Wednesday, December 28, 2011

सबने समझा मै काठ रची

जीवन जैसे युग बीता
दिन-दिन जीवन सा लम्ब हुआ
कठपुतली सी इठलाई गई
डोरी में अंतरद्वंद्व हुआ
ऊँगली कि थिरकन पर थिरकी
ऊँगली ठिठकी काठी ठिठकी
समझा ना कोई उर कि पीड़ा
जल-जल कर कैसा रंग हुआ
सबने समझा मै काठ रची
लोगो का तो आनंद हुआ
मेरे कोरों से नीर बहे
मन उमड़-उमड़ के छंद हुआ
इंद्र धनुषी जो कुछ भी था
शनैः-शनैः वो धवल हुआ
डाली का महका सुमन-सुमन
मुरझा मुरझा बदरंग हुआ

4 comments:

  1. सबने समझा मै काठ रची
    लोगो का तो आनंद हुआ
    मेरे कोरों से नीर बहे
    मन उमड़-उमड़ के छंद हुआ

    .... बहुत ही सुंदर बिम्ब ... बहुत सशक्त रचना ...
    बधाई ...

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  2. प्रमोद जी आपके इन अनमोल वचनों के लिए आभार

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