Tuesday, August 30, 2016

लेख --ताकतवर का कानून



जैसे-जैसे धर्मग्रंथों की शाखाएँ-प्रशाखाएँ निकलतीं गईं धर्म लोगों से दूर होता गया l वेदों और वैदिक मन्त्रों की ध्वनियाँ और यज्ञों के हवन की सुगंध धूमिल होती गई l लोग अलग-अलग वृतांतों से भ्रमित होने लगे तमाम बातों में अविश्वास बढ़ने लगा, विचारों की पावनता नष्ट होने लगी, नैतिकता शून्यता के कगार पर आ गई l
आजकल खुबसूरत से खुबसूरत पत्थरों, संगमरमर की बनी मूर्तियाँ मंदिरों में लगाने का प्रचलन जोरों से बढ़ रहा है l  मानव निर्मित मिट्टी, पत्थर की सुन्दर मूर्तियाँ हमें आकर्षित करती हैं हम उसे अपलक देखते रह जाते हैं मानव की उत्तम सृजनशीलता और ईश्वरीय आनंद में हम खो जाते हैं l मन भ्रमित हो कभी उस कला को देखता है कभी ईश्वर को खोजता है l इसके मतलब कि वो खुबसूरत प्रतिमाये हमारी आराधना में, ईश्वर से सीधे संपर्क में  व्यवधान डाल रहीं है l अगर कोई चर्च या मन्दिर, मस्जिद में आँखें बंद किये बैठा हुआ अपने विचारों को सांसारिक विषयों में भटकने देता है  तो ईश्वर अच्छी तरह समझते है कि उनकी पूजा नहीं हो रही किन्तु यदि कोई किसी धातु की मूर्ती के आगे झुककर उसे सर्वव्यापी परमात्मा का जीता जागता चिह्न और स्मारक मान तन्मय हो पूजा करता है तो ईश्वर उसकी पूजा अवश्य स्वीकार करते हैं l इसलिए मूर्ति पूजन कोई दोष नहीं ये ईश्वर से संपर्क की एक कला है l .......... किन्तु जब वो परमात्म भाव आस्था से खीच मूर्ति तक लाना ही हैं या जब ये कला आ ही गई तो मूर्ति की भी क्या ज़रूरत अब उसे सीखे ह्रदय तक ही क्यों न लाया जाए l     
वैदिक मन्त्र निराकार, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, अनन्त, नित्य पवित्र सृष्टिकर्ता ईश्वर की उपासना करता है किसी निश्चित आकार की नहीं l पूजित होती है सिर्फ एक ज्योति, सिर्फ एक ओम............ जो भक्त का सीधा तादात्म्य जोड़ता है उस चिन्मय सत्ता से जिससे सर्वस्व संचालित होता है l उसमे किसी प्रतिमा का आकार, रंग, वेशभूषा व्यवधान नहीं डालती l
प्राचीन समय में मात्र सत्व ही धर्म था l बिना प्रतिमाओं के मात्र तपस्या और सदाचरण ही धर्म था l यही आध्यात्मिक लक्ष्य और आत्मिक उन्नति का मार्ग था l प्राचीन काल में लोग तपस्या कर अनेकानेक शक्तियों को उस सर्वान्तर्यामी से पा लेते थे l गीता, महाभारत, बाल्मीकि रामायण जैसे ग्रंथो में कहीं मन्दिर और मूर्ति पूजन का ज़िक्र नहीं है l हाँ यज्ञ के लिए सीता की प्रतिमा की बात अलग है l कहा जाता है की सर्वप्रथम तीर्थंकर पर्श्वनाथ, शिवलिंग, विष्णु जी की मूर्तियों का निर्माण हुआ l बाद में अन्य मूर्तियों का प्रचलन बढ़ा l उससे पहले ध्यान से ही पूजा की प्रथा थी l फिर तो बाद में धर्म ग्रंथों के महान पात्रों की मूर्तियाँ बनने का रेला ही शुरू हो गया l फिर पौराणिक ग्रंथों के छोटे बड़े पात्रों के भी मन्दिर बनने लगे l एक पत्थर रखा चन्दन धूप किया धीरे धीरे चहारदीवारी भी खिंचवा दी और पोंगा धर्माधिकारियों का झूठ और लूट का व्यवसाय चल निकला  l प्रयाग के मीरापुर क्षेत्र में पन्द्रह बीस साल से एक मज़ार रास्ते में पड़ती थी सूनी सी अकेली सी, देखते देखते एक रोज़ उसपर हरी चादर उढ़ा दी गई दुसरे दिन से उसपर अगरबत्ती की सुगंध महकने लगी l उस स्थान पर किसी का सोया स्वामित्व जाग गया l ...... सीधे-सादे भोले लोगों का सीधा संपर्क उस असीम अनंत सत्ता से टूट गया और पंडितों, मूर्तियों, लड्डुओं के आडम्बरों में फँस कर सर्वभूतान्तार्यामी तक पहुँचने की जद्दोजहद होने लगी l भला क्यों सुनते भगवान् ? भक्त आडम्बरों में लिप्त होते गए और धर्मस्थलों की दीवारों में उलझकर रह गए l किसी ने इसपर कीचड उछाला किसी ने उसपर l सही रास्ता छोड़ धर्म-धर्म लड़ पड़े l
इधर आडम्बर बढ़ते गए उधर ताकतवर का कानून सक्रीय होता गया l जिसमे जब ताकत आई उस उस जगह एक ढाँचा तोड़ दूसरा ढाँचा स्थापित कर दिया l जीता जागता और परतों में दबा इतिहास तेरे-मेरे की जंग पर अड़ गये l ताकतवर के कानून के पदाधिकारियों में एक तरफ धार्मिक आडम्बर था तो दूसरी तरफ दंभ और आत्मग्लानि को छुपाने का नाटक भी l वो दूसरों को बंधन में रख अपने स्वामित्व भाव से खुश हो पोषित होते रहे l पर एक दिन ऐसा आया की उस दंभ और स्वामित्व भाव से त्रस्त अपना अधिकार चाहने वाले नींद से जाग गए फिर तो जैसे धरती ही डोलने लगी और वो भूडोल घर, गली मुहल्ला, कागज पत्तर, बिजली उपकरणों को भी हिलाने लगा l ये भूडोल हर धर्म में एक जैसा था  किसी में कम तो किसी में कुछ ज्यादा ही l शबरी मन्दिर, सिह्नापुर महाराष्ट्र का शनि मन्दिर,  हाजी अली दरगाह इसी ताज़ा ताकतवर के कानून का परिणाम है l ......... पुराने समय की तरह इस समय भी ये पूजन स्थल न होते तो झगड़े का एक बहुत बड़ा विषय ही न होता l कुछ सेवार्थ आश्रम स्थल होते और कुछ थकित पथिकों के विश्रामालय बस l   
पूजने को इस जगत की प्रकृति का कण-कण ईश्वर प्रदत्त होने के कारण पूज्य है l जिसमे मानव और प्रकृति एक दूसरे में एकाकार होकर गुँथे हुए हैं l प्रकृति की शक्तियाँ मानव सेवा के लिए मिलजुल कर काम कर रहीं हैं l सूर्य, पृथ्वी, वायु, वर्षा मिलजुल कर मनुष्य के लिए अन्न फल उपजा रहे हैं l बस मनुष्य ये बात समझ उसे अपने हुनर से सवाँर कर लाभान्वित हो ईश्वर का आभार व्यक्त करना हैं l

तमाम पौराणिक ग्रंथों को पढने के बाद ये ही निष्कर्ष निकला कि नैतिक उत्थान, अहंकार का नाश, परोपकार और प्रत्येक काम करते हुए भी हमेशा मन में ईश्वर के प्रति आभार भाव ही धर्म है l फिर न घण्टों धार्मिक स्थलों पर पूजा आराधना की ज़रूरत न संसार से भाग कर जंगल में जा तपश्चर्या की l क्योंकि अगर संसारिकता से मन नहीं हटा तो पूजा आराधना व्यर्थ है l संसार के समस्त कर्तव्य करते हुए हर ख़ाली समय में अपने मन को उस असीम तत्व में खुद को निमग्न करन है जैसे एक उत्कट प्रेमी अपने संग को याद करता है l ईश्वर अवसर आने पर हर बात सुनेंगे l 
......adarshini srivastava......