Thursday, October 17, 2013

एक बरसात

जब भी आसमान अपने उमड़ते-घुमड़ते, काले-सफ़ेद मेघ से सूरज को अवगुण्ठन में ले अपने मखमली आँचल से सरसरी छेड़, बरखा की सूचना भर देता है तभी से मन मयूर सा नाचने लगता हैI फिर भोर हो या सायं मन का उल्लास न रोके रुकता है न छुपाये छुपता है Iतब निकल पड़ते हैं कुछ न कुछ खुशनुमा शब्द जुबान से .....

आज मौसम ने जो राग मल्हार का आलाप छेड़ा है उससे लगता है आज प्रथम ट्रेन छूटनी ही है आज कार्यालय की रिक्त कुर्सी भी टकटकी लगाये पथ निहारेगी .......

धीमी बारिश में आम्र-पल्लव को सहलाती, आँगन में रखे बर्तनों में से एक आधी टेढ़ी कटोरी जो आधा मुह निकाले बाहर झाँक रही है उस पर बूँद-बूँद टपकती जल तरंग सी टिप-तिन की मिली जुली ये मधुर धुन इतनी कर्ण प्रिय है की अभी भी उन बर्तनों को छेड़ने मन नहीं कर रहा ......कुछ गुनगुना लूँ ...रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम रिमझिम .......

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