Tuesday, September 6, 2011

शायद मेरा मन तब कुछ साफ़ नहीं था

भावों के हिचकोले थे पर, भावसृजन का सूत्र नहीं था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था


संघर्षों से एकाकी मन जब जूझ रहा था

हर क्षण,हर दिन सपना मेरा टूट रहा था

उस वक्त लेखनी बाधित क्यू है पता नहीं था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था


कितने पन्ने फाड़े फिर कितने लिख डाले

अवलोकन किया गतदिन में वह मन न भाये

उधेड़बुन में मैंने वख्त बीता डाले

हृद-मंथन में कितने वर्ष गँवा डाले


मुझमे निहित ही मेरा सारा लेख होता था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था


ऐसा नहीं, संघर्ष नहीं अब जीवन में है,

कसौटी पर कस कर निखरा अब मेरा मन है,

विचलित होती हूँ कुछ पल, फिर सध जाती हूँ,

दोष न दे ओरों को, खुद में ही रम जाती हूँ,


सह सकने मेरा ही अभ्यास नहीं था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था,

आदर्शिनी

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