Monday, March 26, 2012

प्रणय बंधन के साथ ही हमने जब जीवन में सुख चाहा,

प्रणय बंधन के साथ ही हमने जब जीवन में सुख चाहा,
उसी समय शिव के समक्ष हमने, बेटी धन भी चाहा,
कुछ ही समय बीता और घर में दो प्यारी कलियाँ आईं,
मन की मुराद पा मेरे संग घर की बगिया भी मुस्काईं,
पल-पल बढती वे चन्द्र सरीखीं नटखटपन ने मन मोहा,
नयन कभी न थकते लखकर मन से ऐसा नाता जोड़ा,
लोरी सुनकर वे सोईं कभी, कभी सुनती वे धर्म कथा,
उनकी सुन्दर मूरत गढ़ने को हमने भूली सभी व्यथा,
जब करतीं कोई काम वे ऊँचा मेरा सर ऊँचा हो जाता,
इक-इक सीढ़ी चढ़ती औ उनका,लक्ष्य निकट होता जाता,
सुयोग्य बनी हर क्षेत्र में जब,एक-एक दूल्हा सज-धज आया,
संदेह रहा न उनके सुख का फिर भी मन भर-भर आया,
फिर भी खुश हूँ उनके जाने से,बसा है उनका घर आँगन,
मात-पिता का आशीष साथ है और संग में रहता है साजन,

कहीं स्पष्ट हुआ न अंतर हमको बेटा और बेटी में ,
बेटे संग पाला दो बेटी, अपनी कुटिया सी कोठी में,
सच कहूँ धन्यभाग्य मेरा जो हमने बिटिया धन पाया,
प्रेम औ सेवा में बसता उनका अनुपम साकार रूप पाया,

बेटा होता बेटी सा ही स्नेहिल, भोला, प्यारा सा,
करता वह भी प्रेम औ आदर अपने पिता और माता का,

किन्तु, भावी सुख की लालच में तिरस्कृत न करना बेटी को,
बेटे के सामान बेटी भी, दुःख में, आएगी हमें हँसाने को,
संतान सुख का शुद्ध भाव हो अपना,और हँसती फुलवारी हो,
सहर्ष स्वीकारो जो दे ईश्वर, दुलारा हो या दुलारी हो,