Wednesday, September 12, 2012

.................बेटी ..........

नन्हे-नन्हे कर चरण लिए 
आई मैं सुख देने पल क्षण,
किलकारी और कोमलता से
हरने तेरा मन रुपी धन,
रखो मुझको निज नयनों पर
हर दिन होगा शीतल सावन,
आभास मुझे होने तो दो 
मुझसे भी पुलकित हैआँगन,

चाह नहीं बेटा सम होना 
बेटी हूँ...........तो बेटी हूँ,  
यदि ममता की मूरत हूँ 
लक्ष्मी सहगल सम भी हूँ,
भारी है मुझ पर जग सारा
जो खुद मैं बनती नीची हूँ,
व्यवधानों को चुनती चलती,
फिर भि कितनों से जीती हूँ,

इस जग में गर हम आयें
निज पलकों पर रखो मुझको,
अपनी कुत्सित इच्छाओं पर 
बलि देकर न भक्षो मुझको,
क्या आभास तनिक तुमको?
गिनती में रखते कम मुझको 
बीज नहीं उपजेगा तो,क्या 
नव-पल्लव सुख देंगे तुमको?
हनते झूठे अपवादों से 
मानवता को तुम हरते हो,
आक्षेप नहीं करती फिर भी,
क्या जनने से तुम डरते हो? 
       

माँ



निशि दिन की मेरी हठ से 
शिकन न माथे तक आई ,
नयन सकारे जब जागे
भर क्षीर कटोरा ले आई,
अंजन-मंजन दुलरा-दुलरा 
सजा-धजा श्रृंगार किया,
ऊँगली मेरी थामे-थामे 
आँगन के बिरवा तक आई,
नित रोज़ नए अध्याय खुले,
मेरे परिवर्तित कल होते,
मैं तो बदला-बदला होता,
उसके हर दिन बीते कल होते,