Friday, August 5, 2011

ब्रह्म सर्वत्र वर्तते...................आकाश झांकती,शीश स्पर्शी

आकाश झांकती,शीश स्पर्शी,
गलित याचित
पन्नियों की कथित छत
तिरस्कृत ईंट,मिटटी से
संधित दीवारें
शव उपेक्षित ठंडा,गीला,बैगनी
तकिया,कथरी
थकी देंह थपथपाती
निंद्रा का चिंतित हस्त
नयनाभिराम दृश्य

असंतुष्ट पेट का कर्ण-विदीर्ण आलाप
बेबस माँ की मिथ्या
गज-जठर उलाहना

गिनित अस्थियों पर सिकुडन भरा
काला कफ़न
बालकों के नेत्रों को मिचमिचाता
पीत-वर्णी गाढ़ा,तरल नमकीन द्रव
क्षुधा-तृप्ति को आकुल
चिंता-मुक्त मंडराती
आनंदित मक्खियाँ
अनुपम दृश्य,सुन्दर

कहीं न कहीं
सदैव दर्शनीय
दैवी अथवा सामाजिक
मृत्युलोक का सत्य
स्वीकारना ही होगा

जो शाश्वत है, सत्य है
सत्यम शिवम् सुन्दरम
ब्रह्म सर्वत्र वर्तते,उपासनीए

दृष्टव्य ...................
जनमानस को कर्ताव्योंमुख करती
द्रव्यांश,सुश्रुषा संरक्षण हेतु,
कुछ, किंचित
चाहे तनिक
ब्रह्म सर्वत्र वर्तते

६ अगस्त २०११ मेरठ
आदर्शिनी
श्रीवास्तव
एक बार अपने घर काम करने वाली 'दुलारी' के घर जाने का अवसर मिला वहां अगल बगल के कई घरों की ओर ध्यान गया जहाँ के वातावरण में कुछ अच्छा तो कुछ विषम देखने को मिला कुछ चिंता हुई तो कुछ बच्चों के प्रति मन स्नेह से भर गया