Friday, October 14, 2011

.........उठो शुभे ............

भोर हुई अब जाग मोहिनी रेन गई उठ दिवा जगा दे
कम्पित कर दे पलक भ्रमर को मुख से उलझी लट सरका दे

स्वर्ण-कलश से छलका मधुजल
निखिल दिशाओं को नहला दे
देव प्रतीक्षित भी हैं तेरे
मृदुल भक्तिमय गीत सुना दे
झिन्झारियों से पात-पात के
झाँक रहा आलोक नया है
वन उपवन ठहरा-ठहरा है खग-जन में हिल्लोर मचा दे

कलिकाएँ अधखिली रुकीं हैं
तरुओं पर कलरव है ठहरा
फूलों पर न कूजन रंजन
पंखुड़ियों में बंद है भँवरा
पग धरने की आहात सुन
सबका चित रंजक हो जाता
चहुँदिशि चाहत में हैं तेरी उठ प्राची को ध्वजा थमा दे

भोर वर्तुली हुई धरा अब
लो हो गई आज की होली
प्रस्थित हुई निशा की डोली
गूँजी खग की मीठी बोली
अनुस्वार से सज्जित माथा
श्रीमुख ने आलस्य है त्यागा
बहुरंगी हो गई दिशायें प्रात सुन्दरी शंख बजा दे




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