Thursday, October 17, 2013

भावुक अहसास

उस असीम तत्व से मुझे इनकार नहीं ....विशवास है उस तेज पुंज पर I मंदिर का प्रांगण बहुत संतोष देता i वहां से निकलने वाली उर्जा में अजीब सा सम्मोहन होता है स्वीकारती हूँ I स्वाध्याय और आत्मचिंतन को महत्त्व देती हूँ किन्तु पूजा कि तमाम विधियाँ मेरी समझ से बाहर हैं I धुप दीप नैवेध्य कभी कभी ही आत्मा को स्पर्श कर पाया है मुझे I अतः नित्य दो तीन मिनट कि ही पूजन का नियम बना सकी फिर भी कभी कभी विशवास या भक्ति के कारण आँखें तक भीगी हैं I 
ईश्वर की अनुकम्पा, विचारों कि उहापोह, कुछ कर गुजरने की चाहत, जीवन निस्सार निरर्थक न जाए इसकी कामना से ही शायद हाथ में स्वंय ही लेखनी आ गई I फिर उसमे व्यवधान कष्ट देने लगा I कलम से कुछ ख़ास न निकल पाने की वेदना ले रोज़ ही कलम थाम बैठ जाती और छुटपुट कुछ सृजित हो जाता I इसी असंतोष के बीच माँ कि याद सताने लगी और सारी जिम्मेदारियों को कठोरता से दरकिनार कर उनके पास जाने की ठान ली I
वाह! कितना सुकून है यहाँ I मगर मुझे ऐसा नहीं लगता कि यहाँ बचपन बिताने का आकर्षण है ये I वास्तव में यहाँ सुकून और संस्कार हैं संस्कृति बचाए रखने की परंपरा है I आधे किलोमीटर की घर तक पहुँचने कि गली में तीन जगह धार्मिक अनुष्ठान होते मिले वो भी इतने सुन्दर और आडम्बरहीन तरीके से कि मन उसमे डूबने लगा I संगीतमय भजन की धुन कानो में शीतलता घोलने लगी लगा कोई सुन्दर कैसेट बज रहा हो पर करीब आते आते वाद्य यंत्रों कि धुन और उन चार युवाओं की ओर ध्यान गया जिसमे तीन उस मुख्य युवा के सहयोगी के रूप में कैशियो, ढोलक हारमोनियम और मंजीरे से उनकी संगत कर रहे थे और बीच-बीच में अपने कंठ से भी उस मुख्य युवा का सहयोग कर भजन को और भक्तिमय और सुमधुर बना रहे थे I मन जैसे बंध सा गया उसका आनन्द लेने के लिए चाल एकदम धीमी कर दी करीब जा कर पता चला ये सात दिवसीय भजन संध्या है I फिर उस गली में घर के हर सदस्य के साथ चक्कर लगता रहा और स्वर्गीय सुख का रसास्वादन होता रहा I घर करीब था तो रात में दो बजे तक उन भजनों कि ध्वनि कानो में पड़ती रहती और जाने कब आँख लग जाती I दो दिन बाद ही घर के बिलकुल बगल में अखंड रामचरित मानस बहुत सुन्दर सुन्दर तर्ज़ में आरम्भ हुई और उनके दोहे चौपाइयाँ मन्त्र मुग्ध करती रहीं I शांति प्रिय, घर की टीवी को भी बहुत धीमी सुनने वाली मैं, मुझे उन २४ घंटो में एक बार भी शोर का अहसास नहीं हुआ I 
छोटा सा शहर मगर कितना सुकून है यहाँ I कहीं कोई तमन्ना नहीं ,अपव्यय रहित आडम्बर से परे जीवन यापन.......अपने परिवार में ही तमाम सृजनात्मक शक्तियों को, निर्लिप्तता से झरनों की तरह बहता हुआ बचपन से देख रही हूँ I अपने अपने काम में सभी मगन एक जुट होकर जैसे गुथी हुई माला की सभी मणियों में एक ही सूत्र व्याप्त हो I ईर्ष्या, द्वेष, छल उन महानगरो की अपेक्षा दशमलव एक प्रतिशत ही हो शायद I 
लौट आई हूँ फिर अपने धाम .....ये.समझते हुए की कुछ भी ठहरने वाला नहीं I यही का किया यही रह जाएगा I कृतियाँ दो पीढ़ी बाद धुल चाटेंगी I जाने कितने मेरे जैसे आये और गए फिर भी जीने लगी हूँ एक असंतोष के बीच......... 
...........आदर्शिनी .....२१/७/०१३

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