Wednesday, April 12, 2017

सवैया ... भोर भये जब ..

सवैया 

भोर भये जब आँख खुली तो देखत हूँ हरसू अँधियारा 
चादर तो अब भी रजनी तन उत्तर में दिखता ध्रुवतारा 
ओस बिछी धरनी मनभावन ज्यों झरती झिर बारिश धारा 
आज सुहावन देख धरा मन का उजला-उजला गलियारा  
....आदर्शिनी 'दर्शी'.......



Tuesday, April 11, 2017

मत्तगयंद सवैया ...चैत्र लगा दहका...

मत्तगयंद सवैया 

चैत्र लगा दहका दिन भू पर पावकनाथ ने पाँव पसारा l
फागुन के अब नेह भरे दिन हाय! कहाँ चढ़ता जब पारा ?
कोकिल प्यासन कूक रही हलकान किसान दुखी घसियारा l
भूमि रहे नम नीर गिरा नभ ताप बड़ा झुलसा जग सारा l

Monday, April 10, 2017

दुर्मिल सवैया... झकझोर हवा सहकार

एक दुर्मिल सवैया

कल से पारा अचानक ८-१० डिग्री गिर गया l मौसम ठण्डा हो गया l बूँदें बरसीं, बादल छाये, अच्छा लगा l

झकझोर हवा सहकार गिरे ऋतु आज लुभावन आ हि गयी 
घिर आई घटा बरसे बदरा चहुँओर मची किलकारि बड़ी 
घर भीतर से निकले सब बाहर बादल देख पिकी कुहकी 
यह काल कहाँ प्रिय वारिद का हँस वासव से यह बोलिं शची 
....आदर्शिनी ... 'दर्शी' ...मेरठ 

(सहकार-आम, वासव-इंद्र, वारिद- बादल )

Monday, January 23, 2017

एक नदी बस बहती जाती

कितना खाली खाली मन है करने की कुछ चाह नहीं
लेकिन यदि करना ही चाहो करने की कोई थाह नहीं
घोर घना जंगल हो फिर भी पगडण्डी मिल ही जाती है
व्यवधानों के बीच में चलकर  एक राह मिल ही जाती है
अभी जवानी के कुछ पल हैं जी लो अर्थ व्यर्थ कुछ करके
कल होगा एकाकी मन जब रोना होगा शीश पकड़ के
सुख की नींव आज पड़ती है अब न सोवो अब तो जागो
मैला मन अब तो धूल डालो बुकर,न लो कुछ सपने निर्मल से
अहंकार को रख दो कोने, हम सब एक सामान बौने हैं
मेरे दृग में तुम बौने हो तेरे दृग में हम बौने हैं
मैं मुखिया हूँ तुम बस अनुचर, ये रिश्ता मेरा वो तेरा
बरसों बरस साथ बीते जब कहाँ रहा अब तेरा मेरा
सुख का मुख स्याही से धुलकर, कर डाले क्यों उसको मैला
सबका सुख दुःख अपना समझें तभी दिखे उजियारा फैला
एक नदी के दो तट जैसे बीच में बहता निर्मल जल है
कभी-कभी ही बढ़कर लहरें ये तट छू लें वो तट छू लें
पर ऐसे घनघोर अँधेरे से उजियार कहाँ जीतेगा
मौन उधर सदियाँ बितेंगीं इधर मौन एक युग बीतेगा
हँसी ठिठोली पड़ी अजानी भय से शब्द मूक हो ताकें
प्यारी रैना का श्यामल मुख बोले हम कैसे निशि काटें
यंत्रचलित सी कर्तव्यों की एक कहानी बढ़ती जाती
बड़वानल से झुलसी फिर भी एक नदी बस बहती जाती     

Wednesday, January 18, 2017

कहानी ......महा वसीयत

सुबह सात बजे का समय था l सबके घर सूचना पहुँचाई जा रही थी l सबके मुँह से आश्चर्यमिश्रित आह निकलती l कुछ को बोलने को कुछ समझ न आता और वो मौन रह दर्द में डूबी सूचना सुन लेते, कोई कर्णिक को सान्त्वना देते, कोई कहता ओह ये कैसे हो गया ?” कोई कहता मैं अभी निकलता हूँ तुम अकेला महसूस मत करनाl”

        सुहासी लेटी हुई मुस्करा रही थी मुख पर सफ़ेद चादर  डाले और जहाँ-जहाँ फोन से सूचित किया जा रहा था वहाँ-वहाँ वो स्वयं अपनी कल्पनाशक्ति से पहुँच वहाँ की स्थितियाँ देख रही थी l यही तो वो करती आई थी अबतक, लोग जहाँ पहुँचने में हजारों खर्च करके पहुँचते और समय भी गँवाते वहाँ वो अपनी कल्पनाशीकता से मिनटों में पहुँच जाती किसी भी  विषय पर कविता या कहानी लिखनी हो वहाँ की स्थिति देखती उस स्थिति में खुद को डुबोती कभी हँसती कभी मुस्कराती कभी आँखें भी छलकाती .........फिर उस समय वो स्वयं जहाँ दिखती थी वहाँ होती कहाँ थी ? जो लोगों को दिखता था वो होता था मात्र देंह l मन तो कभी कोसों दूर होता कभी आस पास ही कहीं विचरता l  ......अपने सूक्ष्म तत्व से वो उस स्थान पर होती जहाँ जिस आधार पर कविता जन्म लेती l फिर जो सज सँवर कर रचना  सामने आती तो लोग वो पढ़कर भावविभोर हो जाते l............ आज भी यही हुआ वो हर घर में होने वाले तमाशे को देख रही थी l कोई कह रहा था अभी बॉडी घर नहीं पहुँची होगी जल्दी-जल्दी कुछ बना लो पूरा दिन भूखा कैसे रहेंगे इतनी दूर सफ़र भी करना है l कोई कह रहा था अच्छा हुआ आज जल्दी ही सब्जी रोटी बना ली थी l कोई कह रहा था इतने सालों से दवा चल रही थी पर बहुत हिम्मती थी सुहासी l किसी ने कहा हम तो जा रहे है पर आज से तवा, कड़ाही नहीं चढ़ना है पर तवा उल्टा करके या अल्युमिनियम की प्लेट में रोटी बना लेना l ऐसे ही समय में वो काम आती है इसीलिए उसे फेंकते नहीं l आज कल पूड़ी पराठा कौन खा पाता है बरखी के खाने तक ?और बाप रे बिना  खाए तो रहा ही नहीं जाता गैस बनने लगती है l कोई कहता दवा खाना है कुछ तो  खाना ही पड़ेगा l यहाँ लाश कहाँ है कुछ खा ले l सब जैसे जनम के  भूखे थे l ......... लोग घर सुव्यवस्थित कर, हल्का सिंगार कर, भूख न होने पर भी जबरदस्ती ठूँसठास कुछ घंटों का उपचार कर निकलने की तेयारी कर रहे थे l कोई नेट पर ए  सी का टिकट देख रहा था कोई जनरल का , कोई बस से ही आने की सोच रहा था l कुछ के पास असमय ही अत्यंत व्यस्तता आन पड़ी थी l वो शुद्धि तक पहुँचने का वादा कर रहा था l कुछ ऐसे भी थे जो सचमुच दुखी थे l गला रुंधा रुंधा था बस काम निपटा रहे थे किसी के प्रश्नों का जवाब देने की सामर्थ्य नहीं थी बस डबडबाई आँखों से कुछ कुछ करते बीच बीच में गालों को पोछ लेते l वो ऐसे थे जिन्हें ऐसी स्थिति में देख कर सुहासी खुश नही थी वो भी दुखी हो गई

      तभी सुहासी गर्मी के मौसम में ठण्ड से कंपकपाने लगी, “अरे यार कितनी ठंडी जगह लिटा दिया वो भी बॉक्स में वो मुस्करा दी, लापरवाही से बोली जाने दो अब कौन सा बीमार पड़ना है l” ..... पर सही है l उस बर्फ की सिल्ली से तो अच्छा ही है l गीला गीला तो नहीं l ........पर उसका भी अपना आनंद होता होगा जैसे समुद्र के किनारे पैर के नीचे से रेत खिसकती है उसी तरह धीरे-धीरे बर्फ पिघलती होगी  शरीर अन्दर धंसता होगा l उसे बचपन में सोते-सोते बहनों का चादर खींचना भी याद आ गया l ..... उसने खुद ही कहा .......वाह री सुहासी तू मरते दम तक कल्पना  कर रही है l लगता है जनम जनम कवयित्री या लेखिका ही बनना है तुझे l अपनी सारी सोच विचार पर उसके मुँह पर स्मित हास था l

अचानक हँसता चेहरा उदास हो गया l सारी मस्ती काफूर हो गई l इस स्थिति में भी उसका दम मानों फिर घुटने लगा l उसे बहुत याद आने लगी प्राधा की, पुन्जिका की और मनस की l कैसे होंगे वो तीनो ? पर मुझे वहाँ जाकर उन्हें देखने हिम्मत नहीं l बस सोचने लगी प्राधा मेरी तरह है वो एकान्त में तडपेगी, सबके बीच न आँसू गिराएगी, न उसे देखकर किसी को लगेगा की उसे विशेष कष्ट है लोग उसे हृदयहीन समझेंगे लेकिन मुझे पता है वो मुझसे सबसे ज्यादा जुड़ी है उसका कोई काम मेरे विचार को जाने बिना होता ही नहीं l और पुन्जिका ? उसने तो जब से सुना होगा रो-रो के बुरा हाल होगा वो बचपन से ही ऐसी थी रोनी, पिनपीनी l बड़े होने तक ठुन्ठुनाती पीछे लगी रहती थी l अपने चाचा की शादी में भीड़ देख क्या रोते ही बीता था समय उसका l मेरा आँचल पकड़े साथ साथ घूमती और मैं उसे डाँटते डपटते दुलराते काम करती जाती l और मनस ..... उसने एक चुप्पी साध ली होगी l जाने क्या-क्या समेटे है अन्दर ? उसका मन का हाल कुछ पता ही नहीं चलता ? पच्चीस साल का होने को है अभी तक उसकी माँ सुहासी ही उसे नहीं समझी तो किसी और का क्या कहें ? मौन तो मौन l उससे ऐसे समय में जो-जो कहा जाता रहेगा वो यंत्रचालित की तरह करता रहेगा l उसके आँसू किसी को दिखेंगे नहीं पर वो रोयेगा l खुद मैंने उसके आँसू कभी नहीं देखे पर ऐसा नहीं कि वो सदा सुख से ही पला है बहुत झंझावात झेले हैं उसने भी हम सबके साथ l वह बुदबुदाई तीन बच्चे तीन नमूना l ...............ये बोलते समय दिमाग की नस कुछ ढीली पड़ी l पर मातृत्व और वात्सल्य से जड़ शरीर में भी जैसे छाती फटने लगी l लगा उठे और उन तीनो को जकड़ दहाड़ मारकर रोये l आखिर अपने बच्चों को कैसे छोडूँ l वो कराह उठी ..., कितना मजबूर हो जाता है इंसान देखता है, सोचता, समझता है, पर अभिव्यक्त नहीं कर सकता कुछ कह नहीं सकता, हिल नहीं सकता l काश मरने के बाद तुरंत चेतना भी शून्य हो जाया करती l

        और कर्णिक भी तो .........l पर अभी उन्हें फुर्सत नहीं मिली है अभी अस्पताल निपटा रहे हैं फोन कर रहे हैं और रिसीव भी कर रहे हैं और अभी शायद ऐसा ही रहेगा एक महीना अभी उन्हें फुर्सत नहीं मिलेगी फोन से l रात में थोडा सोचेंगे पर सोते भी बहुत जल्दी हैं l लेटे नहीं की सोये l उतना याद नहीं करेंगे जितना सबसे चर्चा करेंगे l घर में अगर एक मक्खी ने भी हलचल कर दी तो फिर मोहल्ला, दोस्त, ससुराल, भाई बंधू सबको पता न चल जाए तबतक चैन कहाँ ? फोन पर फोन l इधर फोन उधर फोन l इसीलिए घर में सब बात उनको सबसे देर में पता चलती या बताई जाती कि उन्हें बताया नहीं की हल्ला दुनियाँ जहान में l उसे आज भी खीज लगने लगी और कह दिया आप अपनी बात सबको बताया कीजिये मेरी नहीं और मुस्करा कर एक आँख दबा दी l

      अरे! कुछ लोग आने लगे हैं देखें क्या कह रहे हैं ?......... सबके एक ही सवाल से शुरुआत ये कैसे हुआ ? तबियत खराब थी क्या ? ( जबकि पता था कि तबियत खराब थी ) कर्णिक मुँह लटकाए सुन्न बैठे रटा रटाया सा  सबको जवाब देते l आखिर कोई एक ही सवाल का अलग अलग जवाब कहाँ से लाये l कोई पूछता कब तक ले जाने को कहा है डॉ ने ? (सच पूछो तो उन्हें खुद घर जाने की जल्दी थी कौन भला इस मनहूस माहौल में रहे l अपने क्या सबके गम कम हैं ) हाँ ले तो जाना है बस पुन्जिका का इंतज़ार कर रहे हैं वही दूर से आ रही है फ्लाईट पहुँच गई है बस आती ही होगी और कुछ हॉस्पिटल की फॉर्मलटीज़ भी पूरी करनी है l प्रश्न हुआ पर पुन्जिका का इंतज़ार यहाँ क्या करना जरूरी है ? सुहासी खीजी अरे भैया तुम्हे जाना हो जाओ सबको अपना काम करने दो l

हमेशा से हम और बच्चों में इतना विश्वास रहा कि कभी चोरी से किसी ने एक दुसरे की व्यक्तिगत चीजें नहीं पढ़ीं l अगर कोई ख़त आ जाता तो वो तबतक बंद रखा रहता जबतक उस ख़त का स्वामी न आ जाये l इसीलिए सुहासी ने अपनी वसीहत का राज़ सिर्फ अपने बच्चों को बताया था l एक पन्ना प्राधा को लिफाफे में बंद करके दिया था और उससे कहा था इसे जब हम मर जायेंगे तब ही खोलना l सुहासी ने जीवन की नश्वरता और मृत्यु अवश्य संभावी है इसके विषय में कहनियों के जरिये बचपन में बताया था l अपने बच्चों को उसने कहानियों और लोरियों के जरिये सतसंस्कार दिए थे l सुहासी ने ये भी कहा कि जब हम अस्पताल में रहें तभी इसे डैडी और डॉ अंकल के सामने खोलना l इसमें लिखी बात अभी से कहने से बेकार रोका-टोकी होगी l   प्राधा को इतनी कठोर बात अच्छी नहीं लगी थी पर उसने उसे ले लिया था l

प्राधा अपने पति के साथ पहुँच चुकी थी मनस भी था पुन्जिका पहुँची ही थी l कर्णिक ने कहा - हाँ प्राधा बेटा अब खोलो लिफाफा डॉ अंकल भी हैं ऐसा क्या है इसमें जो अस्पताल में ही पढना जरुरी है l धीरा प्राधा की अन्दर तक घुटी घुटी साँस बाँध तोड़ उफन पड़ी l औरो ने उसे सम्हाला l उसने भी स्वयं को हमेशा की तरह संयत कियाl
उसने रुक रुक कर पढना शुरू किया .....लिखा था .....l

 मेरी वसीयत ......

कर्णिक सबकी आखरी इच्छा का मान रखना तो होता ही हैं मेरी वसीहत का अन्य पन्ना तो घर में है लेकिन एक पन्ना प्राधा के पास सुरक्षित था l आप इसका मान रखेंगे हमें ऐसी उम्मीद है आगे लिखा था-----
मैंने पहले ही अस्पताल आ अपनी बॉडी के पार्ट्स डोनेट करने के लिए फार्म भर दिया था l अगर आपसे बताती तो आप कभी न मानते l मेरी दोनों आँखे किसी नेत्रहीन की आँखों को रौशनी देंगीं, मेरा गुर्दा किसी को दस बीस साल की ज़िन्दगी दे सकता हैं l मेरा ह्रदय किसी और शरीर में धड़कता रहेगा l फिर बताइए हम मरे कहाँ ? हम यहीं रहेंगे आप लोगों के बीच l हर इंसान में मेरा अंश देख आप सबसे प्यार कर सकेंगें l फिर उसके बाद क्या बचेगा सिर्फ हड्डी और खाल ? .........मैंने अब तक की जिंदगी में अनेक मौतें देखीं हैं .......हाँ, महसूस किया है मैंने अन्य के शव को जलते हुए लोगों के भावों को,............. लोग मनाते है जल्दी से जले तो कुछ खाएं और घर जाए और अपने को महान अनुभव करें की हम किसी की मिटटी में गए थे l कुछ लोग तो इतनी देर में समोसा भी छुपकर खाने लगते हैं l अतः मेरी इच्छा है की यहीं शवदाह गृह में मेरी अंतेष्टि हो जाए और जब राख प्रवाहित करने का दिन हो उस दिन ब्रह्मभोज और नाते रिश्तेदारों को नहीं बल्कि किसी अंनाथआश्रम या भूखे लोगों या गरीब लोगों को भोजन कराया या अन्नदान किया जाए l रोइयेगा नहीं चरण स्पर्श l बच्चों को प्यार l
कर्णिक, प्राधा, पुन्जिका, मनस और कुछ और आत्मन अपने आँसू न रोक पाए l कई लोगों के मुँह से प्यार से निकला –“पागली हैं लड़की लेकिन और उपस्थित लोगों की आँखों में अलग अलग भाव थे l दुःख की बेला में भी कुछ गर्वित थे, कुछ हर्षित कुछ का ह्रदय प्यार से छलछला आया था और कुछ के भीतर भाव थे बड़ी नौटंकीबाज हैं l
.......आदर्शिनी श्रीवास्तव ......
१/८१ फेज़-१ , श्रद्धापुरी
कंकड़खेड़ा मेरठ
९४१०८८७७९४