Sunday, March 8, 2015

कैसे सौंप दूं आकाश

मैं इतना भी निर्दयी नहीं कि
देखूं सिर्फ अपना पक्ष
समझता हूँ तुम्हे भी......
लो एक दिवस देता हूँ तुम्हे भी
निकाल लो अपने मन की भड़ास
बहल जाओ कुछ दिनों के लिए
शोर करो, हंसो पागलों की तरह,
रो लो थोडा अवगुंठन के बीच
प्रहार कर लो मुझपर
समझता हूँ तुमको किन्तु ,
किन्तु....कैसे.? ......
कैसे सौंप दूँ
तुम्हे तुम्हारा आकाश ?
कैसे बढ़ा दूँ तुम्हारा आत्मविश्वास ?
कैसे आभास होने दूँ
कि तुम भी हो
सर्व समर्थ ,
जिससे बदल सकती हो
अपने मन के अनुसार
आकाश का रंग..........
समझता था तुमको
तभी रचने पड़े ग्रंथों पर ग्रन्थ
जिससे तुम्हारी आभा को
 ढक सकूं किंचित
और बचा सकूं अपना अस्तित्व
और तुम खुद कहने लगो
तुम गगन के चंद्रमा हो मैं धरा की धूल हूँ
तुम क्षमा मैं भूल हूँ
.......आदर्शिनी श्रीवास्तव ...

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