Wednesday, April 22, 2015
Sunday, March 8, 2015
कविता .....बस यूँ ही एक कसक--------- कलम की थरथराई लौ से
बस यूँ ही एक कसक
-------------------------------
कलम की थरथराई लौ से
ऊपर तक उड़ता धुआं
आकृति बनती गई
कभी कुछ, तो कभी कुछ
आकृतियाँ खुश हुईं
लो हम उड़ चले
खुले आकाश में
लोग सराहें , मेरे रूप को
या न भी सराहें , मुझे क्या
मैं उड़ तो चली हूँ
मैं धुएं से बनी आकृति हूँ
कम से कम मौन में पड़ी
घुटन तो नहीं
पन्नो का सिसकता अंश तो नहीं .......
ओह ! मगर ये क्या? यहाँ भी ?
यहाँ भी मेरे लिए उन्मुक्त आकाश नहीं ?
समेट लूँ आँचल
कहीं मैला न हो जाए ....
जो जरूरत से ज्यादा
उजला रचा विधाता ने,
हमेशा से छल जो करता आया है
खुद में और हम में ....
खुद का काला
और हमारा सफेद?
विभेदी कही का .....छलिया .....
...................................
आदर्शिनी श्रीवास्तव
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कलम की थरथराई लौ से
ऊपर तक उड़ता धुआं
आकृति बनती गई
कभी कुछ, तो कभी कुछ
आकृतियाँ खुश हुईं
लो हम उड़ चले
खुले आकाश में
लोग सराहें , मेरे रूप को
या न भी सराहें , मुझे क्या
मैं उड़ तो चली हूँ
मैं धुएं से बनी आकृति हूँ
कम से कम मौन में पड़ी
घुटन तो नहीं
पन्नो का सिसकता अंश तो नहीं .......
ओह ! मगर ये क्या? यहाँ भी ?
यहाँ भी मेरे लिए उन्मुक्त आकाश नहीं ?
समेट लूँ आँचल
कहीं मैला न हो जाए ....
जो जरूरत से ज्यादा
उजला रचा विधाता ने,
हमेशा से छल जो करता आया है
खुद में और हम में ....
खुद का काला
और हमारा सफेद?
विभेदी कही का .....छलिया .....
...................................
आदर्शिनी श्रीवास्तव
.कविता .....केवल तुमको अपना पाया
राहों में कई लोग मिले
और बिछड़ गए फिर
इस पंछी ने तुम में
एक बसेरा पाया
सच कहती हूँ केवल
तुमको अपना पाया
तमिस्र निशा की नीरवता
में खोये खोये
एक उजियार न जाने कहाँ से
छनकर आया
मन का शावक दौड़ रहा है
उसी दिशा में
दूर बहुत है अभी उसे
वो छूना पाया
सच कहती हूँ केवल
तुमको अपना पाया
इस पंछी ने तुममे
एक बसेरा पाया
और बिछड़ गए फिर
इस पंछी ने तुम में
एक बसेरा पाया
सच कहती हूँ केवल
तुमको अपना पाया
तमिस्र निशा की नीरवता
में खोये खोये
एक उजियार न जाने कहाँ से
छनकर आया
मन का शावक दौड़ रहा है
उसी दिशा में
दूर बहुत है अभी उसे
वो छूना पाया
सच कहती हूँ केवल
तुमको अपना पाया
इस पंछी ने तुममे
एक बसेरा पाया
........आदर्शिनी श्रीवास्तव .......
कैसे सौंप दूं आकाश
मैं इतना भी निर्दयी नहीं कि
देखूं सिर्फ अपना पक्ष
समझता हूँ तुम्हे भी......
लो एक दिवस देता हूँ तुम्हे भी
निकाल लो अपने मन की भड़ास
बहल जाओ कुछ दिनों के लिए
शोर करो, हंसो पागलों की तरह,
रो लो थोडा अवगुंठन के बीच
प्रहार कर लो मुझपर
समझता हूँ तुमको किन्तु ,
किन्तु....कैसे.? ......
कैसे सौंप दूँ
तुम्हे तुम्हारा आकाश ?
कैसे बढ़ा दूँ तुम्हारा आत्मविश्वास ?
कैसे आभास होने दूँ
कि तुम भी हो
सर्व समर्थ ,
जिससे बदल सकती हो
अपने मन के अनुसार
आकाश का रंग..........
समझता था तुमको
तभी रचने पड़े ग्रंथों पर ग्रन्थ
जिससे तुम्हारी आभा को
ढक सकूं किंचित
और बचा सकूं अपना अस्तित्व
और तुम खुद कहने लगो
तुम गगन के चंद्रमा हो मैं धरा की धूल हूँ
तुम क्षमा मैं भूल हूँ
.......आदर्शिनी श्रीवास्तव ...
देखूं सिर्फ अपना पक्ष
समझता हूँ तुम्हे भी......
लो एक दिवस देता हूँ तुम्हे भी
निकाल लो अपने मन की भड़ास
बहल जाओ कुछ दिनों के लिए
शोर करो, हंसो पागलों की तरह,
रो लो थोडा अवगुंठन के बीच
प्रहार कर लो मुझपर
समझता हूँ तुमको किन्तु ,
किन्तु....कैसे.? ......
कैसे सौंप दूँ
तुम्हे तुम्हारा आकाश ?
कैसे बढ़ा दूँ तुम्हारा आत्मविश्वास ?
कैसे आभास होने दूँ
कि तुम भी हो
सर्व समर्थ ,
जिससे बदल सकती हो
अपने मन के अनुसार
आकाश का रंग..........
समझता था तुमको
तभी रचने पड़े ग्रंथों पर ग्रन्थ
जिससे तुम्हारी आभा को
ढक सकूं किंचित
और बचा सकूं अपना अस्तित्व
और तुम खुद कहने लगो
तुम गगन के चंद्रमा हो मैं धरा की धूल हूँ
तुम क्षमा मैं भूल हूँ
.......आदर्शिनी श्रीवास्तव ...
जोड़-तोड़
..........
हर कलाकार के भीतर
छुपा है एक जोकर
कभी वो ह्रदय का पर्दा दोनों हाथों से हटा
अपना सर निकाल थोडा झाँक लेता है
कभी हमारी नाक पर रख देता है
अपनी वीभत्स हँसी के साथ
एक छोटी लाल गेंद
खुश हैं सब , वो रो देता है
लोग अपनी जीत पर ख़ुशी से
तालियाँ पीटते हैं
सुबकता है वो
लोग समझते हैं जोकरगिरी ..
स्थिति .....
दो समीकरणों की तरह ....
अंक के स्थान पर रखता मान
मान को रौंदता अभिमान
वो पन्ना थोडा दहकता है
जहाँ-जहाँ हल हो रहें है
ये समीकरण
फिर उभरने लगते हैं
अक्षर की जगह पर अंक
प्रतिवाद पर वाद की एक धीमी खनक ....
मौन चीख को.... दबाती
एक और मौन आवाज़
नकारती हुई उस बीज के गुण को
....जो रोपेंगे वही पायेंगे
धन और ऋण का परिणाम सदैव ऋण
बेहतर है ऋण से ऋण का मिलाप
जिसे नहीं छलता समर्पण को दंभ
नहीं होता नए समीकरण का आरम्भ
और नहीं उपजता
नाक पर लाल गेंद रखता
एक और जोकर
......आदर्शिनी श्रीवास्तव .......
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