Thursday, September 13, 2012

झर-झर स्वर

मुग्ध शिखी का केकी रव
नभ से झरता मुक्ता मोती
विहग शांत नि:स्वन नीडों पर
टुकुर तकते रवि की ज्योति

प्रभा चली अस्तातल में
आकाश पात्र जल से भरकर
फैले नीरव निशि करतल में
करता अनन्त नभ झर-झर स्वर

नेह बंध स्वीकार करो

नेह बंध स्वीकार करो या
बंद करो ये माया जाल 


सौगंध लेकर के बारम्बार
विचलित करता ह्रदय अपार ,
प्रत्यक्ष कभी दिखते साकार
फिर मिथ्या का ढोता भार,

नेह-बंध स्वीकार करो या
बंद करो ये मायाजाल,

मधु का पिंगल प्याला देकर
क्यों करते हो तिरस्कार ?

भीगी-भीगी पलकों को अपनी,
गीली अलकों की देकर ओट,
ह्रदय-पीर को नीर बताकर
ह्रदय मौन करता चीत्कार,

मधु का पिंगल प्याला देकर
क्यों करते हो तिरस्कार?  

...कविता नहीं कुछ दिल की...

तुम्हारी पुकार...,
प्रेमडोर की ग्रंथि को
गीले सन की तरह कस देती है,
और संवाद का अंतराल
सूखे सावन सा रसहीन,
तुम्हे उलाहना नहीं देती
मैं ही तुम्हारा मन नहीं छू पाई,
तभी तो .............


उसकी आवाज़ भी मुझ तक कहाँ पहुचती थी
फिर अपने लिए खेद क्यूँ करूँ?

फिर भी... फिर भी मैं थक गई
अब तुम्हे आवाज़ नहीं दूंगी,
क्यूँ न अपना कद ही ऊँचा कर लूँ,