Monday, January 20, 2014


............एक लघु कथा .......लकीर से हटकर ..........गणेश चतुर्थी पर विशेष
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एक वर्ष पूर्व बसंत ने दस्तक दी और रूपम ने नए घर में कदम रखा l छोटा सा परिवार सास-ससुर और नव-युगल l एक साल पूरा होते होते नन्ही सिल्की भी लक्ष्मी बन सबके जीवन का हिस्सा बन चुकी थी l
रूपम के सामने आज पहली बार गणेश संकष्टी का व्रत सास ने अपने पुत्र की कुशलकामना के लिए रखा था निराहार निराजल l ख़ामोशी से अपनी सासू माँ का अनुसरण करती हुई उनकी हर तैयारी में रूपम उनका साथ दे रही थी l रात के नौ बजते-बजते माघ-मास के चतुर्थी के चाँद ने पेड़ की ओट से अपना दमकता मुखड़ा बाहर निकाला l सासू माँ ने श्रद्धा से सर नवाया और पूजन सामग्री के साथ जन्म से लेकर अबतक चली आ रही बिन्नी के नाम की सुपाड़ी, जिसे गणेश रूप में स्थापित कर पिछले पच्चीस सालों से बिन्नी के लिए मंगलकामना करती आ रही थी, भी साथ में ले पूजागृह की ओर बढीं l रूपम भी हाथ में तीन सुपाड़ी लिए उनके बगल आकर बैठ गई l सासू माँ ने स्नेह से उसे निहारा और पूछा --बहू ये सुपाड़ियाँ क्यों?
रूपम ने प्रश्न किया-- माँ क्या आप दोनों दीदीयों को  प्यार नहीं करतीं? क्या उनका खुश रहना आपको खुश और उनका कष्ट आपको कष्ट नहीं देता ? ये हों या इनकी दोनों बहने तीनों के लिए चिंतित होते आपको वर्षभर से देख रही हूँ l आज से ये पूजा मात्र पुत्र के लिए नहीं बल्कि संतान के लिए होगी l
सासू माँ की आँखें भर आईं उन्होंने बहू का माथा चूम लिया l वो बोली --बेटा ! चाहते हुए भी परंपरा समझ इसे तोड़ न पाई थी आज तुम्हारी आभारी हूँ l बेटियों के जाने से जैसे त्यौहार त्यौहार नही रह गया था l न रंगोली बनती न पूजा की तैयारी ढंग से होती और न घर में चहल-पहल ही रह गई थी l तुम्हारे आने से फिर रौनक लौट आई है l बेटी रूप में अभी तक तुम मायके को सुख दे रही थीं अब ससुराल को सुख दे रही हो l धन्य हैं बेटियाँ l आज मै प्रार्थना करूँगी की ईश्वर सबको बेटियों से जरूर नवाजे l आज तुमने एक नई परंपरा की शुरुआत कर दी है l प्रार्थना करती हूँ ये घर-घर पहुंचे l
........आदर्शिनी श्रीवास्तव .....मेरठ, गोंडा