Sunday, April 10, 2011

फिर यूँ ही बसंत लौटा

ऋतुराज अवधि में जब, नव कोपल पल्लव के फूटे
गिरते सूखे पत्तों से फिर क्यूँ तुम मुझसे छूटे

हल्के कम्पन से मंजरियाँ जब झर-झर झरनों सी झरतीं
वसुधा आह्लादित हो जाती तुम पवन वेग से क्यूँ उड़ते

जब गंध युक्त हो शीत अनिल से तरु भी झूम झूम जाते
मुझको निश्चल मौन छोड़ तुम क्यूँ शांत पवन से छिप जाते

पीली बौरों का रूप रस पी जब मुझसा ही व्याकुल था पुष्कर
क्रीडा लख ठोल ठिठोली विधि की, थामा था आशा का करतल

देख मध्य गुच्छ मंजरियों के कुछ ईप्सा दीप प्रदीप्त हुआ
लघु रसाल सा हरित-हरित सुदूर कहीं कुछ दीख उठा

alksit नयन जब प्रात खुले पीत चादर द्वार पर बिछे देखी
मन बासंती सा झूम उठा इक पदचाप इधर आते देखी

फाल्गुन की मधुरिम बेला में ह्रदय ऋतुराज सा झूम उठा
तृप्त हुई वसुधा संग मै इस बार फिर यूँ ही बसंत लौटा