Thursday, June 2, 2016

गीत .... ओह बरगद छाँव वाला



ओह! बरगद छाँव वाला वृक्ष कैसे ढह गया

वट के हरियाले सघन से
ये धरा रीती हुई
याद ही है अब सुरक्षित
नेह को जीती हुई
आत्मबल का भाव देकर हमपे कर अनुग्रह गया

प्राणवायु के बिना हैं
पौध सकते में खड़े
सहमे-सहमे देखते हैं
फाड़ नैना पाँवड़े
सब निशानी छोड़ पीछे वो समय सा बह गया

वो सुयश, रस का कलश
था प्रेम पल्लव से लदा
उसके वैभव पर निछावर
थी जगत की सम्पदा
ज्ञान, परउपकार वाला कोश का संग्रह गया

चाह थी विश्राम की पर
ये निरंतर का सफ़र
दैव-प्रेरित रास्तों का
डोलता उसपर चँवर
ये सफ़र रुकता नहीं स्वीकार वो आग्रह गया
......आदर्शिनी श्रीवास्तव .......( हरिद्वार में तातश्री के निधन पर )


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