मोंगर गजरों से सजा बदन, रति में डूबे है लाल वसन,
हरित मेहदी अब लाल हुई,सबने बोले ये मृदुल वचन,
छनकाती मद्धम पग धरती,जुगनू छिटकाती चली नवल,
अधर हिले पर खुल न सके,दर्पण में देख झुक गए नयन
रातो रात सुहागन बन,ले ध्रुव तारे से सौभाग्य अखंड,
पाँव धरे जब डोली में,भर चंचल नीर से मीन नयन,
घर जैसा भी है अपना है,संतोष सांस ले हुई मगन,
दर पे थपकी से लाज भरी मुस्कान लिए निकली दुल्हन,
लौट रही पग फेरे कर,प्रथम प्रस्थान से अधिक बिलख,
आगत दिन कैसे होंगे,सशंकित बेचैन लिए चिंतन,
सदा कोमल अनुभूति नहीं रहती,जीवन है सुख दुःख का संगम,
इस हेतु विराम मैं लेती हूँ, दुखे न कहीं पाठक का मन,
Tuesday, September 6, 2011
शायद मेरा मन तब कुछ साफ़ नहीं था
भावों के हिचकोले थे पर, भावसृजन का सूत्र नहीं था
शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था
संघर्षों से एकाकी मन जब जूझ रहा था
हर क्षण,हर दिन सपना मेरा टूट रहा था
उस वक्त लेखनी बाधित क्यू है पता नहीं था
शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था
कितने पन्ने फाड़े फिर कितने लिख डाले
अवलोकन किया गतदिन में वह मन न भाये
उधेड़बुन में मैंने वख्त बीता डाले
हृद-मंथन में कितने वर्ष गँवा डाले
मुझमे निहित ही मेरा सारा लेख होता था
शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था
ऐसा नहीं, संघर्ष नहीं अब जीवन में है,
कसौटी पर कस कर निखरा अब मेरा मन है,
विचलित होती हूँ कुछ पल, फिर सध जाती हूँ,
दोष न दे ओरों को, खुद में ही रम जाती हूँ,
सह सकने मेरा ही अभ्यास नहीं था
शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था,
आदर्शिनी
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