Friday, September 30, 2011

देखो मैंने देख लिया

दो रोज की यायावरी में सारा आलम देख लिया
कुछ अपनों के संग ही मैंने दुनिया वालों को देख लिया

अपने ही हाथों से काटे कितनी बार पंख मैंने
अनसुलझे कुछ सुलझे भावों की लुकाछिपी भी देख लिया

नैन कटोरों में जल भर कर धूमिल तेरी छवि कई बार करी
हिलते डुलते सागर में भी तेरा रूप निराला देख लिया

पूरा अपना समझा जिसको उसको पल पल छिनते देखा
बारिश का कुछ पल को आकर झलक दिखाना देख लिया

कुछ संशय का भाव भी जागा कुछ ईर्ष्या के भाव जगे
प्रीत की बरखा देखी भावों में, सुनैनों का मद भी देख लिया

बहुत किया तुमने फिर भी तुम नारी मन को क्या जानो
दिल रखने को कुछ ही क्षण को तेरा पास बुलाना देख लिया

सच कहती है दुनिया सारी तुम नहीं किसी के लिए निष्ठुर
अल्पकाल में चन्दन सा मुझको लेप लगाना देख लिया

इसको भी सहो और समझो ये भी जीवन का एक पहलू है
ईश तुम्हारा ये खामोशा ईशारा भी देखो मैंने देख लिया



Thursday, September 29, 2011

प्रेम अनिवर्चनीय यहाँ

नदी का नदी में विलय देखो
कितना अद्भुत है ये संगम देखो
एकता तो है नदी की नदी से मगर
पृथक भावों का विलक्षण प्रवाह देखो

अलग हो कर भी जो दिखती यहाँ एक हैं
एक होकर भी जिनका उद्गम है अलग
ज्ञान के चक्षु अब तो उकेरो जरा
ईश्वर का जगत को ये संकेत है

किसका निमंत्रण है किसका समर्पण है ये
चरम पर पता ये कैसे चले
प्रेम में हो लींन नदिया अद्वैत हो गईं
अब शांत समता का भाव प्रबल देखो

प्रेम अनिवर्चनीय यहाँ प्रेम अकथनीय यहाँ
वो क्या समझे, ईश्वर को पृथक जो जगत से करे
निर्लिप्त भावों से प्रेम जगत से करो
पूर्ण निष्ठां से सेवा तुम सबकी करो

Friday, September 16, 2011

बदरी



ये सच है तपन पहले जैसी नहीं
किन्तु बदरी है जो हटती भी नहीं
है ज्वार सा उठता सुनामी कभी
धीमी लहरों की ठंडी थपक है कभी
रह रह के हृदय ढांप लेती है वो
आ जाती है फिर जल्दी छंटती नहीं

गोरे गोरे मुख पर ओढ़े एक चुनरिया झीनी सी
तनिक छुपे फिर तनिक दिखाए जब उड़े चुनरिया झीनी सी
श्वेत मेघ से तन को ढांपे,श्याम मेघ से रूप छिपाए
नभ पर खूब सजे तू सजनी,कुछ बरसा बदरिया झीनी सी

Thursday, September 15, 2011

तुम ही प्यासे के लिए हो जल

निमित्त हेतु समझ कर जब सामग्री हाथ थमा दी है,
सत्संग दिया, सद्ग्रंथ दिया,भगवन्नाम की आस जगा दी है,
अब जन्म मरण के बंधन से वो आप हमें ही तारेंगे
वह खुद समझे उद्धार मेरा जगतट पर जब नाव लगा दी है,
पूर्व जन्म के पुण्य ही है जो प्रभु की ओर चला है मन
प्रभुनाम का आश्रय लेकर ही कल्याण की राह चला है मन,
अब विषय भोग के संग्रह में हमको कुछ भी क्या लेना है,
अनित्य होकर भी दुर्लभ जो जीवन है,सेवा की राह चला है मन,

तुम ही प्यासे के लिए हो जल,तुम ही भूखे के लिए हो अन्न,
विषयी हेतु बनकर आए तुम रूप,रस,शब्द,स्पर्श,गंध,
प्रभव हो तुम, प्रलय हो तुम,औदार्य और माधुर्य हो तुम,
किन्तु मानव को चेताने हेतु दु:ख भी लाए तुम सुख के संग

निमित्त=कर्ता,करने वाला
प्रभव् =उत्पन्न करने वाला
औदार्य=उदार
माधुर्य=प्रेम
मृन्मय=मिटटी से बना पात्र

Monday, September 12, 2011

नहीं मै कह नहीं सकती तुझे मै प्यार करती हूँ

तुझे गर देख लू कुछ पल, तुझ से ही दिन गुज़रता है,
घंटों कैसे गुजरते है पता कुछ भी न चलता है,
होती हूँ मैं सबके संग मगर फिरभी अकेली हूँ
पूछते है सभी मुझसे कहाँ तेरा मन भटकता है,

मुश्किल में बहुत हूँ मैं,सही हूँ या गलत मै हूँ,
कदम मैं इक बढाती हूँ पीछे फिर लौट आती हूँ,
बढाया है तुम्ही ने हौसला,तेरे सर ही मढती हूँ,
सही हूँ गर तो तेरी हूँ,बुरी हूँ गर तो तेरी हूँ,

तेरे उन्मुक्त प्रश्नों से ऊलझन में पड़ मै जाती हूँ,
समझते क्यू नहीं तुम भी हया में सब छुपाती हूँ,
कैसे खोल दूँ मन को नहीं,ये गुण न मेरा है,
पुरुष हो तुम,कह दो तूम,मौन स्वीकार मेरा है,

मैं राधा ही भली तेरी जामुनी बन न पाऊँगी,
भामा संग तान तुम छेड़ो,मै ब्रज में गुनगुनाऊँगी,
कृष्णा की बाँसुरी पर तो,रुक्मणि अधिकार तेरा है,
गोकुल में मिल गया जो वही जीवन अब मेरा है,

नहीं मै कह नहीं सकती,तुझे मै प्यार करती हूँ,
तेरे भीतर के ईश्वर को नमन सौ बार करती हूँ,
तुझसे ही मेरी रचना सजी आभार करती हूँ,
स्वयं के रोम रोम में तेरा आभास करती हूँ

Sunday, September 11, 2011

ऑनलाइन मुशएरा,शीर्षक----------तस्वीर जो बसा ली है दिल में

दिल में किसी की तस्वीर जब देखना होता है
इस खातिर मोहब्बत में उतरना होता है,
समझे वो लाख देर से मगर फिर भी
साँसों की तर्ज़ पर दिल तक पहुंचना होता है

ये ऐसी मूरत है जो तमाशाई को तमाशाई रहने दे
लोग देखते रहें और दिलों में गुफ्तगू होती रहे
नकली रिश्ते जो दावा करे और पहरे पे खड़े हों
लाख घात लगाये रहें,रूहों का मिलन होता रहे

नादान वो जो चाबुक चलाये मोहब्बत की पाकीजगी पर
उसके दिल में कोई तस्वीर हो तो वो भी खुदा बन जाये
आँख खोलू तो हर रोज़ हर सुं हो चेहरा उसका
नीद की आगोश से निकल चुपके से ख्वाब में टहल आये

वही वजूद, वही शक्ल वही बाते वही अदा
वही हठ्खेलियाँ उसकी वही मासूम सी अदा
ख्वाब था या जीती जागती निशानी थी
इतनी मौजूद जैसे दिलरुबा की हकीक़त थी

Tuesday, September 6, 2011

दुल्हन

मोंगर गजरों से सजा बदन, रति में डूबे है लाल वसन,
हरित मेहदी अब लाल हुई,सबने बोले ये मृदुल वचन,
छनकाती मद्धम पग धरती,जुगनू छिटकाती चली नवल,
अधर हिले पर खुल न सके,दर्पण में देख झुक गए नयन

रातो रात सुहागन बन,ले ध्रुव तारे से सौभाग्य अखंड,
पाँव धरे जब डोली में,भर चंचल नीर से मीन नयन,
घर जैसा भी है अपना है,संतोष सांस ले हुई मगन,
दर पे थपकी से लाज भरी मुस्कान लिए निकली दुल्हन,

लौट रही पग फेरे कर,प्रथम प्रस्थान से अधिक बिलख,
आगत दिन कैसे होंगे,सशंकित बेचैन लिए चिंतन,
सदा कोमल अनुभूति नहीं रहती,जीवन है सुख दुःख का संगम,
इस हेतु विराम मैं लेती हूँ, दुखे न कहीं पाठक का मन,

शायद मेरा मन तब कुछ साफ़ नहीं था

भावों के हिचकोले थे पर, भावसृजन का सूत्र नहीं था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था


संघर्षों से एकाकी मन जब जूझ रहा था

हर क्षण,हर दिन सपना मेरा टूट रहा था

उस वक्त लेखनी बाधित क्यू है पता नहीं था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था


कितने पन्ने फाड़े फिर कितने लिख डाले

अवलोकन किया गतदिन में वह मन न भाये

उधेड़बुन में मैंने वख्त बीता डाले

हृद-मंथन में कितने वर्ष गँवा डाले


मुझमे निहित ही मेरा सारा लेख होता था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था


ऐसा नहीं, संघर्ष नहीं अब जीवन में है,

कसौटी पर कस कर निखरा अब मेरा मन है,

विचलित होती हूँ कुछ पल, फिर सध जाती हूँ,

दोष न दे ओरों को, खुद में ही रम जाती हूँ,


सह सकने मेरा ही अभ्यास नहीं था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था,

आदर्शिनी