Thursday, December 29, 2011

क्यों सजना यूँ व्यथित हुए

एकटक देख रहीं थीं बूँदें,
नेत्र भी उनके सजल हुए
छलके नयन लगे मन हरने
दिल जाने क्यूँ दो विकल  हुए
अभी कहाँ खोला था मन को
कैसे उसका विश्वास बनूँ
पलकों पर अधरों को रख दूँ
या कोमल आलिंग कसूँ
क्या कर दूँ जो चक्षु न भीगे
कैसे  पीड़ा मन की हर लूँ
कोई कसक तो होगी मन में
क्यूँ सजना यूँ व्यथित हुए

Wednesday, December 28, 2011

सबने समझा मै काठ रची

जीवन जैसे युग बीता
दिन-दिन जीवन सा लम्ब हुआ
कठपुतली सी इठलाई गई
डोरी में अंतरद्वंद्व हुआ
ऊँगली कि थिरकन पर थिरकी
ऊँगली ठिठकी काठी ठिठकी
समझा ना कोई उर कि पीड़ा
जल-जल कर कैसा रंग हुआ
सबने समझा मै काठ रची
लोगो का तो आनंद हुआ
मेरे कोरों से नीर बहे
मन उमड़-उमड़ के छंद हुआ
इंद्र धनुषी जो कुछ भी था
शनैः-शनैः वो धवल हुआ
डाली का महका सुमन-सुमन
मुरझा मुरझा बदरंग हुआ

कोहरा

हिम सा प्रसरित है रजत कोहरा
गगन धरा सब श्वेत हुई
पाती-पाती सच्चे मोती को
पाकर् के अभिभूत हुई
विधु कि किरणों से लिपटी उतरी
कुछ पल को खामोश रही
रवि किरण के साथ जा उडी
फिर से नभ में विलीन हुई

Sunday, December 11, 2011

नव वर्ष बधाई -----२०१२

खटमिट्ठी यादों कि ओढ़ चदरिया,
गतवर्ष कहे मै चला बजरिया,
घर-घर बन्दनवार सजाओ,
नववर्ष लगे मानो नई दुल्हनिया,
आँगन-आँगन में साज सजाओ,
साल भर बजती रहे ढूलकिया,
गीत हर्ष के गूँजे घर-घर
छमछम नाचे नर नागरिया

भजन

हे ईश्वर मै जिधर देखूँ,
काशी उस ओर नज़र आए ,
एक पाँव धरूं जिस ओर प्रभु,
वृन्दावन और निकट आए,
हाथ उठे किसी कर्म को जब,
तेरे चरणों को छू जाए,
धडकन-धडकन तू हर साँस-साँस,
बोलूं तो राम निकल जाए,
पसरी ध्वनियों में कर्ण धरूं
श्रवण तेरे नाम का हो जाए,
हे ईश्वर मै जिधर देखूँ
काशी उस ओर नज़र आए

तुम ज़हन में अभी भी रहते हो

तुम ज़हन में अभी भी रहते हो,
तुमको खुद छोड़ कर मै आई थी,

याद आता है तेरा गीत बहुत
जिसे तुम संग मै गुनगुनाई थी,

ज़मी का बिस्तर औ चाँदनी चादर
रात भी देख मुस्कुराई थी,

छूकर प्याली जो तेरे पास गई
तूने भी होठ से लगाईं थी

सामने फिर से देखकर तुमको
दिल में धड़कन कहाँ समाई थी,

दूर जाने कि चाह थी फिर भी
दिल तेरे पास छोड़ आई थी,

Tuesday, November 29, 2011

..खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,.........

खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,
इस बेरूखी कि वजह बताइए हुज़ूर,
नज़र में कोई और है तो वो भी बोलिए,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

किसी का हाथ था निभाना भी है दस्तूर,
अरसे बंद क्यूँ है जुबां ये तो बोलिए,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

मशरूफ हैं कहीं या है मेरा ही कुसूर,
करना अगर किनारा है तो ये भी बोलिए,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

किसी कि मोहब्बत ने क्या ला दिया गुरूर
इस ओर गौर कीजिये फिर दिल से तोलिये,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

समझ गई कि 'आदर्शिनी' कि फ़िक्र है फ़िज़ूल,
आज़मा अगर रहे हैं तो आज़मा के बोलिए,
खामोश हैं क्यूँ दिल कि गिरह कुछ तो खोलिए,

Monday, November 28, 2011

.........ईश वंदना .........

हे विघ्न विनाशक ईश मेरे,
मुझको एक दृष्टि नवल दे दो,
सर्वप्रथम आराधन हो तेरा,
निर्विघ्न कार्य हो वर दे दो,

हे मात शारदा नमन तुम्हें,
करूँ भक्ति अमित ये वर दे दो,
स्वर झंकृत हो मेरे मन का,
शब्द मचल पड़े ये वर दे दो,

माँ लक्ष्मी रूप अनूप तेरा,
वैभव हो अपार सुमति दे दो,
प्रणिपात करूँ मै चरण तेरे,
मन निश्छल, ज्ञान मुझे दे दो,

हे रूद्र,ब्रह्म,विष्णु मेरे,
उत्साह पूर्ण तन-मन दे दो,
आशीष सदैव रहा तेरा,
इस योग्य रहूँ ये वर दे दो,

हे सृष्टि रचयिता ब्रह्मणिप्रिय,
हे चक्र गदाधर लक्ष्मीप्रिय,
हे चन्द्रमौलिशिव गौरिप्रिये,
हे धनुधर राम जानकीप्रिय.
हे मुरलीधर तुम राधेप्रिय,
हे अम्बे माँ तू भक्ति प्रिय,
हे सरस्वती माँ तुम इष्ट मेरी,
करती हूँ प्रणाम सब ईश कि जय,

Friday, November 18, 2011

............क्या होगा गीत सजाने से............

कभी सोचती हूँ मै ये, क्या होगा गीत सजाने से,
अमर नही ये अगर हुआ, फिर होगा कौन ठिकाने पे,
मेरे आँचल कि छाया बिन गीत अंक को ढूंढेगा,
किसके हाथ लगेगा ये कुछ कह सकती नहीं भरोसे से,

कभी सोचती हूँ मै, ये धरोहर किसको दे जाऊँगी,
पात्र कोई समझे जो इसको उसके हाथ थमाउंगी,
पीले पन्नों के शब्दों को शायद वो श्वेत बिछौना दे,
न रहकर भी उस रक्षक का मै उपकार चुकाऊँगी


गीतों कि जैसे पाँत बढ़ रही,जीवन छोटा होता जाता है,
मेरे निचुड़े मन के कारण, इनसे प्रेम सा होता जाता है,
रोज़ नया एक शिशु जन्मता उदर से मेरे भावों के,
वात्सल्य छोड़ जब जाना चाहूँ तो मन विचलित हो जाता है,

हाथोंहाथ लिया कुछ ने और कुछ ने इसको धिक्कार दिया,
सही प्रयोजन था जिसका उसने इसपर उपकार किया,
उर से जो बहता है सब अंकित मैं करती जाती हूँ,
ये निर्णय पाठक ही लें, कितना भावों को विस्तार दिया,

कभी सोचती हूँ मैं ये, वीतरागी तो हूँ मै लेकिन,
गीत मोह में फंसकर, अंत समय दुर्बल हो जाऊँगी,
सही मार्ग दे माँ मुझको, लिपटूं उससे पर निर्लिप्त रहूँ,
तुझसे प्रेरित गीतों को भगवन तेरे सुपुर्द कर जाऊँगी,

Monday, November 14, 2011

उनसे मुलाकात हो गई,

रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,
आज अचानक फिर उनसे मुलाकात हो गई,

विरह मौन का सह-सहकर जो आकुल थी गालियाँ,
बहुत दिनों से बुझी हुई थी जो मधुरिम कलियाँ,
आज अनोखे रंगों कि उनमे भरमार हो गई,
रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,

इन्द्रधनुष के पाश में बंधकर मन ऐसा झूमा,
गोलाकार पवन सा मन मेरा नाच-नाच घूमा,
साँसे मेरी गतदिन से मानो तेज हो गईं,
रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,


कुसुमाकर दौड़ा आया, जैसे नीरस पतझड़ छोड़,
शांत उडुगन भी नभ पर, आज मचाते कितना शोर,
उर में उसके धड़कन कि मेरी गूँज हो गई,
रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,

मतवाला होने दो हमको आज न बोलो हमसे कुछ,
नयन मूँद लेने दो मुझको खोने दो अब हमको सुध,
पीकर आँख-आँख का प्याला महामिलन कि भोर हो गई,
रिमझिम-रिमझिम सीने में बरसात हो गई,
आज अचानक फिर उनसे मुलाकात हो गई,


Thursday, November 10, 2011

मिलने का अगर कुछ इरादा लगे,

तेरा मन जब तुझसे खफा सा लगे,
टूटा-टूटा सा कुछ बेवफा सा लगे,
मेरी याद सनम तुम कर लेना,
मिलने का अगर कुछ इरादा लगे,

कभी नेह बदरी में भीगा था तन-मन,
अधर-पंखुडी मुस्कुराई थी तुम संग,
अब तेरे बिना बेसहारा लगे,
चले हो किधर कुछ बुरा सा लगे,
मेरी याद सनम तुम कर लेना मिलने का ...........................

कर भरोसा तुम्हारी रहूंगी सदा,
भूलो तुम मुझे मैं न भूलू ज़रा,
रुंधा सा गला जब तुम्हारा लगे,
विकल सा हृदय जब तुम्हारा लगे,
मेरी याद सनम तुम कर लेना मिलने का ...........................

कोने कोने में अंकित है नाम तेरा,
छिपकर रखा दिल में प्यार तेरा,
परेशां अगर मन ज़रा सा लगे,
पलकों पे अगर भीगा भीगा लगे,
मेरी याद सनम तुम कर लेना मिलने का ...........................

Wednesday, November 9, 2011

हृदय अगर यूँ मोम न होता

हृदय अगर यूँ मोम न होता,

हृदय अगर प्रस्तर का होता,
तो कोई आघात न होता,
अहर्निश के मानस-मंथन से,
मन यूँ सिसक सिसक न रोता, हृदय यदि कसकभरा न होता,
हृदय अगर यूँ मोम न होता,



धक-धक कि हर गूँज से आतुर,
प्रतीक्षित आहट आभास न होता,
श्वास-श्वास उठने-गिरने से,
मिलन-भय का संकोच न होता, हृदय यदि कवि का न होता,
हृदय अगर यूँ मोम न होता,

आता-जाता जीवन में कोई,
गहरा मगर लगाव न होता,
चित्त-वेदना पूर्ण भाव का,
दृग द्वार से पार न होता , हृदय पट पर यदि भाव न होता,
हृदय अगर यूँ मोम न होता,


औरों सा ही दे प्रत्युत्तर ,
मन पर कोई क्लेश न होता,
रूप बिम्ब अपने साजन का ,
निशि-वासर प्रत्यक्ष न होता,हृदय यदि दर्पण न होता,
हृदय अगर यूँ मोम न होता,

Saturday, November 5, 2011

..........क्यूँ भरते हो इतना दर्द............

क्यूँ रोते हो जीवन का रोना, क्यूँ भरते हो इतना दर्द,
दुःख के निर्मल सागर में सीपी और सजा करते,

गीत लिखो जो हंसी बिखेरे
टीस परे हट जाने दो,
मिले जो आगे दुलार उसे लो,
रो रो नहीं जिया करते ,

कुछ ही समय बही थी नदियाँ अश्रु नयन के सूख गए,
गीली-गीली आँखे रख कर जीवन नहीं जिया करते,

कई बार बिखरी थी कड़ियाँ,
फिर जोड़ा है तुमने ही,
जीवनपथ पर हार न मानो,
यूँ ही लोग बढा करते,

बिखरना हो मोती बिखराओ, अपने से टूटे रस्तो पर,
प्रेमिल वही जो बिखरा मुस्काने मोती नहीं गिना करते,

तुमने उतना दिया नहीं,
जितना संतोष मिला है तुम्हे,
दुःख ले मिसरी देने वाले,
सुख को नहीं छिपा सकते,
तुम हो आज जहाँ पर स्थित कल कोई और रुका होगा,
कलेवर बदला करते हैं, पर मानव वही रहा करते,

Tuesday, November 1, 2011

...........पगतल से कण-कण सरकती हुई जमी को ..........

धरती को आकाश संग झूलते हुए देखा
हाथों में हाथ डाले टहलते हुए देखा
पगतल से कण-कण सरकती हुई जमी को,
लहरों को दौड दौड कर खेलते हुए देखा,

सीधी कभी गोलाई में उछलती हुई लहरें
दौड़ती हुई कभी तो थकी थकी सी भी लहरे,
सांप सा फन काड़े विष टपकाती सी लहरे
सागर में गोल-गोल घूम समाती हुई लहरें

तमतमाती धूप में सधी-सी थीं जो लहरे
विधु की चमक देख जैसे बौरा गईं लहरे
लहर लहर को जब ज्योत्सना चूमने लगी
छूने को चाँद, बाँध तोड़, बहक गई लहरे,

जहाँ दिखे कोमल सा मन-मोहक सा सागर,
उन्मादी, कर्ण विदीर्ण करे कभी घोष भयंकर,
नीले तरल में जैसे फेनिल झाग का मिश्रण,
कभी दिखे प्रवाह में बहता लोगो का बवंडर,

श्वेत, कभी नीली, हरी कतार की रफ़्तार,
वृत्त कभी तो लगे कभी समतल सी चट्टान,
नीली घटाओं में लगे कभी रुई का फाहा,
शांत समुद्र करता कभी नाग सी फुफ्कार,

बहाव में इसके घर मकान उजड़ते हुए देखा,
हजारों सीप और मीन को उछलते हुए देखा,
ईश्वर का सौंदर्य कहूँ या विध्वंस की लीला,
कितने जलचरो को किनारों पे तडपते हुए देखा,

एक चिंतन और एहसास के साथ रची ये रचना

........शीतल तन,तपता मन ..........

निशि ठंड से बच धरती ने,
हिमकण की चादर तानी,
सच कहूँ तब क्या,
चांदनी थी चन्दा से अनजानी?
ठिठुर रही थी निशा
और वे बाँहों में बाहें डाले,
तिरछी दृष्टि थी सबकी उनपर,
पर वे भी थे मतवाले,
जल सीकर से भीगी थी वसुधा,
उनदोनों को होश नहीं था,
देख शीतल तन पर तपते मन को,
अम्बर भी कुछ हतप्रभ था,
लोगों की रातें थीं लम्बी,
उनदोनो की कितनी छोटी,
इंदु जहाँ-जहाँ जाता था,
इंदु किरण संग होती,
"पागल हैं दोनों" कह रवि ने
धीरे से आँखें खोली,
हल्की-हल्की गर्मी दे कर
उनपर भी बाहें फेरी,
हिम चादर वसु ने सरकाई,
विधु-अंशु ने होश सम्भाला,
वसुधा और प्रणयी दोनों को
मिल गया एक सुखद सहारा,
लुप्त हुए निशिचर नभ से
खग मृग ने ली अंगड़ाई,
शीश झुका चल दिए वे भी
महकी फूलो से अँगनाई,
इंदु,विधु =चाँद
अंशु=किरण
प्रणयी=प्रेमिल जोड़ा
वसु,वसुधा=धरती

Monday, October 31, 2011

........कहाँ रोज़ का मिलना और पहरों पहरों की बातें .........

अकस्मात झटके हाथों को,
संभव था न मैं सह पाती,
भला किया,जो तूने
धीरे-धीरे हाथ छुड़ाया,
कहाँ रोज़ का मिलना
और पहरों पहरों की बातें,
एक-एक कम कर दिन छूटे
पहरों से पहर थे जाते,
अंतराल बढ़ता दिन-दिन का,
पहर का क्षणिकों में ढलना,
आज दिवस वो आया,
तुझमे मेरा नहीं है कोई सपना,
अभ्यस्त हुई हूँ मुश्किल से,
अब आवाज़ न मुझको देना,
संयत हो जैसे तुम प्रिय,
मुझको भी होने देना,
लाए तुम सिंदूरी बिंदिया,
कभी लाए थे कजरा,
तेरे हाथो से हर दिन
कतरों-कतरों में सजना,
हौले से चुनरी सरका के
माथे तक रख देना,
प्रेम में मैं भीगी थी जैसे
ओस में भीगे रैना,
दो संबल भुला सकूँ मैं,
पर बहुत कठिन है कहना,
तोडूँ कैसे तेरे प्रेम का,
पहने था जो अबतक गहना

Friday, October 28, 2011

......मालूम नहीं उनको हम गुजरें हैं किधर से ........

आँखों में दर्द का सैलाब,होठ कुछ कहने को बेताब,
शायद मेरी ही तरह तुम्हे भी लगे ज़ख्म गहरे हैं,
खुद की तकलीफ बयां करने की आदत नहीं तुम्हे,
काँधे का दूँ सहारा इस पर भी तो लगे पहरे हैं,

कदम बढ़ रहे हैं मेरी ओर हम समझ रहे हैं,
फासला दरमियाँ रहे अनजान बन पीछे खिसक रहे हैं,
मिलने की ख्वाहिश है इस पर हमने बात टाल दी,
याद आ गए वो दर्द जो अबतक हमें तोड़ रहे हैं,

दिल मोहब्बत करने की फिर गलती ना कर जाये,
प्यार को ठुकराना भी तो आसान नहीं है,
क़ुबूल करूँ तोहफा जिद थी उनकी बहुत लेकिन,
कह दिया तुम में जो बात है दौलत में नहीं है,

मालूम नहीं उनको हम गुज़रे हैं किधर से,
कैसे कहूँ हदतक मोहब्बत कर चुकी हूँ मैं,
दिल लेना और देना कोई दिल्लगी नहीं है,
एकबार जिसका होना था उसकी हो चुकी हूँ मैं,


Saturday, October 22, 2011

बेचैन रूहों का क्या करूँ?

गीत ही नहीं फिर सुरों का क्या करूँ?
सूरत ही नहीं,फिर इन शायरी का क्या करूँ ?

दिल में घुटती है आवाज़ किस क़दर हमदम,
फंसी दरारों में जो, उन बेचैन रूहों का क्या करूँ?

चाहते तुम भी नहीं,चाहते है हम भी नहीं,
बढ़ती दूरियों का जिकर, अब करूँ भी तो क्या करूँ?

तुझसे लिपटा मेरी जिंदगी का तराना है,
जब जिंदगी ही नहीं फिर उन खजानों का क्या करूँ?

तड़प के रोज कई, इज़हार कर दिया मैंने,
हँसकर वो बोल दिए तेरी इस दिल्लगी का क्या करूँ?

ना समझे बेरहम,"दर्शी"है किस क़दर तन्हा,
दरकती दीवार की ज़मी को अब मज़बूत क्या करूँ?

Monday, October 17, 2011

..........आज कलम कुछ बोल ...........

कलम आज तू क्यूँ है मौन ?
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल,

कल्पनाएँ पथराई क्यूँ हैं,
भाव, शब्द घूंघट में क्यूँ है,
अलसाई ऊँगली के मध्य छिपी तू,
शब्दों में विहान मत खोज,जो मन में हो वो बोल,
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल

सकल सर्जन की उत्कंठा तेरी,
क्या तू तर्जन से है डरती,
पन्ना-पन्ना स्नात प्रतीक्षित,
शान्त किवाड़ तू खोल आज कलम कुछ बोल,
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल

उद्दाम अभिव्यक्ति का भाव कहाँ है,
स्याही का कौमुदी कलश कहाँ है,
उत्फुल्लता का तूणीर कहाँ है,
विषय मंथन तू छोड़ आज कलम कुछ बोल,
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल

यौवन में अलिभय हो चाहे,
विरही का संताप हो चाहे,
जो भी वारित हो तेरे भीतर,
कर मुखर सभी,मत तौल आज कलम कुछ बोल,
व्यापाश्रय की छोड़ प्रतीक्षा आज कलम कुछ बोल,

व्यापाश्रय=विशेष आश्रय
विहान=सवेरा
तर्जन=डाट,उपेक्षा
स्नात=नहाया हुआ
उद्धाम=तीव्र
तूणीर=तरकश
अलि=भँवरा
वारित=छिपा हुआ

Sunday, October 16, 2011

...........तुम साथ मुझे अपना दे दो........

तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

भटक रही अनबूझ सवालों में,
साथ अपना दे दो संवर जाऊँगी,
स्मृतियाँ है जहाँ-तहां ठहरी,
थाम लो हाथ फिर से सम्भल जाऊँगी,
तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

पेशाने का वो मीठा बोसा,
बंद पलकों पर भीनी ऊष्मा,
बना विश्वसनीय सखा था तू,
लौट आ,उपहार फिर दे जाऊँगी,
तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

कुछ पल को नैनों का मिलना,
उन आँखों से सागर चखना,
धडकन-धडकन का स्पन्दन,
जन्मो तक क्या बिसरा पाऊँगी,
तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

मधुरिम थी अब तक मंजरियाँ,
अब शान्त पड़ी सुस्ताती है,
सिन्दूरी शब्द हो साथ तेरे,
गीत हजार मै रच जाऊँगी,
तुम प्यार मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाउंगी,

तेरा आकर प्रत्यक्ष प्रियम् ,
फिर चुपके से यूँ चल देना,
व्याकुल करता कितना मुझको,
शब्दों से क्या मै कह पाऊँगी,
तुम साथ मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

समर्पित अनछुआ सा प्यार मेरा,
बूझो खुद से मिला था तुम्हे?
जिस समर्पण से चाहा तुमको,
ऐसा कोई और मिला था तुम्हे?
तुम साथ मुझे अपना दे दो, सुख जीवन में फिर पा जाऊँगी,

Friday, October 14, 2011

......व्यक्तिगत ...........,

कार्तिक माह का आगमन,
शीतलता का सतसंग,
ललसित हो 'दर्शी'बंधी,
मनोहर रूप बंधन,
राजीव लोचन कामिनी,
रंगी रंग मतंग,
रजनी शरद का पूर्णिमा,
लहरों में कंगन,
मणि सी अवनी की ज्योत्सना,
बनी दिवाली पंक्ति,
रागिनी राग अलापती,
लख वन-उपवन-नंदन,
श्रद्धा से नयनी ताक रही,
करवा चौथ चन्दन,
अमीरस में वीरांगना,
तज चली अनी अनन्त,
माँ सिद्धेश्वरी औ श्रीकृष्ण को नमन करे,
'आदर्शिनी' अग्रजों संग,
दृग से अश्रु पोछती,
उठी कर स्मृतियाँ भंग,

पिता जी =श्रीकृष्ण
मम्मी=सिद्धेश्वरी
भाई भाभी=राजीव-कामिनी,अवनी-मणि
बहने=रजनी,रागिनी,नयनी,वीरांगना,आदर्शिनी

सभी को बहुत बहुत याद करते हुए

.........उठो शुभे ............

भोर हुई अब जाग मोहिनी रेन गई उठ दिवा जगा दे
कम्पित कर दे पलक भ्रमर को मुख से उलझी लट सरका दे

स्वर्ण-कलश से छलका मधुजल
निखिल दिशाओं को नहला दे
देव प्रतीक्षित भी हैं तेरे
मृदुल भक्तिमय गीत सुना दे
झिन्झारियों से पात-पात के
झाँक रहा आलोक नया है
वन उपवन ठहरा-ठहरा है खग-जन में हिल्लोर मचा दे

कलिकाएँ अधखिली रुकीं हैं
तरुओं पर कलरव है ठहरा
फूलों पर न कूजन रंजन
पंखुड़ियों में बंद है भँवरा
पग धरने की आहात सुन
सबका चित रंजक हो जाता
चहुँदिशि चाहत में हैं तेरी उठ प्राची को ध्वजा थमा दे

भोर वर्तुली हुई धरा अब
लो हो गई आज की होली
प्रस्थित हुई निशा की डोली
गूँजी खग की मीठी बोली
अनुस्वार से सज्जित माथा
श्रीमुख ने आलस्य है त्यागा
बहुरंगी हो गई दिशायें प्रात सुन्दरी शंख बजा दे




Wednesday, October 12, 2011

.............आशिकों के बीच मुझको जलाया गया ..........

उन्मुक्तता को गले से लगाया गया,
सौम्यता अकेले, कहीं घुटती रही,
शलभ मचलता रहा इधर से उधर,
शम्मा जल जल, धुआँ-धुआँ होती रही,

सीमित दायरा ही सही मेरा मगर,
रौशनी देती हूँ मै, अंशुमान न सही,
चाँद को चैन मिल जाता है मगर,
रोज जलती हूँ मै कहीं न कहीं,
पीर गल गल कर मेरा बहता रहा,
तन पर बहते लावों को मै सहती रही,
शलभ मचलता रहा इधर से उधर,मै जल-जल धुआँ-धुआँ होती रही

जिधर चाह हवाओं ने झिझोडा मुझे,
खुद के हुस्न को,पिघल मैं छलती रही,
हिलती लौ में चेहरा तेरा दिखता रहा,
पीकर अंधकार रौशनी मै देती रही,
खूबसूरती को तराशे गए बदन मेरे,
नक्काशी कि चोट से सिसकती रही,
शलभ मचलता रहा इधर से उधर,मै जल-जल धुआँ-धुआँ होती रही

आशिकों के बीच मुझको जलाया गया,
कसक अपनी मै फिर भी छिपाती रही,
पिघले आँसुओ को भर, चषक बन गई
देख कर समझे शायद वो पीर मेरी,
रहूँ खामोश हुक्म ये बक्शा गया,
बहुत डरी जलने से मगर चीखी नहीं,
शलभ मचलता रहा इधर से उधर,मैं जल-जल धुआँ-धुआँ होती रही

गीत....................रंगों कि फूहार दे गया

रंगों की फुहार दे गया,मनके भीतर एक प्यास दे गया
आँख मेरी सपने थे उसके,सपनो का संसार दे गया,
मन के भीतर एक प्यास दे गया

पाती लिख सहलाया उसने,
मिली नहीं पर पाया उसने,
मीठी मीठी बांतों से, कितना
मुझको भरमाया उसने,
हठी बनी,किन्तु रह सकी नहीं,
ऐसा प्यार जताया उसने,

साँसें मेरी सरगम थे उसके,मधुर मिलन कि आस दे गया
मन के भीतर एक प्यास दे गया

रही नहीं मैं अपने वश में,
भावों से नहलाया उसने,
कह पाती कुछ उससे पहले,
अंशु बना चमकाया उसने,
समझ मद्य के अंतराल को,
कन्दर्प सदृश महकाया उसने,

पंखुड़ी मेरी ओस थी उसकी,सुन्दर वो बागबान दे गया,
मन के भीतर एक प्यास दे गया,

निदिया से रजनी जागी जैसे,
जाने का राज़ बताया उसने,
बिछुडन के भय से काप उठी जब,
मिसरी सी थपक लगया उसने,
बगिया का कोई फूल न छूटा,
फिर से सुमन खिलाया उसने,

उर मेरा अनुराग था उसका,दुल्हन का सा एक रूप दे गया
मन के भीतर एक प्यास दे गया,

Monday, October 10, 2011

भावस्रोत बहने दो आज

रोपा बीज आज पुलक रहा है,
आतुर है कुछ कहने को,
मुस्काकर वो झाँक रहा है,
ऊपर गिरती बूँदों को,
शीतल सिक्त उर मचले मेरा,
बाँहों में भर लेने को,
बरस ले तू झूम-झूम, मै
बैठूँ हार पिरोने को,

मेघों को तू समझ ले काजल,
बदरी को अलकें बनने दे,
नैनो को दोना तू कह दे,
कन्चे पुतली को बनने दे,
अधर बने गर पंखुडियाँ,
अलिनी सी बोझिल पलकें हों,
कुंभ मदिरा से भरा लगे,
विधु को मुखड़ा तू बनने दे,

उलझी डाली का घेरा,
तुझको बाँहों का हार लगे,
मृगया कि चंचल गति,
तुझको मधुबाला कि चाल लगे,
कंपन से छनके पैजनियाँ,
पग-तल गुडहल का फूल लगे,
डग-डग कि कोमलता ऐसी,
वसुधा हरियाली दूब लगे,

उदित भाव में आज पिया,
तू अपने शब्द पिरोकर देख,
पीर हरेंगे वो निश्चय ही,
तू बौछार उड़ाकर देख,
भावों को दो छोड़ निरंकुश,
स्वच्छंद उसे बहने दो आज,
घर-संसार संग बदले अंतस,
तू वो गीत सजा कर देख,

नहीं फिकर कर ओ बाँवरी,
भावस्रोत बहजाने दो,
क्या होगा और क्या न होगा,
बात परे हट जाने दो,
अंतर्मन जगा कर देखो,
प्यासी कलम पुकार रही,
पृष्ठ-पृष्ठ छूने दो उसको,
धार और घिस जाने दो,
अलकें=बाल
अलिनी=भ्रमरी
विधु=चंद्रमा
वसुधा=धरती

Sunday, October 9, 2011

वर्तिका बन खुद को जलने दे

पालक भांति चल चुकी बहुत तू ,
कर्तव्यों से कुछ उठ चुकी है तू ,
कर चुकी बहुत विश्राम लेखनी ,
अब खुद की खातिर कुछ जी ले तू,

दीपक रख मन में तू सजनी,
वर्तिका बन खुद को जलने दे,
पसरेगा उजियार जो पगली,
जग को उससे तू सजने दे,
स्वच्छ निर्मल तेरे मन ने,
जो भी सोचा सब कह डाला,
अब घुट-घुट कर निकले जो भी ,
पन्नों पर उसको बहने दे,.....................वर्तिका=दीपक कि बत्ती

तू प्रेयसी बन खोल जरा,
अपने भीतर के रस घट को,
छलका दे प्रेम पियूष सुधा,
उतराने दे उसमे जन-जन को,
पतंगों का मन मचले जिससे,
ऐसे रस में तू गान करे ,
रिक्त मनस न शेष रहे,
प्रेमिल कर दे हर मानस को, ............घट=गगरी
सुधा=अमृत
मनस=मन,बुद्धि
मानस=इंसान

जाग विरहनी! तू भी अब,
वदन ढांप कर क्या होगा,
चल खोल हृदय को तू भी तो,
रोने धोने से क्या होगा,
शब्दों-शब्दों में वो करुणा हो,
जो मन को विह्वल कर जाये,
अश्रु बहे इस लय में ऐसे,
तरणी भी उसमे तिर जाये,................वदन=चेहरा
विह्वल=व्याकुल
तरणी=नौका

लोग जान लेंगे तुमको कि,
तुम भी एक वीरांगना हो,
जान डाल कर फूंक शंख तू,
छंद-छंद अंगारा हो,
जोश उफन कर निकले ऐसे,
जैसे उबला दूध बहे,
शांत रहे न कोई यौवन,
सबके भीतर एक ज्वाला हो,..............वीरांगना=वीर स्त्री

कभी बरस बदरी के जैसी,
कभी तड़ित का वह्नि बने,
हास्य व्यंग छिटका तू ऐसी,
आनन-आनन गुलाब बने,
रीति रंग में भिगोकर फेंको,
फूलों कि पिचकारी को,
देश भाव जब जगे हृदय में,
मानव मन हा हाकार करे .........................तड़ित=आकाश कि बिजली
वह्नि=अग्नि
आनन=मुखड़ा

Friday, October 7, 2011

बार बार ये क्यों होता है

........बार बार ये क्यों होता है........

बार बार यह क्यूँ होता है
मेरा मन विचलित क्यूँ होता है
प्रेम अगर सच्चा है मेरा
दोष तुम्हे यह क्यूँ देता है

इच्छायें करती हूँ तुझसे
चाहत की चाहत है तुझसे
सच है या फिर भ्रम है मेरा
के तुम बिछड रहे हो मुझसे

सुनती आई हूँ मै सबसे
निष्काम प्रेम में रब होता है
तथ्य बिसर यह क्यूँ जाता है
प्रेम सरल निर्मल होता है

याद करो इसको मन मेरे
प्रेम का अंकुर जब फूटा था
अपेक्षा का कोई भाव न था
देने का सुख ही स्वभाव था

प्रेम एक विस्तार भाव है
विधाता का इसमें प्रभाव है
सीमाबद्ध बनाकर इसको
प्रतिइच्छा की इच्छा कुभाव है

फिर आशीष मिले यदि तेरा
दिल में कोई आस न पालूं
तेरे दीप जले जो मन में
उस दीपक को हरदम बालूँ

तुम मेरे हो प्राणप्रिये
मेरा भी क्या है मेरा?
नहीं जानती विवश हो तुम
या बदला है मन तेरा

किन्तु सत्य मानो हे प्रिये
मै बिल्कुल पहले जैसी हूँ
अंतस से तुम देखो मुझको
मै भी तेरे जैसी हूँ

पथदर्शकहे ,मै अनुगामिनी तेरी
चंदा तुम मै लहर तेरी
उपकार तेरा इतना होगा
मनबद्ध रहो हे प्रीत मेरी

Thursday, October 6, 2011

मेरी यादों में मत आना

मेरी यादों में मत आना

तेरी यादों से जगता है मेरे मन का कोना कोना

मेरी यादों में मत आना


प्रभाती नव नवेली जब अपना घूंघट सरकती है,

लाली से अपनी धीरे-धीरे धरती का रूप सजती है,

निशि विछोह की पीर,प्रभा जब ओस रूप दिखलाती है,

तेरे यादों से आता है तब हृदय बिम्ब में रूप सलोना

मेरी यादों में मत आना


सागर में तिरते मोती को जब प्यासा मृग पी जाता है,

अपने अधरों से चूम चूम हंस, क्षीर-क्षीर पी जाता है,

नीले नैनो की बरसाते दिल को ढांप ले जाती है,

पीर हृदय को दे जाता है तेरी यादों का शूल चुभोना

मेरी यादों में मत आना


अम्बर के काँधे पर जब बदरी का कुन्तल होता है,

धीरे-धीरे अम्बर का गर्जन स्वनगुंजन सा लगता है,

लरज लरज अम्बर औ बदरी खुशहाली दरशाती है,

तुझसे ही लिपटा होता है भीतर का मेरे हर एक तराना

मेरी यादों में मत आना


कमलपत्र जब शबनम को अपने हाथों में लेता है,

सूर्यरश्मि से मुखड़ा उसका जुगनू की तरह चमकता है,

संदली बयार जब आस लिए अक्षि तृषित कर जाती है,

बिखर जाता है यादों का था जो अब तक बंद खजाना

मेरी यादों में मत आना

तेरी यादों से जगता है मेरे मन का कोना कोना

मेरी यादों में मत आना

आदर्शिनी

क्षीर=दूध

कुन्तल=गेसू

बिम्ब=आकृति

स्वन=शब्द

संदली बयार =सुगन्धित पवन

अक्षि=नयन

तृषित=प्यासा


Friday, September 30, 2011

देखो मैंने देख लिया

दो रोज की यायावरी में सारा आलम देख लिया
कुछ अपनों के संग ही मैंने दुनिया वालों को देख लिया

अपने ही हाथों से काटे कितनी बार पंख मैंने
अनसुलझे कुछ सुलझे भावों की लुकाछिपी भी देख लिया

नैन कटोरों में जल भर कर धूमिल तेरी छवि कई बार करी
हिलते डुलते सागर में भी तेरा रूप निराला देख लिया

पूरा अपना समझा जिसको उसको पल पल छिनते देखा
बारिश का कुछ पल को आकर झलक दिखाना देख लिया

कुछ संशय का भाव भी जागा कुछ ईर्ष्या के भाव जगे
प्रीत की बरखा देखी भावों में, सुनैनों का मद भी देख लिया

बहुत किया तुमने फिर भी तुम नारी मन को क्या जानो
दिल रखने को कुछ ही क्षण को तेरा पास बुलाना देख लिया

सच कहती है दुनिया सारी तुम नहीं किसी के लिए निष्ठुर
अल्पकाल में चन्दन सा मुझको लेप लगाना देख लिया

इसको भी सहो और समझो ये भी जीवन का एक पहलू है
ईश तुम्हारा ये खामोशा ईशारा भी देखो मैंने देख लिया



Thursday, September 29, 2011

प्रेम अनिवर्चनीय यहाँ

नदी का नदी में विलय देखो
कितना अद्भुत है ये संगम देखो
एकता तो है नदी की नदी से मगर
पृथक भावों का विलक्षण प्रवाह देखो

अलग हो कर भी जो दिखती यहाँ एक हैं
एक होकर भी जिनका उद्गम है अलग
ज्ञान के चक्षु अब तो उकेरो जरा
ईश्वर का जगत को ये संकेत है

किसका निमंत्रण है किसका समर्पण है ये
चरम पर पता ये कैसे चले
प्रेम में हो लींन नदिया अद्वैत हो गईं
अब शांत समता का भाव प्रबल देखो

प्रेम अनिवर्चनीय यहाँ प्रेम अकथनीय यहाँ
वो क्या समझे, ईश्वर को पृथक जो जगत से करे
निर्लिप्त भावों से प्रेम जगत से करो
पूर्ण निष्ठां से सेवा तुम सबकी करो

Friday, September 16, 2011

बदरी



ये सच है तपन पहले जैसी नहीं
किन्तु बदरी है जो हटती भी नहीं
है ज्वार सा उठता सुनामी कभी
धीमी लहरों की ठंडी थपक है कभी
रह रह के हृदय ढांप लेती है वो
आ जाती है फिर जल्दी छंटती नहीं

गोरे गोरे मुख पर ओढ़े एक चुनरिया झीनी सी
तनिक छुपे फिर तनिक दिखाए जब उड़े चुनरिया झीनी सी
श्वेत मेघ से तन को ढांपे,श्याम मेघ से रूप छिपाए
नभ पर खूब सजे तू सजनी,कुछ बरसा बदरिया झीनी सी

Thursday, September 15, 2011

तुम ही प्यासे के लिए हो जल

निमित्त हेतु समझ कर जब सामग्री हाथ थमा दी है,
सत्संग दिया, सद्ग्रंथ दिया,भगवन्नाम की आस जगा दी है,
अब जन्म मरण के बंधन से वो आप हमें ही तारेंगे
वह खुद समझे उद्धार मेरा जगतट पर जब नाव लगा दी है,
पूर्व जन्म के पुण्य ही है जो प्रभु की ओर चला है मन
प्रभुनाम का आश्रय लेकर ही कल्याण की राह चला है मन,
अब विषय भोग के संग्रह में हमको कुछ भी क्या लेना है,
अनित्य होकर भी दुर्लभ जो जीवन है,सेवा की राह चला है मन,

तुम ही प्यासे के लिए हो जल,तुम ही भूखे के लिए हो अन्न,
विषयी हेतु बनकर आए तुम रूप,रस,शब्द,स्पर्श,गंध,
प्रभव हो तुम, प्रलय हो तुम,औदार्य और माधुर्य हो तुम,
किन्तु मानव को चेताने हेतु दु:ख भी लाए तुम सुख के संग

निमित्त=कर्ता,करने वाला
प्रभव् =उत्पन्न करने वाला
औदार्य=उदार
माधुर्य=प्रेम
मृन्मय=मिटटी से बना पात्र

Monday, September 12, 2011

नहीं मै कह नहीं सकती तुझे मै प्यार करती हूँ

तुझे गर देख लू कुछ पल, तुझ से ही दिन गुज़रता है,
घंटों कैसे गुजरते है पता कुछ भी न चलता है,
होती हूँ मैं सबके संग मगर फिरभी अकेली हूँ
पूछते है सभी मुझसे कहाँ तेरा मन भटकता है,

मुश्किल में बहुत हूँ मैं,सही हूँ या गलत मै हूँ,
कदम मैं इक बढाती हूँ पीछे फिर लौट आती हूँ,
बढाया है तुम्ही ने हौसला,तेरे सर ही मढती हूँ,
सही हूँ गर तो तेरी हूँ,बुरी हूँ गर तो तेरी हूँ,

तेरे उन्मुक्त प्रश्नों से ऊलझन में पड़ मै जाती हूँ,
समझते क्यू नहीं तुम भी हया में सब छुपाती हूँ,
कैसे खोल दूँ मन को नहीं,ये गुण न मेरा है,
पुरुष हो तुम,कह दो तूम,मौन स्वीकार मेरा है,

मैं राधा ही भली तेरी जामुनी बन न पाऊँगी,
भामा संग तान तुम छेड़ो,मै ब्रज में गुनगुनाऊँगी,
कृष्णा की बाँसुरी पर तो,रुक्मणि अधिकार तेरा है,
गोकुल में मिल गया जो वही जीवन अब मेरा है,

नहीं मै कह नहीं सकती,तुझे मै प्यार करती हूँ,
तेरे भीतर के ईश्वर को नमन सौ बार करती हूँ,
तुझसे ही मेरी रचना सजी आभार करती हूँ,
स्वयं के रोम रोम में तेरा आभास करती हूँ

Sunday, September 11, 2011

ऑनलाइन मुशएरा,शीर्षक----------तस्वीर जो बसा ली है दिल में

दिल में किसी की तस्वीर जब देखना होता है
इस खातिर मोहब्बत में उतरना होता है,
समझे वो लाख देर से मगर फिर भी
साँसों की तर्ज़ पर दिल तक पहुंचना होता है

ये ऐसी मूरत है जो तमाशाई को तमाशाई रहने दे
लोग देखते रहें और दिलों में गुफ्तगू होती रहे
नकली रिश्ते जो दावा करे और पहरे पे खड़े हों
लाख घात लगाये रहें,रूहों का मिलन होता रहे

नादान वो जो चाबुक चलाये मोहब्बत की पाकीजगी पर
उसके दिल में कोई तस्वीर हो तो वो भी खुदा बन जाये
आँख खोलू तो हर रोज़ हर सुं हो चेहरा उसका
नीद की आगोश से निकल चुपके से ख्वाब में टहल आये

वही वजूद, वही शक्ल वही बाते वही अदा
वही हठ्खेलियाँ उसकी वही मासूम सी अदा
ख्वाब था या जीती जागती निशानी थी
इतनी मौजूद जैसे दिलरुबा की हकीक़त थी

Tuesday, September 6, 2011

दुल्हन

मोंगर गजरों से सजा बदन, रति में डूबे है लाल वसन,
हरित मेहदी अब लाल हुई,सबने बोले ये मृदुल वचन,
छनकाती मद्धम पग धरती,जुगनू छिटकाती चली नवल,
अधर हिले पर खुल न सके,दर्पण में देख झुक गए नयन

रातो रात सुहागन बन,ले ध्रुव तारे से सौभाग्य अखंड,
पाँव धरे जब डोली में,भर चंचल नीर से मीन नयन,
घर जैसा भी है अपना है,संतोष सांस ले हुई मगन,
दर पे थपकी से लाज भरी मुस्कान लिए निकली दुल्हन,

लौट रही पग फेरे कर,प्रथम प्रस्थान से अधिक बिलख,
आगत दिन कैसे होंगे,सशंकित बेचैन लिए चिंतन,
सदा कोमल अनुभूति नहीं रहती,जीवन है सुख दुःख का संगम,
इस हेतु विराम मैं लेती हूँ, दुखे न कहीं पाठक का मन,

शायद मेरा मन तब कुछ साफ़ नहीं था

भावों के हिचकोले थे पर, भावसृजन का सूत्र नहीं था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था


संघर्षों से एकाकी मन जब जूझ रहा था

हर क्षण,हर दिन सपना मेरा टूट रहा था

उस वक्त लेखनी बाधित क्यू है पता नहीं था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था


कितने पन्ने फाड़े फिर कितने लिख डाले

अवलोकन किया गतदिन में वह मन न भाये

उधेड़बुन में मैंने वख्त बीता डाले

हृद-मंथन में कितने वर्ष गँवा डाले


मुझमे निहित ही मेरा सारा लेख होता था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था


ऐसा नहीं, संघर्ष नहीं अब जीवन में है,

कसौटी पर कस कर निखरा अब मेरा मन है,

विचलित होती हूँ कुछ पल, फिर सध जाती हूँ,

दोष न दे ओरों को, खुद में ही रम जाती हूँ,


सह सकने मेरा ही अभ्यास नहीं था

शायद मेरा मन ही तब कुछ साफ़ नहीं था,

आदर्शिनी

Friday, August 5, 2011

ब्रह्म सर्वत्र वर्तते...................आकाश झांकती,शीश स्पर्शी

आकाश झांकती,शीश स्पर्शी,
गलित याचित
पन्नियों की कथित छत
तिरस्कृत ईंट,मिटटी से
संधित दीवारें
शव उपेक्षित ठंडा,गीला,बैगनी
तकिया,कथरी
थकी देंह थपथपाती
निंद्रा का चिंतित हस्त
नयनाभिराम दृश्य

असंतुष्ट पेट का कर्ण-विदीर्ण आलाप
बेबस माँ की मिथ्या
गज-जठर उलाहना

गिनित अस्थियों पर सिकुडन भरा
काला कफ़न
बालकों के नेत्रों को मिचमिचाता
पीत-वर्णी गाढ़ा,तरल नमकीन द्रव
क्षुधा-तृप्ति को आकुल
चिंता-मुक्त मंडराती
आनंदित मक्खियाँ
अनुपम दृश्य,सुन्दर

कहीं न कहीं
सदैव दर्शनीय
दैवी अथवा सामाजिक
मृत्युलोक का सत्य
स्वीकारना ही होगा

जो शाश्वत है, सत्य है
सत्यम शिवम् सुन्दरम
ब्रह्म सर्वत्र वर्तते,उपासनीए

दृष्टव्य ...................
जनमानस को कर्ताव्योंमुख करती
द्रव्यांश,सुश्रुषा संरक्षण हेतु,
कुछ, किंचित
चाहे तनिक
ब्रह्म सर्वत्र वर्तते

६ अगस्त २०११ मेरठ
आदर्शिनी
श्रीवास्तव
एक बार अपने घर काम करने वाली 'दुलारी' के घर जाने का अवसर मिला वहां अगल बगल के कई घरों की ओर ध्यान गया जहाँ के वातावरण में कुछ अच्छा तो कुछ विषम देखने को मिला कुछ चिंता हुई तो कुछ बच्चों के प्रति मन स्नेह से भर गया


Thursday, August 4, 2011

maa bharti

ऐसा नहीं की शुन्य लेखनी,
है तेरी कृपा माँ भारती,
उर को किन्तु भाता नहीं
जो उकेरती है लेखनी

शब्द.........साहित्य में डूब निकले
हिंदी हो या फारसी
मानस मन सम्मोहित करूँ
ये चाहती है लेखनी

है प्रेम की सरिता ह्रदय में
बिखेरती है ज्योत्स्ना
अद्भुत प्रसंग पर दृष्टि पड़े
ये चाहती है लेखनी

कुछ भक्ति हो कुछ देश-हित
कुछ ज्ञानयुक्त दे माँ भारती
सामग्री जो काव्यबद्ध सजे
जनहित बरसाए ये लेखनी

यूँ तो अनेक प्रसंगों पर
रचनाएँ रचित हुई कई
रचनाये जो अमर हुई
सत्य वही है लेखनी

सृजन से वंचित क्यूँ 'आदी'रहे
श्रद्धा-पूरित है जब लेखनी
भावस्रोत प्रस्रित आज करो माँ
जो अमर करे 'आदर्शिनी'
आदर्शिनी श्रीवास्तव

facebook

ख्वाब में अद्भुत अजूबी एक दिवार देखी

खुदे शब्दों की तमाम इबारत देखी

कहीं नज़म कहीं ग़ज़ल कहीं शेर छपे थे

हास्य औ व्यंग की अजब गजब तस्वीर देखी


सुप्रभात की कहीं सुन्दर शब्दावलियाँ

पूजा अर्चना श्लोकों से सजी हुई कई गलियां

ज्योतिष औ सद्विचारों का कहीं बोलबाला था

लोगों के विचारों पर, विचारों की टिप्पड़ियाँ


कहीं कहीं तो मंच सजा था

बिना निमंत्रण के ही अच्छा खासा रंग जमा था

अनदेखे अनजाने थे फिर भी पहचाने पहचाने थे

कभी वाह वाह, कभी चुटकी,तो कभी हसीं ठठ्ठा था


राजनीति भी उसमे पीछे न थी

ये राजा का वचन,तो कहीं मनमोहन की चुप्पी की चर्चा थी

कांग्रेस का बखान करते हरीश तो बी जे पी के सुरेश थे
वकीलों व्यापारियों डाक्टरों नौक्रीपेशों कि भरमार थी

कहीं लिंक, कहीं टैग,तो कहीं बधाई कार्ड थे,
कहीं देशभक्ति तो कहीं घोटालों के दीदार थे
कहीं श्रद्धा, स्नेह, साहित्य और अखबार थे,
तो कहीं कही कुछ अनर्गल तस्वीर और वार्तालाप थे

जो भी है दिवार बहुत थी खुबसूरत सुन्दर

अकेलेपन को बांह पसार अपनाता मित्रमंडल

छुपी प्रतिभा निखारता सवांरता

कल रात देखा अजीब-ओ-गरीब मंज़र


Tuesday, August 2, 2011

prabhat

रजनी की कालिमा धुलकर किनारे हट गई

प्रात का आलोक नव रश्मि ले कर सज गई

तरु पादपों को रंग कर हरे सुनहरे रंग में

झील नदियों जल प्रपातों को रुपहले रंग गई

स्वर्णिम दमकती सूर्य के चहुँ ओर कटीली पीतप्रभा

गुनगुनी हो रजत कुंदन के सदृश रेती धरा

पीली रवी की ज्योति से झिलमिल लहर हठ्खेलियाँ

अनंत जलधि दूरतक हजारों कोटि लघु मत्स्य सा

मधुमिश्रित नूपुर की झनक से संलिप्त सी मैं हो गई

नयन उठे जिस ओर धरा आलोकित सी हो गई

बच सका न कोई रूपसी वसुधा के यौवन से

डूबकर मद में उसके,खुद उन्मादी मै हो गई

द्वारा-आदर्शिनी श्रीवास्तव

11 july 2011 meerut

लेखनी की पीड़ा

लिखने को कलम उठाई

जब सच की सियाही में,

वो भी परेशान हो आग उगलने लगी,

यूँ तो झूठ से सहारा मिला

सच लिखने में बहुत,

बात बदलते गए

सच्चाई छपती गई,

एक के बाद एक मामले सामने आते गए,

शर्म से मुंह छिपा अब

लेखनी भी दुबकने लगी,

वक्त की मार ने कहाँ ला दिया मुझे,

सोचने लगी,

कभी रुकने,कभी चलने

पथभ्रष्ट होने से डरने लगी,

किसने समझl मुझ निर्जीव के मर्म को,

शब्दों में बिखरते आँखों के दर्द को,

वो श्रृंगार, प्रकृति,उत्साह,भक्ति से

मै क्यूँ भटक गई,

स्वयं राह दिखाने वाली मै

लोगों से मिन्नतें करने लगी,

मुझे चाहिए फिर वही

पुराना इतिहास,

भक्तिमय साहित्य,

प्रकृति और श्रृंगार,

राम की गाथा,कृष्ण का सन्देश,

क़ुरान शरीफ का पारा,

ग्रन्थ साहिब का उपदेश,

पुरानों की सी सूक्तियां,

वेदों का सत्संग,

बाइबिल की कथाये,

उपनिषदों का प्रसंग,

by--adarshini srivastava

8 july 2011

baarish

रिमझिम बरसात का पानी उनको मुबारक हो

प्रेयसी के रंग मे रंगना उनको मुबारक हो

हाथ फैलाके नाचना बरसात के पानी में

इमारतों में भीग कर जाना उनको मुबारक हो

कहाँ और क्या बनायें अपना ठिकाना हम

पाँव भी टीकाएँ किस जमीं पे हम

दुखती और भी चप्पल बिना फटती हुई बिवाई

टूटी मड़ैया में जब घुसता है ये बरसात का पानी

नदी नाले पोखर जहाँ उफान मारते हो

उन्हें कब भला भाता है ये बरसात का पानी

आश्वासन की उम्मीद थामे महीनों गुज़र गए

हाँ देखो,लौट कर आया है फिर ये बरसात का पानी

by adarshini srivastava

30 june 2011 meerut

ईश वंदना...........वटसावित्री व्रत के उपलक्ष्य में

हे विघ्नविनाशक ईश मेरे, मुझको एक चक्षु नवल दे दो,

सर्वप्रथम आचमन हो तेरा, निर्विघ्न हो कार्य ये वर दे दो,

हे मात शारदा नमन तुम्हे, करूँ अमिट मै भक्ति ये वर दे दो,

स्वर झंकृत हो मेरे मन का, शब्द मचल पड़े ये वर दे दो

माँ लक्ष्मी रूप अनूप तेरा, वैभव हो अपार सद्बुद्धि दे दो,

प्रणिपात करूँ मै चरण तेरे, मिले ज्ञान और मन निश्छल दे दो,

हे रूद्र,ब्रह्म, विष्णु मेरे, उत्साहपूरित तन मन दे दो,

हों सुर्यप्रभा सी समर्पित मै, इस देश पे ये निश्चय दे दो,

हे सृष्टि रचयिता ब्रह्माणी प्रिये, हे पद्म गदाधर लक्ष्मी प्रिये

हे चंद्रमौली तुम गौरी प्रिये,हे धनुर्धर राम जानकी प्रिये,

हे सरस्वती रूप तो कवि की प्रिये,हे अम्बे माँ तू भक्त प्रिये

हे मुरलीधर तुम ईष्ट मेरे, करू शीश नवाकर प्रणाम प्रिये

हे विघ्नविनाशक ...........................

सर्वप्रथम आचमन ...................................I

by-----------adarshini srivastava (adee)

2 june 2o11 meerut

प्यार की कश्ती



प्यार की कश्ती


दिल में बसे हो मेरे हम भी उतर चुके हैं
अनजानी इस ख़ुशी में हम दोनों खो चुके है,

खुद को लुटाकर तुमपर तुमको है मैंने पाया,

प्यार की कश्ती पर, हम दोनों ही चढ़ चुके है

मान जाओ बात मेरी जाने की जिद भी छोडो,

मोहब्बत की हद से देखो हम तुम गुजार चुके है,

प्यार के नर्म ज़ज्बात अब भी बने हुए है,

दम तोड़े साथ मिलकर, जब मिलकर मिट चुके है,

27 may 2011





















Sunday, May 22, 2011

दिल के कोने में भी प्यार का समंदर रखती हूँ

दिल के हर कोने में समन्दरसा प्यार रखती हूँ,
मिल लूँ एक बार जिससे दिल में उतर जाने का हुनर रखती हूँ,

यूँ ही नहीं लुटाया है खुद को मैंने तुम पर,
सांस की हर तर्ज़ पे टहलने का हुनर रखती हूँ,

तेरी बेरुखी से अपनी बेबसी भी है क़ुबूल मुझे,
मोहब्बत-ए-तासीर से तुझे तोड़ने का हुनर रखती हूँ,

आज ढा लो सितम मुझपे तुम चाहे जितना,
तेरी हर चोट पर मर मिटने का हुनर रखती हूँ,

फिर न कहना कि शबभर बेचैनी से करवट बदली,
बाद मौत भी सुकूं छीनने का हुनर रखती हूँ,

Friday, May 6, 2011

प्रणय निवेदन

darpi megh


कल वह दर्पी विनाशकारी बयार सा

टीन पर गिरते बड़े छोटे आमो की टंकार

किर-किर की ध्वनि करते पत्ते

कभी शांत तो कभी शोर मचाती पवन

विद्युत् चमकाता

वैशाख से तपते पोखर खेतो को तरसाता

होना भर सूचित करता निकल गया


pranay nivedan


किन्तु आज रात व्योम का घमंड तो आसमां पर है

मौका है वसुधा पर अपने तेज को दर्शाने का

उसी के प्रभाव से तो वसुधा संग

सहोदर हरीतिमा और सागर हटखेलियाँ करते है

किन्तु अब व्योम को घमंड कहाँ?

वसुधा तक पहुँचते-पहुँचते व्योम का दर्प

गल-गल वर्षा जल से वसुधा का नव सिंगार करने लगा

तेज समीर से मानो वसुधा भी कुंदन जडित हरित आँचल लहरा

व्योम को और उन्मत्त कर देना चाहती हो

दामिनी ने सम्पूर्ण वसु पर चन्दन का लेप फेर दिया

फुहारें पुष्प मिश्रित हो इत्र का छिडकाव करने लगीं

तिनके, पंखुडियां,अर्धविकसित फलों के अक्षतीए स्पर्श से

वह कोमलांगी सध्य: स्नाता नई नवेली धुली लाजवंती सी

सिमट सकुचा अपने ही निवेदन पर लजा गई

पर भीनी वर्षा की एक एक बूंद की तब तक पीती रही

जब तक गुरुत्व उसे आत्मसात करता रहा

अतिरिक्त जल से पोखर जलमग्न कर दिया ताकि

सुबह सकारे वसुधा के अंक से खग मृग

जलक्रीडा कर पिपासा शांत कर सकें

अर्पित फल रुपी अक्षत को बच्चे नन्हे-नन्हे

स्निग्ध कोमल पैरों से वसुधा की गात पर चढ़ चढ़ समेट सकें

और मुदित मन वसुधा नत नयन हलकी मुस्कान से उनमे खो जाए

द्वारा------------ आदर्शिनी श्रीवास्तव