Tuesday, November 1, 2011

........शीतल तन,तपता मन ..........

निशि ठंड से बच धरती ने,
हिमकण की चादर तानी,
सच कहूँ तब क्या,
चांदनी थी चन्दा से अनजानी?
ठिठुर रही थी निशा
और वे बाँहों में बाहें डाले,
तिरछी दृष्टि थी सबकी उनपर,
पर वे भी थे मतवाले,
जल सीकर से भीगी थी वसुधा,
उनदोनों को होश नहीं था,
देख शीतल तन पर तपते मन को,
अम्बर भी कुछ हतप्रभ था,
लोगों की रातें थीं लम्बी,
उनदोनो की कितनी छोटी,
इंदु जहाँ-जहाँ जाता था,
इंदु किरण संग होती,
"पागल हैं दोनों" कह रवि ने
धीरे से आँखें खोली,
हल्की-हल्की गर्मी दे कर
उनपर भी बाहें फेरी,
हिम चादर वसु ने सरकाई,
विधु-अंशु ने होश सम्भाला,
वसुधा और प्रणयी दोनों को
मिल गया एक सुखद सहारा,
लुप्त हुए निशिचर नभ से
खग मृग ने ली अंगड़ाई,
शीश झुका चल दिए वे भी
महकी फूलो से अँगनाई,
इंदु,विधु =चाँद
अंशु=किरण
प्रणयी=प्रेमिल जोड़ा
वसु,वसुधा=धरती

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