Friday, March 30, 2012

धरा गगन के मध्य है जग,

प्रथम झलक में नभ के वर्तुल,
दिव्य किरण सा तेज दिखा,
जितना वह समीप था आता,
प्रसरित चहुँ ओर प्रकाश दिखा,

सहज स्वाभाविक वाग्वाद में,
न समझ सकी आकर्षित मन,
निश्छल धरा न समझी उसके,
अंतस-मानस का अंतर्द्वद्व,

करतल पर हलकी ऊँगली का,
स्वाभाविक सहसा धीमा स्पर्श,
तार ह्रदय वीणा का छेड़ा,
हुआ झंकृत चिर तक अन्तरंग,

बलिष्ठ और कोमल करतल की,
संकोच भरी सुन्दर जकडन,
रत्नजडित मुंदरी थी नभ की,
आभासित थी उष्मित धडकन,

नगन रजत हस्त कंकड से,
किट-किट क्रीडा कर गई सहज,
फिर अपनी नादानी पर,
धरा थोडा सा गई सम्हल,

पूनम का चंदा आकर्षित,
तो लहरें थीं हो रही आकर्ष,
फिर भी ज्ञात था दोनों को,
धरा गगन के मध्य है जग,

गगन-कोर से चढ़ता चंदा,
धरा-कोर से भाव-तरंग,
चंद्र कलाए बढती जाती,
धरा में पागल ज्वार-तरंग,

धरा-महक औ भीने झोंकों में,
होता जाता अभिनन्दन,
जग मध्य रख होता जाता,
उन दोनों का आलिंगन,

उलझन थी बेचैनी भी,
पागलपन से लाचार थे शब्द,
किन्तु अब याद कहाँ था उनको,
धरा गगन के मध्य है जग,

सजग हुई धरा ने देखा,
उठकर के मुख जल-दर्पण,
बिखरी लट, बिखरे कुंतल,
पहला-पहला तर्प-अर्पण,