Tuesday, August 2, 2011

लेखनी की पीड़ा

लिखने को कलम उठाई

जब सच की सियाही में,

वो भी परेशान हो आग उगलने लगी,

यूँ तो झूठ से सहारा मिला

सच लिखने में बहुत,

बात बदलते गए

सच्चाई छपती गई,

एक के बाद एक मामले सामने आते गए,

शर्म से मुंह छिपा अब

लेखनी भी दुबकने लगी,

वक्त की मार ने कहाँ ला दिया मुझे,

सोचने लगी,

कभी रुकने,कभी चलने

पथभ्रष्ट होने से डरने लगी,

किसने समझl मुझ निर्जीव के मर्म को,

शब्दों में बिखरते आँखों के दर्द को,

वो श्रृंगार, प्रकृति,उत्साह,भक्ति से

मै क्यूँ भटक गई,

स्वयं राह दिखाने वाली मै

लोगों से मिन्नतें करने लगी,

मुझे चाहिए फिर वही

पुराना इतिहास,

भक्तिमय साहित्य,

प्रकृति और श्रृंगार,

राम की गाथा,कृष्ण का सन्देश,

क़ुरान शरीफ का पारा,

ग्रन्थ साहिब का उपदेश,

पुरानों की सी सूक्तियां,

वेदों का सत्संग,

बाइबिल की कथाये,

उपनिषदों का प्रसंग,

by--adarshini srivastava

8 july 2011

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