Wednesday, August 31, 2016

हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है

वैसे कुछ रोज़ पहले संदीप कुमार ने रोज़ अपनी पत्नी के पैर छूने की बात कही थी l किन्तु ये जरुरी नहीं कि उन्होंने असत्य ही कहा हो क्योंकि उन्होंने ऐसा बिल्कुल नहीं कहा था कि वो झुक कर अपने हाथों से अपनी पत्नी का पैर छूते हैं l वो खड़े-खड़े लात से लात भी मार सकते हैं l दुनियाँ में अबतक तो कोई भी महापुरुष ऐसा नहीं दिखा जिसका दंभ इतना कमजोर हो की वो पत्नी का पैर छू ले l हाँ पर संदीप कुमार जैसे लोगों को समाज के सामने अपने परिवारजनों के लिए समर्पण भाव दिखा चाटुकारिता कर पत्नी बच्चों की विश्वास में लेना ही पड़ेगा l वरना वे विश्वासघात कैसे कर पाएंगे? बाहर बच्चों और पत्नी से इतनी आसानी से गुल खिलने का मौका कैसे मिलेगा ?

दुःख है उस घर के सदस्यों पत्नी बच्चों के लिए जिसने अपने आत्मीय की कथा टीवी अखबारों में इस तरह देखी, पढ़ी और सुनी l एक पत्नी से अगर अब ये उम्मीद की जाए की वो पहले की तरह शांत भाव से अपने पत्नी धर्म का पालन करे तो ये उसके प्रति ज्यादती ही होगी l संदीप कुमार के बच्चों की मनःस्थिति सोच अफ़सोस होता है क्या सम्मान दे पायेंगे अपने पिता को ? या पिता का ऐसा घृणित आदर्श देख उनके व्यक्तित्व किस तरह से प्रभावित होगे ? वे भविष्य में सही रास्ता चुनेगें या गलत ? स्कूल, ऑफिस, समाज में किस तरह किसी की आँखों का सामना कर पायेंगे ?

'आप' के समर्थक इस बात से अवश्य फ़क्र महसूस कर रहे होंगे कि आधे घंटे के अन्दर ही केजरीवाल ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के मंत्री संदीप कुमार को पद से निलंबित कर दिया l इससे पहले भी जितेन्द्र तोमर को फ़र्ज़ी डिग्री के मामले में और आसिम अहमद खान को पैसे के लेन-देन के मामले में केजरीवाल पदच्युत कर चुके हैं l मगर क्या मात्र पद से हटा देना ही एक मात्र विकल्प है या दण्ड है ? पहले के दो लोग जो पद से हटाये गए उनपर क्या कार्यवाही हुई ? अगर ऐसे महत्वपूर्ण पद पर रहने वाले लोगो को उचित दण्ड नहीं दिया गया तो बात जबतक ताज़ी है दोषी चुपचाप बैठे रहेंगे फिर कोई नई पार्टी ज्वाइन कर पहले की तरह ही दुष्कर्म में लिप्त रह अलगी पीढ़ी को मानसिक नुक्सान और देश को असम्मानित करते रहेंगे l
......आदर्शिनी श्रीवास्तव ....

   

Tuesday, August 30, 2016

लेख --ताकतवर का कानून



जैसे-जैसे धर्मग्रंथों की शाखाएँ-प्रशाखाएँ निकलतीं गईं धर्म लोगों से दूर होता गया l वेदों और वैदिक मन्त्रों की ध्वनियाँ और यज्ञों के हवन की सुगंध धूमिल होती गई l लोग अलग-अलग वृतांतों से भ्रमित होने लगे तमाम बातों में अविश्वास बढ़ने लगा, विचारों की पावनता नष्ट होने लगी, नैतिकता शून्यता के कगार पर आ गई l
आजकल खुबसूरत से खुबसूरत पत्थरों, संगमरमर की बनी मूर्तियाँ मंदिरों में लगाने का प्रचलन जोरों से बढ़ रहा है l  मानव निर्मित मिट्टी, पत्थर की सुन्दर मूर्तियाँ हमें आकर्षित करती हैं हम उसे अपलक देखते रह जाते हैं मानव की उत्तम सृजनशीलता और ईश्वरीय आनंद में हम खो जाते हैं l मन भ्रमित हो कभी उस कला को देखता है कभी ईश्वर को खोजता है l इसके मतलब कि वो खुबसूरत प्रतिमाये हमारी आराधना में, ईश्वर से सीधे संपर्क में  व्यवधान डाल रहीं है l अगर कोई चर्च या मन्दिर, मस्जिद में आँखें बंद किये बैठा हुआ अपने विचारों को सांसारिक विषयों में भटकने देता है  तो ईश्वर अच्छी तरह समझते है कि उनकी पूजा नहीं हो रही किन्तु यदि कोई किसी धातु की मूर्ती के आगे झुककर उसे सर्वव्यापी परमात्मा का जीता जागता चिह्न और स्मारक मान तन्मय हो पूजा करता है तो ईश्वर उसकी पूजा अवश्य स्वीकार करते हैं l इसलिए मूर्ति पूजन कोई दोष नहीं ये ईश्वर से संपर्क की एक कला है l .......... किन्तु जब वो परमात्म भाव आस्था से खीच मूर्ति तक लाना ही हैं या जब ये कला आ ही गई तो मूर्ति की भी क्या ज़रूरत अब उसे सीखे ह्रदय तक ही क्यों न लाया जाए l     
वैदिक मन्त्र निराकार, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, अनन्त, नित्य पवित्र सृष्टिकर्ता ईश्वर की उपासना करता है किसी निश्चित आकार की नहीं l पूजित होती है सिर्फ एक ज्योति, सिर्फ एक ओम............ जो भक्त का सीधा तादात्म्य जोड़ता है उस चिन्मय सत्ता से जिससे सर्वस्व संचालित होता है l उसमे किसी प्रतिमा का आकार, रंग, वेशभूषा व्यवधान नहीं डालती l
प्राचीन समय में मात्र सत्व ही धर्म था l बिना प्रतिमाओं के मात्र तपस्या और सदाचरण ही धर्म था l यही आध्यात्मिक लक्ष्य और आत्मिक उन्नति का मार्ग था l प्राचीन काल में लोग तपस्या कर अनेकानेक शक्तियों को उस सर्वान्तर्यामी से पा लेते थे l गीता, महाभारत, बाल्मीकि रामायण जैसे ग्रंथो में कहीं मन्दिर और मूर्ति पूजन का ज़िक्र नहीं है l हाँ यज्ञ के लिए सीता की प्रतिमा की बात अलग है l कहा जाता है की सर्वप्रथम तीर्थंकर पर्श्वनाथ, शिवलिंग, विष्णु जी की मूर्तियों का निर्माण हुआ l बाद में अन्य मूर्तियों का प्रचलन बढ़ा l उससे पहले ध्यान से ही पूजा की प्रथा थी l फिर तो बाद में धर्म ग्रंथों के महान पात्रों की मूर्तियाँ बनने का रेला ही शुरू हो गया l फिर पौराणिक ग्रंथों के छोटे बड़े पात्रों के भी मन्दिर बनने लगे l एक पत्थर रखा चन्दन धूप किया धीरे धीरे चहारदीवारी भी खिंचवा दी और पोंगा धर्माधिकारियों का झूठ और लूट का व्यवसाय चल निकला  l प्रयाग के मीरापुर क्षेत्र में पन्द्रह बीस साल से एक मज़ार रास्ते में पड़ती थी सूनी सी अकेली सी, देखते देखते एक रोज़ उसपर हरी चादर उढ़ा दी गई दुसरे दिन से उसपर अगरबत्ती की सुगंध महकने लगी l उस स्थान पर किसी का सोया स्वामित्व जाग गया l ...... सीधे-सादे भोले लोगों का सीधा संपर्क उस असीम अनंत सत्ता से टूट गया और पंडितों, मूर्तियों, लड्डुओं के आडम्बरों में फँस कर सर्वभूतान्तार्यामी तक पहुँचने की जद्दोजहद होने लगी l भला क्यों सुनते भगवान् ? भक्त आडम्बरों में लिप्त होते गए और धर्मस्थलों की दीवारों में उलझकर रह गए l किसी ने इसपर कीचड उछाला किसी ने उसपर l सही रास्ता छोड़ धर्म-धर्म लड़ पड़े l
इधर आडम्बर बढ़ते गए उधर ताकतवर का कानून सक्रीय होता गया l जिसमे जब ताकत आई उस उस जगह एक ढाँचा तोड़ दूसरा ढाँचा स्थापित कर दिया l जीता जागता और परतों में दबा इतिहास तेरे-मेरे की जंग पर अड़ गये l ताकतवर के कानून के पदाधिकारियों में एक तरफ धार्मिक आडम्बर था तो दूसरी तरफ दंभ और आत्मग्लानि को छुपाने का नाटक भी l वो दूसरों को बंधन में रख अपने स्वामित्व भाव से खुश हो पोषित होते रहे l पर एक दिन ऐसा आया की उस दंभ और स्वामित्व भाव से त्रस्त अपना अधिकार चाहने वाले नींद से जाग गए फिर तो जैसे धरती ही डोलने लगी और वो भूडोल घर, गली मुहल्ला, कागज पत्तर, बिजली उपकरणों को भी हिलाने लगा l ये भूडोल हर धर्म में एक जैसा था  किसी में कम तो किसी में कुछ ज्यादा ही l शबरी मन्दिर, सिह्नापुर महाराष्ट्र का शनि मन्दिर,  हाजी अली दरगाह इसी ताज़ा ताकतवर के कानून का परिणाम है l ......... पुराने समय की तरह इस समय भी ये पूजन स्थल न होते तो झगड़े का एक बहुत बड़ा विषय ही न होता l कुछ सेवार्थ आश्रम स्थल होते और कुछ थकित पथिकों के विश्रामालय बस l   
पूजने को इस जगत की प्रकृति का कण-कण ईश्वर प्रदत्त होने के कारण पूज्य है l जिसमे मानव और प्रकृति एक दूसरे में एकाकार होकर गुँथे हुए हैं l प्रकृति की शक्तियाँ मानव सेवा के लिए मिलजुल कर काम कर रहीं हैं l सूर्य, पृथ्वी, वायु, वर्षा मिलजुल कर मनुष्य के लिए अन्न फल उपजा रहे हैं l बस मनुष्य ये बात समझ उसे अपने हुनर से सवाँर कर लाभान्वित हो ईश्वर का आभार व्यक्त करना हैं l

तमाम पौराणिक ग्रंथों को पढने के बाद ये ही निष्कर्ष निकला कि नैतिक उत्थान, अहंकार का नाश, परोपकार और प्रत्येक काम करते हुए भी हमेशा मन में ईश्वर के प्रति आभार भाव ही धर्म है l फिर न घण्टों धार्मिक स्थलों पर पूजा आराधना की ज़रूरत न संसार से भाग कर जंगल में जा तपश्चर्या की l क्योंकि अगर संसारिकता से मन नहीं हटा तो पूजा आराधना व्यर्थ है l संसार के समस्त कर्तव्य करते हुए हर ख़ाली समय में अपने मन को उस असीम तत्व में खुद को निमग्न करन है जैसे एक उत्कट प्रेमी अपने संग को याद करता है l ईश्वर अवसर आने पर हर बात सुनेंगे l 
......adarshini srivastava......

    

Thursday, August 25, 2016

गीत .... कृष्ण ..... मेरी जल से हुई है गागर भारी

मेंरी जल से हुई है गागर भारी
हेरी सखी ...हम दोनों ही हैं सुकुमारी 
हाँ SSS मेरी जल से हुई.....l

छलिया है वो ताक लगाए 
मटकी फोड़ें मुझको भिगाए 
ऐसा है ब्रजनार वो नटखट 
लोग कहें.... ये हैं त्रिलोकी त्रिपुरारी
हाँ SSS मेरी जल से हुई.....l

माखन देख के जिया जुड़ावे 
क्षीर देख घर बाहर धावे
मोह भरे खीजत हैं यसुदा  
ओरे कान्हा.... काहे सताओ महतारी  

सखी जरा समझाओ पैजनियाँ 
आवेगा कस भरूँगी पनियाँ
छोरा निसदिन नाच नचावे 
हे री सखी..... कैसे पुकारूं गिरधारी

तुरत हुआँ पर आए कान्हा 
गगरी उठा सर धर दिए कान्हा 
लोचन बंकिम मार कटारी 
गोपी रहीं... भौचक अचंभित मनहारी 
....आदर्शिनी श्रीवास्तव....

  

Wednesday, August 24, 2016

गीत ..कैसे तुमको आभास हुआ


हैं मन से मन का कुछ बंधन 
या बस मुझको बहलाया है
इस सरल सूक्ष्म मन चेतन को 
आ होले से सहलाया है 
उत्फुल्ल आनंदित हो बैठा 
जो मन था अबतक बुझा बुझा 
तुम दिखे सुखद अहसास जगा ....

तेरे आने  से ही पहले 
वायू का झोंका आ बोला 
ठहरो-ठहरो कुछ सहज रहो 
आकर कानों में रस घोला 
पीछे मुड़ कर तो देख जरा 
आता है तेरा  कोई  सगा 
बह पल उस क्षण ही खास हुआ ...

वो देखो तुझसा ही कोई
धीमे क़दमों से आता है
वो हाथ हिलाता नहीं मगर 
धड़कन का शोर सुनाता है 
सोंधी सोंधी माटी महकी 
मन-मृग ने चौकड़ भर डाली 
मुखड़े पर एक मधुहास खिला 

अब ही मेरा प्रस्थान हुआ 
कैसे तुमको मालूम हुआ 
आँखों के सम्मुख देख तुम्हे
तनिक मुझे विशवास हुआ 
मन में जागा एक कौतुहल 
था शब्द बिना ही कोलाहल 
ये उर तेरा आवास हुआ     
......आदर्शिनी श्रीवास्तव 

Monday, August 22, 2016

गीत --गुंजित होती स्वर गंगा

मधुबन के आँचल से लेली 
प्यार भरी भीनी खुशबू 
थोड़ी पूजा के आँगन से 
ले मंत्रित गीली माटी
और हवा से पुरवाई की 
शीतलता ले छाँव घनी 
तब सौभाग्यजनों के घर में 
माँ ने बेटी एक जनी

शीतलता में छाँव सरीखी 
ऊष्मा फागुन माघ की 
कोमल ऐसी फूल पाँखुरी
ज़िद्दी है तूफ़ान सी 
भाव समेटे अनगिन भीतर
घर आँगन रंगा-रंगा 
मीठी किलकारी से घर में 
गुंजित होती स्वरगंगा
आज तोड़ने आई है वो 
घिसी-पिटी सी परिपाटी 
सारे जग में चमक रही है 
ऐसे जैसे हीरकनी 
तब सौभाग्यजनों के घर में 
माँ ने बेटी एक जनी 
.....आदर्शिनी श्रीवास्तव....

  

Sunday, August 7, 2016

नेताओं के अजीब अजीब बयानों पर

बहुत कठोर मगर कहती हूँ
विश्व मरणासन्न है, भारती को दम धुट गया
रक्षकों विश्वास मेरा लुट गया
प्रेमिका के दर्द से शाप देने वाले 
नलकूबर कहाँ हैं ? कौन हैं?
ब्रह्मा पुन्जक्स्त्सला पर 
अत्याचार होते देखकर भी क्यों मौन हैं?
दोष किसको दें? कौन जिम्मेदार है ?
गर्म लावा पीते परिजन
अर्थी उठाते कहार हैं l
सब एक थाली के हैं चट्टे पट्टे
कुछ मुँहचोर तो कुछ हैं मुँह फट्टे
नहीं रोकेंगे ये किसी को
इंतज़ार में हैं उसी आग में खुद भी जलने को
बनते हैं भोले, भविष्य से अनजान हैं
बेपरवाह इस भय से मुक्त कि
गली गली हो सकता है बुलंदशहर , बरेली, दिल्ली 
और उस शहर में कोई हो सकता है हमारा अपना भी
सड़क के शोर में दफ़न होती आवाज़ के साथ......
सत्य छुपाते लोग, ओज के रोग से पीड़ित मूक कविलोग
चिल्लाते हैं देश-किसान-सरहद-तिरंगा
क्या नहीं दिखता किसी मजबूर का देंह नंगा ?
जीत लो विश्व पर घर में हार रहे हो
विरोध करो, आवाज़ उठाओ
क्यों आत्मा मार रहे हो ?
दे दो दोष परिवर्तित नारी को क्योंकि
वही बढ़ा रही है आतंकवाद-नक्सलवाद
वही करा रही है सीमा पर गोली बारी
वही करा रही है चोरी-ठगी की वारदातें
वही करा रही है साम्प्रदायिक दंगे
उसी के कारण रोकी गईं हैं ट्रेने
फूँकी गईं हैं बसें, हाईजैक हुए हैं विमान
वही करा रही है संसद में कुर्सियों की उठा पटक
उसी के कारण हो रहे सत्र शून्य
उसी के कारण देखें गएँ हैं
आई हेट इण्डिया के बैनर
विश्व की सम्पूर्ण गालियों की उत्पत्तिकर्ता है वो
दोषी है.... वो उसे मार डालो....
भ्रूण में, दहेज़ मेंचिता में, तंदूर में, तेज़ाब से, आक्षेपों से ,
जितना कुछ दुर्गठित है उसी के कारण तो है .........
दोषी है वो दो साल की बच्ची
जो नहीं जानती कपड़ों का महत्त्व,.....
दोषी है वो सात साल की बच्ची
जिसने दो पैरों वाले जानवर अभी अभी देखें हैं,.....
दोषी है वो घर में चाय बनाती हुई चौदह वर्षीया बाला  
जो घर में घुसे लोगों से घसीट कर लाई गई है किचन से......
दोषी है गाँव की वो बीस वर्षीय अध्यापिका
जो सूती दुपट्टा से तन ढाँके
जा रही थी बच्चों को संस्कारित करने,.......
दोषी है साड़ी में लिपटी पचास वर्षीया प्रौढ़ा जो  
गृहस्थी के सामान के लिए जा रही थी बाज़ार,.......
दोषी है वो साठ वर्षीया वृद्धा
जिसके पीछे नाचतीं थी दो पीढियाँ
पर हार गई द्विपदीय कुत्तों से.......
हर एक घटना पर दोषी है वो .....
दोषी है वो ..... दोषी है वो ......
मत जागो तुम !
तो लो, अब नहीं रुकेगा ये पागल नर्तन
जब धर्म रो रहा है न्याय पड़ा सो रहा है
पातक प्रचण्ड से प्रचण्ड होता जा रहा है.......
पर तुम्हे नहीं दिखता किसी भी साईट पर
उत्तेजक अभद्र स्थिर, चलित विज्ञापन ?
लोभी हो तुम, नहीं रोकोगे इसे
क्योंकि विज्ञापनों के धन से बढ़ाते हो अपने ऐश्वर्य,....
बनाते हो रोगी हर उम्र की मानसिकता को,
अंधे, गूँगे, बहरे लोगों मुँह खोलो
बोलो, विरोध करो, दण्डित करो  .....
फाँसी दो , दाग दो गर्म लोहे से
उन अमानुषिकों को , कर दो चिह्नित कि
यही वो आदमखोर हैं यही हैं आदमखोर
पर तुम ये नहीं कर सकते , अधकचरे जो हो.....
इसके लिए चाहिए लौह मन और निर्लिप्त आत्मबल
पर अगस्त के अखबार में पन्द्रह दिन नित्य छपते
इस वाक्य को होठों पर लाते तनिक शर्म मत करना
माँ तुझे प्रणाम..... माँ तुझे प्रणाम.... माँ तुझे प्रणाम    


लेख ....अब गुडियाएँ पीटी नहीं जायेंगीं

सावन आया, गर्मी से मन को राहत मिली तो त्यौहारों की भी झड़ी लग गई तीज, नागपंचमी, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी l सब का मन पेंग लगाते झूले की तरह झूलने लगा l एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्रथायें सौंपते हम आगे बढ़ते रहे और मनाते रहे एक परम्परा की तरह l भूल गए की आखिर ये त्यौहार होते हैं तो क्यों ? ये प्रथायें हैं तो क्यों ?

नागपंचमी का त्यौहार पूरे उत्तर प्रदेश में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है l आँगन में पान के पत्ते पर चना, कच्चे दूध, पूड़ी के प्रसाद के साथ नाग देवता का पूजन होता है l पकवान बनते हैं l पीले कपड़ों से गुड़ियायें बनतीं हैं उन्हें दिन भर झूला झुलाया जाता है फिर शाम को उन गुड़ियों को चौराहों पर डालने जाते हैं जिन्हें लड़कों द्वारा हंटर और छड़ियों से पीटा जाता है और वो खुश होते हैं l छड़ियाँ विशेष रूप से बनी हुईं बाज़ार में मिलतीं है l मेले लगते है l  इस परम्परा की शुरूआत के बारे में एक कथा प्रचलित है।

तक्षक नाग के काटने से राजा परीक्षित की मौत हो गई थी। समय बीतने पर तक्षक की चौथी पीढ़ी की कन्या राजा परीक्षित की चौथी पीढ़ी में ब्याही गई। उस कन्या ने ससुराल में एक महिला को यह रहस्य बताकर उससे इस बारे में किसी को भी नहीं बताने के लिए कहा लेकिन उस महिला ने दूसरी महिला को यह बात बता दी और उसने भी उससे यह राज किसी से नहीं बताने के लिए कहा। लेकिन धीरे-धीरे यह बात पूरे नगर में फैल गई।

तक्षक के तत्कालीन राजा ने इस रहस्य को उजागर करने पर नगर की सभी लड़कियों को चौराहे पर इकट्ठा करके कोड़ों से पिटवा कर मरवा दिया। वह इस बात से क्रुद्ध हो गया था कि औरतों के पेट में कोई बात नहीं पचती है। तभी से नागपंचमी में गुड़िया पीटने की परंपरा है l                                                                                                                         
जब कि हम सब जानते है यह रहस्य तो कभी रहा ही नही कि परीक्षित की मृत्यु तक्षक के दंश से हुई| परीक्षित पुत्र जनमेजय ने नाग यज्ञ ही इसीलिए किया था जिसमे कुछ बड़े छोड़ सारे नाग मारे गये थे| अगर रहस्य था भी तो राजपरिवार की महिलाओ और नगर वासिनियो की यह सजा समाज मे कैसे प्रश्रय पाती रही प्रथा बन जाने तक..ये बर्बरता का विषय है उत्सव का नही,.....l यानि उस घटना के बाद भी ऐसी घटनाएं की जाती रहीं  होंगी तभी ये प्रथा बनी l

मैंने उत्तरप्रदेश के अनेक बुज़ुर्गों से जिनके यहाँ ये त्यौहार होता था उनसे भी गुड़िया पीटने की प्रथा का कारण जानने चाहा पर किसी को भी इसका कारण नहीं पता था जब की सबके यहाँ ये त्यौहार इसी तरह से धूमधाम और गुड़िया पीटने के साथ मनाया जाता है l इससे ये सिद्ध होता है हम हर परम्परा बस ढोते जाते हैं बस बिना जाने बूझे, एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक l आज बदले परिवेश में सावन की मस्ती हो , नाग पूजा हो, महादेव पूजन हो पर गुडिया पीटने की प्रथा का अन्त अवश्य होना चाहिए l चाहे वो धीरे धीरे प्रतीक रूप में होने लगें फिर भी ऐसी ही प्रथाएं समाज के एक वर्ग के प्रति असम्मान को प्रश्रय देतीं हैं जो दिन पर दिन वो मन पर विकृत प्रभाव डालतीं हैं और दुसरे को नीचा मान उनके उनके मान और प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचातीं हैं 
......आदर्शिनी श्रीवास्तव ......

Monday, August 1, 2016

कहानी ..... पिता का अंक


आज आकाश के मणिमय चादर पर एक चकाचौंध करने वाला अद्भुत श्वेत तेजरत्न दीप्तिमान हो  रहा था l जो सूर्य चन्द्र जैसे ग्रह, नक्षत्रों, सप्तर्षियों, से भी ऊपर दिपदिप करता हुआ सोच रहा था – धन्य हैं मेरी माँ जिन्होंने मेरी बाल्यावस्था में ही पुण्योपार्जन का उपदेश दिया और उनके उपदेश को आदेश मान आज मैं इस महान पुण्यलोक को प्राप्त कर सका l धन्य हैं वे ऋषिगण जिन्होंने मनोवांछित सिद्धि की प्राप्ति का दुर्लभ मार्ग सुझाया और मेरे तप के प्रभाव से ह्रदय में सर्वभूतान्तार्यामी भगवान स्वयं प्रकट हुए l मैं वो सौभाग्यशाली हूँ जो जबतक मैं रहूँगा मेरी माँ मेरे साथ रहेगी मेरे पास, मेरे बगल, अत्यन्त निकट l अहोभाग्य ! सत्य और हितकर वचन बोलने वाली माँ सुनृता नाम के ही योग्य हैं l आज उस परमपिता का आशीर्वाद है और धर्म का मार्ग सुझाने वाली माँ, दोनों को नतमस्तक हो प्रणाम करता हूँ l इन्ही दोनों के कृपा प्रसाद से मेरे प्रभाव में वृद्धि हुई है और समस्त लोकों के समस्त प्राणी मेरे प्रभाव का श्लोक पढ़ रहे हैं l धन्य है परिश्रम का बल, परिश्रम का प्रभाव l जिसने विमाता के कटुवचन से आहत बालक की उपेक्षा के बदले में ये दिव्यलोक प्रदान किया l
क्या विमाता की तरह मेरी माँ भी पिता की संगिनी और राजमहिषी न थीं ? क्या वो मात्र मेरे भाई के पिता हैं मेरे नहीं? क्या मैं उनका पुत्र नहीं? फिर इन सम संबंधों में द्विभाव क्यों? कहाँ हम दोषी हैं? क्या उनका पुत्र होना मेरा दोष था? या मेरी माँ का उनकी अर्धांगिनी होना ?
नमन हैं माँ को जिन्होंने मुझे क्रोध त्यागने का उपदेश दिया l उन्हीं ने पुण्य कर्मों की महत्ता परिभाषित की, कि पुन्यकर्मी को ही राजासन, राजच्छत्र प्राप्त होता है l जिसको जितना मिलाता है वो उसके पूर्वकर्मों का ही प्रसाद है l उन्होंने कहा था “ और अगर तू सचमुच विमाता के वचनों से आहत है तो पुण्य का संग्रह कर, तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी, समस्त प्राणियों का हितैषी बन l क्योंकि जैसे नीची भूमि की ओर ढलकता जल अपने आप ही पात्र में  आ जाता है उसी प्रकार सत्पात्र मनुष्य के पास स्वत: ही समस्त संपत्तियाँ आ जातीं हैं l “
स्नेह और आदर तो मैं अपने भ्राता, विमाता और पिता जी का उसी तरह करता हूँ जैसे लेखनी माँ सरस्वती से आदर और प्रेम करे l किन्तु आज मेरा ये स्थान भ्राता विमाता और पिता भी देख संभवतः प्रसन्न होंगे l मैंने कभी राजेच्छा या धन की अभिलाषा नहीं की l बल्कि इस बालक ने भी मात्र अनुज की तरह पिता के अंक में क्षणिक स्थान ही हो चाहा था उसमे विमाता या पिताश्री के मन में क्या भाव थे जो मुझे कठोरता से उस सुख से वंचित रखा l अब सभी को संतुष्ट कर तप के प्रभाव से मैं आकाश पटल पर अधिष्ठित हूँ l लोग मुझे ध्रूव कहते हैं आज से मैं एक कल्प तक अपनी माँ के आँचल तले स्थिर भाव से दमकता रहूँगा l
किन्तु एक बात जो सिर्फ और सिर्फ मुझे ज्ञात है माँ को भी नहीं l जो आज भी मेरे ह्रदय को मथती है l....... किसी भी बालक के लिए वो अमूल्य उपहार जिसको पाकर किसी राजठाठ की आवश्यकता नहीं l  कहाँ ये आकाशतल जो शीतल भी है स्वच्छ, निर्मल, अद्भुत भी, द्वेष रहित, मानवीय दुर्बलताओं से दूर भी किन्तु........ पिता का स्नेह हस्त, उनका सुरभित, कोमल, सुरक्षित अंक, जिसके सामने सृष्टि की समस्त निधियां फीकी हैं l कहाँ से लाऊँ ? कहूँ भी तो किससे ? कौन समझेगा मुझे ? सब मुझे आकाश में अधिष्ठित जो देख रहे हैं l.... भ्राता उत्तम तुमने निश्चय ही ध्रुव से अधिक पुण्य का संग्रह किया होगा जो तुम्हे माता-पिता दोनों का सानिध्य प्राप्त है l

....आदर्शिनी ....मेरठ .....