृति,उत्साह,भक्ति से
मै क्यूँ भटक गई,
स्वयं राह दिखाने वाली मै
लोगों से मिन्नतें करने लगी,
मुझे चाहिए फिर वही
पुराना इतिहास,
भक्तिमय साहित्य,
प्रकृति और श्रृंगार,
राम की गाथा,कृष्ण का सन्देश,
क़ुरान शरीफ का पारा,
ग्रन्थ साहिब का उपदेश,
पुरानों की सी सूक्तियां,
वेदों का सत्संग,
बाइबिल की कथाये,
उपनिषदों का प्रसंग,
by--adarshini srivastava
8 july 2011
baarish
रिमझिम बरसात का पानी उनको मुबारक हो
प्रेयसी के रंग मे रंगना उनको मुबारक हो
हाथ फैलाके नाचना बरसात के पानी में
इमारतों में भीग कर जाना उनको मुबारक हो
कहाँ और क्या बनायें अपना ठिकाना हम
पाँव भी टीकाएँ किस जमीं पे हम
दुखती और भी चप्पल बिना फटती हुई बिवाई
टूटी मड़ैया में जब घुसता है ये बरसात का पानी
नदी नाले पोखर जहाँ उफान मारते हो
उन्हें कब भला भाता है ये बरसात का पानी
आश्वासन की उम्मीद थामे महीनों गुज़र गए
हाँ देखो,लौट कर आया है फिर ये बरसात का पानी
by adarshini srivastava
30 june 2011 meerut
ईश वंदना...........वटसावित्री व्रत के उपलक्ष्य में
हे विघ्नविनाशक ईश मेरे, मुझको एक चक्षु नवल दे दो,
सर्वप्रथम आचमन हो तेरा, निर्विघ्न हो कार्य ये वर दे दो,
हे मात शारदा नमन तुम्हे, करूँ अमिट मै भक्ति ये वर दे दो,
स्वर झंकृत हो मेरे मन का, शब्द मचल पड़े ये वर दे दो
माँ लक्ष्मी रूप अनूप तेरा, वैभव हो अपार सद्बुद्धि दे दो,
प्रणिपात करूँ मै चरण तेरे, मिले ज्ञान और मन निश्छल दे दो,
हे रूद्र,ब्रह्म, विष्णु मेरे, उत्साहपूरित तन मन दे दो,
हों सुर्यप्रभा सी समर्पित मै, इस देश पे ये निश्चय दे दो,
हे सृष्टि रचयिता ब्रह्माणी प्रिये, हे पद्म गदाधर लक्ष्मी प्रिये
हे चंद्रमौली तुम गौरी प्रिये,हे धनुर्धर राम जानकी प्रिये,
हे सरस्वती रूप तो कवि की प्रिये,हे अम्बे माँ तू भक्त प्रिये
हे मुरलीधर तुम ईष्ट मेरे, करू शीश नवाकर प्रणाम प्रिये
हे विघ्नविनाशक ...........................
सर्वप्रथम आचमन ...................................I
by-----------adarshini srivastava (adee)
2 june 2o11 meerut
प्यार की कश्ती
प्यार की कश्ती
खुद को लुटाकर तुमपर तुमको है मैंने पाया,
प्यार की कश्ती पर, हम दोनों ही चढ़ चुके है
मान जाओ बात मेरी जाने की जिद भी छोडो,
मोहब्बत की हद से देखो हम तुम गुजार चुके है,
प्यार के नर्म ज़ज्बात अब भी बने हुए है,
दम तोड़े साथ मिलकर, जब मिलकर मिट चुके है,
Sunday, May 22, 2011
दिल के कोने में भी प्यार का समंदर रखती हूँ
Friday, May 6, 2011
प्रणय निवेदन
darpi megh
कल वह दर्पी विनाशकारी बयार सा
टीन पर गिरते बड़े छोटे आमो की टंकार
किर-किर की ध्वनि करते पत्ते
कभी शांत तो कभी शोर मचाती पवन
विद्युत् चमकाता
वैशाख से तपते पोखर खेतो को तरसाता
होना भर सूचित करता निकल गया
pranay nivedan
किन्तु आज रात व्योम का घमंड तो आसमां पर है
मौका है वसुधा पर अपने तेज को दर्शाने का
उसी के प्रभाव से तो वसुधा संग
सहोदर हरीतिमा और सागर हटखेलियाँ करते है
किन्तु अब व्योम को घमंड कहाँ?
वसुधा तक पहुँचते-पहुँचते व्योम का दर्प
गल-गल वर्षा जल से वसुधा का नव सिंगार करने लगा
तेज समीर से मानो वसुधा भी कुंदन जडित हरित आँचल लहरा
व्योम को और उन्मत्त कर देना चाहती हो
दामिनी ने सम्पूर्ण वसु पर चन्दन का लेप फेर दिया
फुहारें पुष्प मिश्रित हो इत्र का छिडकाव करने लगीं
तिनके, पंखुडियां,अर्धविकसित फलों के अक्षतीए स्पर्श से
वह कोमलांगी सध्य: स्नाता नई नवेली धुली लाजवंती सी
सिमट सकुचा अपने ही निवेदन पर लजा गई
पर भीनी वर्षा की एक एक बूंद की तब तक पीती रही
जब तक गुरुत्व उसे आत्मसात करता रहा
अतिरिक्त जल से पोखर जलमग्न कर दिया ताकि
सुबह सकारे वसुधा के अंक से खग मृग
जलक्रीडा कर पिपासा शांत कर सकें
अर्पित फल रुपी अक्षत को बच्चे नन्हे-नन्हे
स्निग्ध कोमल पैरों से वसुधा की गात पर चढ़ चढ़ समेट सकें
और मुदित मन वसुधा नत नयन हलकी मुस्कान से उनमे खो जाए
द्वारा------------ आदर्शिनी श्रीवास्तव