Sunday, December 30, 2012


                                        प्रदूषण तांडव  
सर्वविदित है की दूषित पर्यावरण का प्रभाव हमारी शारीरिक और मानसिक विकास को अत्यंत क्षति पहुंचा रहा हैI
ये हमारे इसी जीवन को प्रभावित नहीं कर रहा बल्कि, यदि इसको बल पूर्वक रोका न गया तो इसके दुष्प्रभाव से आने वाली अनेक पीढ़ियाँ भी प्रभावित होंगीं आजकल के इस अर्थयुगीन और आराम पसंद युग में सुविधाओं का त्वरित लाभ उठा भविष्य की आशंकाओं को लोग अनदेखा कर रहे हैं प्लास्टिक, औद्योगिक उपकरण, कर्णविदीर्ण संगीत, गाड़ियों का कोलाहल, विषैली गैसें, ख़ुशी के इज़हार हेतु बार-बार प्रयोग होते पटाखे ओजोन परत को नुक्सान पहुंचा वायु मंडल कि शुद्धता का भक्षण कर रहे हैं I
 प्लास्टिक की थैलियों पर तो सरकार लगाम लगाने का प्रयास करती दिख रही है किन्ही-किन्ही शहरों और प्रदेशों में पोलिथिन पर प्रतिबन्ध लगाया भी गया है किन्तु ढील मिलते ही फिर इसका प्रयोग धडल्ले से शुरू हो जाता है  कभी कभी तो सरकार की मंशा पर भी संदेह होता है कि सिर्फ पोलीथिन पर प्रतिबन्ध लगाने से क्या होगा यदि अन्य यूज़ एंड थ्रो सामग्रियां यूँ ही उपयोग होती रहीं, भोजन की पैक थालियाँ, किसी भी जलसे में थर्मोकोल, प्लास्टिक के गिलास, चम्मच, प्लेट, पानी की बोतल के प्रयोग देखे जा रहें हैं. क्या इसका उत्पादन न हो इसपर ध्यान देने की जरूरत सरकार नहीं समझ रही ? या इसका उपयोग न हो इस पर अलग से कानून बनेगा? इसको जलाने से वायु में कार्बन जैसे हानिकारक गैस का मिश्रण होगा. यदि भूमि में दबाया गया तो पृथ्वी की ऑक्सीजन को बाधित कर जमीन बंजर करेगा और यदि यूँ ही पड़ा रहा तो गंदगी, बीमारी और असभ्यता को न्योता देगा और वर्षाकाल में पानी में मिल नदियों के जल प्रवाह को बाधित और जल प्रदूषण को पैदा करेगा
भारत की ऊंचाई पर स्थिति श्रीनगर जैसे मनमोहक शहर में कृष्णा ढाबा में भोजन करने का दुर्भाग्य प्राप्त हुआ जिसमे इतनी अधिक संख्या में ग्राहक आते है की उपभोक्ता को खाने की थाली के लिए घंटों घंटो इंतजार करना पड़ता है और मई जून में हजारों की तादात में लोग प्रतिदिन भोजन ग्रहण करते है किन्तु वहां इसी थर्मोकोल और प्लास्टिक के डिस्पोजेबल क्रोकरी का ही उपयोग होता है ये देख कर मन काँप गया भोजन से जी उचाट हो गया जब इस और ध्यान गया की आखिर दोपहर और रात का इतना कचड़ा कहाँ जाता होगा पहाड़ी जल प्रपातो ,नदियों में बह वो मैदानी भागों को गन्दला करता जा रहा होगा. पत्थरों के मध्य फंस कितनी नदियों का मार्ग अवरुद्ध कर रहा होगा. दिशा भ्रमित हुई नदियाँ पूरे-पूरे गाँव को निगल लेने की ताक में होंगीं ये जल प्रदूषण क्या प्रलय का सीधा साधा निमंत्रण न होगा ?
जल में निहित होते जा रहे तमाम अवांछनीय कारक और पदार्थ मुख्यतः क्लोराइड सोडियम, बाई कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटेशियम, अमोनिया कार्बन मोनोऑक्साइड और औद्योगिक अवशिष्ट जल को प्रभवित करते जा रहे हैं और वायु, जल, ध्वनि, मृदा, नाभिकी सभी प्रदुषण वातावरणीय जल के साथ मिल अम्लीय वर्षा कर मानव जीवन को प्रभावित कर रहे हैं.
कोशिश करें पोलीथिन के स्थान पर कपडे या कागज के झोले का इस्तेमाल करें, अनावश्यक सामानों का क्रय न करें, पटाखों के प्रयोग से बचें, प्लास्टिक त्याग कांच या धातुओं के बर्तन का उपयोग करें, मोबाइल कंप्यूटर का उपयोग जरूरत के लिए करें, गाड़ियों का कम प्रयोग करें, धर्म के नाम पर नदियों में अघुलनशील पदार्थों को प्रवाहित न करें, प्रकृति जीवन दायिनी है इन छोटे छोटे योगदान से हम प्रकृति के ऋण से कुछ तो उबर ही सकते हैं              
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Saturday, December 29, 2012

प्यारी तमाम बेटियों को आदर्शिनी माँ का एक सन्देश
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1-गर्व करो नारी हो तुम, सद्विचार है तुमसा कहाँ?
गिनती में नर से कम हो फिर भी सर झुकाता है जहां
पथ कंटीले पार कर मंजिल तलक पहुंची हो तुम
तुम सही,.. जालिम हैं वो, जो मिटा रहे तेरा निशां

2-बढ़ चलें है गर कदम डर से इन्हें न रोकना
आँख अपनी खोल पर, वातावरण को तोलना
जो धुंध गहरी लग रही छंट जायेगी ये एक दिन
हर कदम रखने से पहले बस पड़ेगा फूंकना 


जब पूरे देश की कन्याये बस में ६ लड़कों द्वारा हैवानियत का शिकार हुई लड़की की दुर्दशा देख 
अपनी सुरक्षा के प्रति चिंतित और सहमी ही थी उस समय उनके हौसले को बढाने और उन्हें कर्मपथ 
पर बढ़ने की प्रेरणा देने हेतु ये रचना की
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3-साथ पढना साथ लिखना साथ होती मस्तियाँ 
प्रश्न ये झुलसा रहा क्यों बढ़ रहीं हैं खाईयाँ 
इक दुसरे के मित्र हो समझो मनो के भाव को 
तकरार होती है सभी में होती कहाँ हैं लड़ाईयां 

4...सौगंध ले लो आज से रक्षा का दृणसंकल्प ले लो 
साथ हँसते खेलते बिताये तुम सारे वर्ष ले लो 
बद्नज़र जो भी उठे, वो तुमसे होकर ही बढे 
मन से अगर कोई हाथ थामे हाथ में तुम हाथ ले लो 

३ और ४ नंबर के दो मुक्तक उन सह शिक्षा में पढने वाले सहपाठियों के नाम जो स्कूल में रह हर 
कार्यक्रम में साथ-साथ भागीदारी करते है और मित्र की तरह रहते हैं 
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5- तुम पर आज कोई भी नहीं इलज़ाम रखती हूँ
बने गमख्वार हो मेरे बड़ा एहसान रखती हूँ
अलख तुमने जलाई है उसे तुम बार कर रखना
जाते-जाते हुए हांथों तेरे काम रखती हूँ
 

 सिंहापुर पुर से ३० तारिख की रात में लौटा पीड़ित कन्या का पार्थिव शरीर अपने पीछे लोगों को एक जिम्मेदारी सौप गया ...तब ये ५वामुक्तक 
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इस अन्नत नभ के पीछे भी
कुछ तो हलचल जारी है,
चादर नीरवता की ताने
पर शोर भयंकर भारी है,
शांत दिख रहे सागर का
अंतस भी घायल है समझो,
स्थिर धरनी के अंतर में भी
एक बवंडर भारी है,
जीवन मृत्यु का खेल अजब
इसको पाना उसको खोना,
जीवित सा दिखने वाला कण
क्या निश्चित है जीवित होना?
जिसके दम से स्पंदन है
जब वह ही साँसों को चाहे,
तब होगा सब स्वीकार सहज
फिर क्या पाना और क्या खोना,
सभी बच्चों को क्रिसमस की बहुत बहुत बधाई
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जिंगल बेल की टुनटुन धुन पर कान लगाओ न...
पिछले दुख को भूल के थोडा सा मुस्काओ न.....
जी करता सेंटा बन जाऊं
ख़ुशी के तोहफे खूब लुटाऊं
गीली आँखों को तुम अपनी
आज सुखाओ न... थोडा मुस्काओ न.....
देखो सुबह है आज रुपहली
कोहरे से झांके किरण सुनहरी
तू हँसे हम ख़ुशी से रो दें
मुझे रुलाओ न... थोडा मुस्काओ न....
मोज़े में खुशियाँ तुम ले लो
झोली में अड़चन तुम दे दो
फिर भी कोई उलझन हो तो
मन में कोई हलचल हो तो
आँख मूँद "दर्शी" कह करके इधर उड़ाओ न...
जिंगल बेल की टुनटुन धुन पर कान लगाओ न...
पिछले दुःख को भूल के थोडा सा मुस्काओ न...
..........आदर्शिनी "दर्शी"........

मेरी इस रचना में उदासी का कारण ...........मेरी ये रचना उस घटना के बाद की है जब देश की एक बेटी दरिंदों का शिकार हो जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी और पूरा देश उसको न्याय के लिए गुहार कर रहाथा
......पूरा किन्तु अधुरा सा..........

मानस पर तेरा छा जाना
फिर ढल सपनों में आ जाना
श्यामल रैना में आभा बन
बहुरंगे चित्र सजा जाना

प्रमुदित बैठे कल-कल तट पर
प्रेम प्रबल उर्मिल मन भर
तीरे-तीरे चलना हाथ थाम
हर ताप ह्रदय का छंट जाना
मानस पर तेरा छा जाना

उलीच दिया उर गागर सब
कम्पित-कम्पित द्वि अधरों से
भ्रमर चितेरे नयनों में फिर
दिवास्वप्न दिखला जाना
मानस पर तेरा छा जाना
फिर ढल सपनों में आ जाना

Thursday, September 13, 2012

झर-झर स्वर

मुग्ध शिखी का केकी रव
नभ से झरता मुक्ता मोती
विहग शांत नि:स्वन नीडों पर
टुकुर तकते रवि की ज्योति

प्रभा चली अस्तातल में
आकाश पात्र जल से भरकर
फैले नीरव निशि करतल में
करता अनन्त नभ झर-झर स्वर

नेह बंध स्वीकार करो

नेह बंध स्वीकार करो या
बंद करो ये माया जाल 


सौगंध लेकर के बारम्बार
विचलित करता ह्रदय अपार ,
प्रत्यक्ष कभी दिखते साकार
फिर मिथ्या का ढोता भार,

नेह-बंध स्वीकार करो या
बंद करो ये मायाजाल,

मधु का पिंगल प्याला देकर
क्यों करते हो तिरस्कार ?

भीगी-भीगी पलकों को अपनी,
गीली अलकों की देकर ओट,
ह्रदय-पीर को नीर बताकर
ह्रदय मौन करता चीत्कार,

मधु का पिंगल प्याला देकर
क्यों करते हो तिरस्कार?  

...कविता नहीं कुछ दिल की...

तुम्हारी पुकार...,
प्रेमडोर की ग्रंथि को
गीले सन की तरह कस देती है,
और संवाद का अंतराल
सूखे सावन सा रसहीन,
तुम्हे उलाहना नहीं देती
मैं ही तुम्हारा मन नहीं छू पाई,
तभी तो .............


उसकी आवाज़ भी मुझ तक कहाँ पहुचती थी
फिर अपने लिए खेद क्यूँ करूँ?

फिर भी... फिर भी मैं थक गई
अब तुम्हे आवाज़ नहीं दूंगी,
क्यूँ न अपना कद ही ऊँचा कर लूँ,   

Wednesday, September 12, 2012

.................बेटी ..........

नन्हे-नन्हे कर चरण लिए 
आई मैं सुख देने पल क्षण,
किलकारी और कोमलता से
हरने तेरा मन रुपी धन,
रखो मुझको निज नयनों पर
हर दिन होगा शीतल सावन,
आभास मुझे होने तो दो 
मुझसे भी पुलकित हैआँगन,

चाह नहीं बेटा सम होना 
बेटी हूँ...........तो बेटी हूँ,  
यदि ममता की मूरत हूँ 
लक्ष्मी सहगल सम भी हूँ,
भारी है मुझ पर जग सारा
जो खुद मैं बनती नीची हूँ,
व्यवधानों को चुनती चलती,
फिर भि कितनों से जीती हूँ,

इस जग में गर हम आयें
निज पलकों पर रखो मुझको,
अपनी कुत्सित इच्छाओं पर 
बलि देकर न भक्षो मुझको,
क्या आभास तनिक तुमको?
गिनती में रखते कम मुझको 
बीज नहीं उपजेगा तो,क्या 
नव-पल्लव सुख देंगे तुमको?
हनते झूठे अपवादों से 
मानवता को तुम हरते हो,
आक्षेप नहीं करती फिर भी,
क्या जनने से तुम डरते हो? 
       

माँ



निशि दिन की मेरी हठ से 
शिकन न माथे तक आई ,
नयन सकारे जब जागे
भर क्षीर कटोरा ले आई,
अंजन-मंजन दुलरा-दुलरा 
सजा-धजा श्रृंगार किया,
ऊँगली मेरी थामे-थामे 
आँगन के बिरवा तक आई,
नित रोज़ नए अध्याय खुले,
मेरे परिवर्तित कल होते,
मैं तो बदला-बदला होता,
उसके हर दिन बीते कल होते,   

Friday, March 30, 2012

धरा गगन के मध्य है जग,

प्रथम झलक में नभ के वर्तुल,
दिव्य किरण सा तेज दिखा,
जितना वह समीप था आता,
प्रसरित चहुँ ओर प्रकाश दिखा,

सहज स्वाभाविक वाग्वाद में,
न समझ सकी आकर्षित मन,
निश्छल धरा न समझी उसके,
अंतस-मानस का अंतर्द्वद्व,

करतल पर हलकी ऊँगली का,
स्वाभाविक सहसा धीमा स्पर्श,
तार ह्रदय वीणा का छेड़ा,
हुआ झंकृत चिर तक अन्तरंग,

बलिष्ठ और कोमल करतल की,
संकोच भरी सुन्दर जकडन,
रत्नजडित मुंदरी थी नभ की,
आभासित थी उष्मित धडकन,

नगन रजत हस्त कंकड से,
किट-किट क्रीडा कर गई सहज,
फिर अपनी नादानी पर,
धरा थोडा सा गई सम्हल,

पूनम का चंदा आकर्षित,
तो लहरें थीं हो रही आकर्ष,
फिर भी ज्ञात था दोनों को,
धरा गगन के मध्य है जग,

गगन-कोर से चढ़ता चंदा,
धरा-कोर से भाव-तरंग,
चंद्र कलाए बढती जाती,
धरा में पागल ज्वार-तरंग,

धरा-महक औ भीने झोंकों में,
होता जाता अभिनन्दन,
जग मध्य रख होता जाता,
उन दोनों का आलिंगन,

उलझन थी बेचैनी भी,
पागलपन से लाचार थे शब्द,
किन्तु अब याद कहाँ था उनको,
धरा गगन के मध्य है जग,

सजग हुई धरा ने देखा,
उठकर के मुख जल-दर्पण,
बिखरी लट, बिखरे कुंतल,
पहला-पहला तर्प-अर्पण,

Monday, March 26, 2012

प्रणय बंधन के साथ ही हमने जब जीवन में सुख चाहा,

प्रणय बंधन के साथ ही हमने जब जीवन में सुख चाहा,
उसी समय शिव के समक्ष हमने, बेटी धन भी चाहा,
कुछ ही समय बीता और घर में दो प्यारी कलियाँ आईं,
मन की मुराद पा मेरे संग घर की बगिया भी मुस्काईं,
पल-पल बढती वे चन्द्र सरीखीं नटखटपन ने मन मोहा,
नयन कभी न थकते लखकर मन से ऐसा नाता जोड़ा,
लोरी सुनकर वे सोईं कभी, कभी सुनती वे धर्म कथा,
उनकी सुन्दर मूरत गढ़ने को हमने भूली सभी व्यथा,
जब करतीं कोई काम वे ऊँचा मेरा सर ऊँचा हो जाता,
इक-इक सीढ़ी चढ़ती औ उनका,लक्ष्य निकट होता जाता,
सुयोग्य बनी हर क्षेत्र में जब,एक-एक दूल्हा सज-धज आया,
संदेह रहा न उनके सुख का फिर भी मन भर-भर आया,
फिर भी खुश हूँ उनके जाने से,बसा है उनका घर आँगन,
मात-पिता का आशीष साथ है और संग में रहता है साजन,

कहीं स्पष्ट हुआ न अंतर हमको बेटा और बेटी में ,
बेटे संग पाला दो बेटी, अपनी कुटिया सी कोठी में,
सच कहूँ धन्यभाग्य मेरा जो हमने बिटिया धन पाया,
प्रेम औ सेवा में बसता उनका अनुपम साकार रूप पाया,

बेटा होता बेटी सा ही स्नेहिल, भोला, प्यारा सा,
करता वह भी प्रेम औ आदर अपने पिता और माता का,

किन्तु, भावी सुख की लालच में तिरस्कृत न करना बेटी को,
बेटे के सामान बेटी भी, दुःख में, आएगी हमें हँसाने को,
संतान सुख का शुद्ध भाव हो अपना,और हँसती फुलवारी हो,
सहर्ष स्वीकारो जो दे ईश्वर, दुलारा हो या दुलारी हो,

Friday, February 10, 2012

मै समझी कि तुम आए

पदचाप किसी कि जब आई,
मै समझी कि तुम आए,
मुख पर छाई हल्की लाली,
मन चहका कि तुम आए,
प्रतीक्षित थी उपवन में काया,
अंतर में लाखों स्वप्न सजाए,
हर आहट पर पलटी और देखा,
नहीं कहीं थे तुम आए,
पट कपाट का तेज उड़ा जब,
दिल धडका कि तुम आए,
खुद को कहीं रमा लूँ सोचा,
बोला अधीर मन, रुक हम आए,
पास कहीं एक यान रुका जब,
लोचन चमके कि तुम आए,
मधुर ध्वनि जब पड़ी श्रवण में,
दिल धडका हाय तुम आए,

Thursday, February 2, 2012

मुक्तक

दी आवाज़ तुमने मैंने भी पुकारा,
देखता गर पलट के समझता बेचारा,
सदा है तड़प कि न समझा आवारा,
था खुशियों का मंज़र न आया दोबारा,

साँस कि कसक में गज़ब कि है सरगम,
तरन्नुम से इसकी अब लगने दो मरहम,
इश्क कि राह से आज गुजरें है हमतुम,
आबशारों कि लय पर थिरकने दो तन मन,



Sunday, January 29, 2012

बसंत विरह गीत

देखे तुमको सदियाँ बीतीं
पाती भी कोई न आई
नयनो से नयन न मिल पाए
अधरों कि बातें पथराईं

मै बैठी हूँ आहट तकती
प्रतिदिन सोलह सिंगार किया
तेरी सुगन्ध जो लाती है
उस पूर्व का सत्कार किया
तुम साँस-साँस में महके हो जब लि मौसम ने अंगड़ाई
नयनो से नयन न मिल पाए अधरों कि बातें पथराई

कोयक बागों में गाती है
तितली फूलों पर आती है
भौंरे की गुनगुन सुन कर के
कलियाँ खुद ही शरमाती है
तेरे आने की आहट से नाचे है घर की अँगनाई
नयनों से नयन न मिल पाए अधरों कि बातें पथराई

बदरी इठलाती आती है
फिर बादल की हो जाती है
आपने दिल की रस गागर को
बूंदों-बूंदों बरसाती है
फिर एक नदी मेरे भीतर जाने कैसी है उफनाई
नयनों से नयन न मिल पाए अधरों कि बातें पथराई

वापस आ जाओ परदेसी
पुरवाई तुम्हें बुलाती है
मेरे मन की जो खिली कली
हर शाम ढले मुरझाती है
आकार जीवन मधुमय कर दो बज उठे प्यार की शहनाई
नयनों से नयन न मिल पाए अधरों कि बातें पथराई
तुमको देखे सदिया बीती ..........

Thursday, January 26, 2012

तेरा नाम जमाने से छुपाये रखा

कहा नहीं कलेजे में दबाए रखा,
तुम्हारा नाम जमाने से छिपाए रखा,
कोशिश लाख हुईं तोहफे का राज़ खोल दूँ,
मुस्कुरा कर राज़ को राज़ बनाये रखा,

करीब आया नहीं और छूकर चला गया,
चुपके से अपनी जगह बना कर चला गया,
हटा नहीं घडी भर के लिए ज़हन से वो,
आज एक बार फिर वो छेड़ कर चला गया,

सुना है खामोशियाँ दिल की जुबान होती हैं,
किसी की शायरी किसी की पहचान होती हैं,
समझने वाले के लिए कुछ भी छिपा नहीं रहता,
कलम की जुबान भी क्या खूब जुबान होती है,

मेरी नज़रें तुम्हें गर देखने की भूल कर जाए,
लब सोच पुराना कुछ हँसी की भूल कर जाए,
देख कर सोच मत लेना मेरा इशारा तुमपर है,
तेरा दिल प्यार करने की कहीं न भूल कर जाए,

दिल से तकरार करती हूँ,मुझे तुम याद आते हो,
खुद से जब प्यार करती हूँ मुझे तुम याद आते हो,
करूँ कुछ या जिधर देखूँ तेरा एहसास होता है,
निहारूं खुद को दर्पण में मुझे तुम याद आते हो,

जब जा रहे हो तुम नज़र भर देख लेने दो,
बसा लूं मैं निगाहों में जरा सहर तो होने दो,
चले जाना अभी तो कुछ पहर का वख्त बाकी है,
बह न जाए मेरा काजल ज़रा धड़कन तो थमने दो,



Wednesday, January 18, 2012

दीवानगी को मेरी बढा गया वो

चाहा था हाल जानना खुद आ गया वो
दीवानगी को मेरी बढा गया वो

यादों के शोर में कहीं दस्तक थी दब गई
दर पर अचानक मगर आ गया वो

देख सामने बेखुदी सी छा गई
कशमकश देख मेरी मुस्कुरा दिया वो

दूरियाँ थी जो यादों को दर्द बना गई
शिकवे मिटा नए रिश्ते बना गया वो

नूर देख राज़ लोग पूछने लगे
कहा नहीं की आकर सजा गया वो

Wednesday, January 11, 2012

जयतु जयतु जय मात भारती

पुस्तक धारण करने वाली
ब्रह्म विचार की तू रखवारी
श्वेत वसन में पद्म विराजे
वीणा के दंडक संग साजे
करहु कृपा है लघु मति मेरी
जयतु जयतु जय मात भारती

तू असुरासुर से पूजित है
तेरी नाद से जग पूरित है
मंगल तू सबका करने वाई
विद्या स्वर तू देने वाली
संगीत सुरों में भर दे मेरी
जयतु जयतु जय मात भारती

स्वर व्यंजन में तू विराजे
राग रागिनी में यू साजे
उर में मात प्रकाश भरो तुम
मन निर्मल कर प्रेम भरो तुम
करें सुर नर मुनि स्तुति तेरी
जयतु जयतु जय मात भारती

तू जो चाहे ग्रंथ रचूँ
सामवेद से छंद कहूँ
चन्द्र प्रभा तू लगे सुनीता
वीणा से झंकृत हो गीता
प्रेम मगन देखूँ मूरत तेरी
जयतु जयतु जय मात भारती

Thursday, January 5, 2012

रंग कैसे कैसे........संस्मरण--- १

सब उन्हें तारक भैया कहते थे मै जब से घर में आई तब से उन्हें बहुत शांत, रिश्तों को समझने वाला,अक्सर लेटे या अनावश्यक टहलते और पुरे पुरे दिन मौन देखा लोगो की नज़र में स्नेह परन्तु हंसी के पात्र भी थे वो. सुनते है दसवीं तक पढ़ने में वे मेधावी थे और लोगो की उनके प्रति उच्चाकांक्षा ने उन्हें ऐसा बना दिया और सदैव के लिए उनकी शिक्षा बाधित हो गई, ये भी सुना की हेमामालिनी में उनकी विशेष रूचि थी जो भी हो वो कभी भी किसी की बात का खंडन नहीं करते और लोग उन्हें छेड़ा करते,अतः जितने मुह उतनी बातें सच और झूठ तो ईश्वर ही जाने बाज़ार का छोटा मोटा काम उन्हें सौप दिया जाता जो वह पुरे हिसाब के साथ फलित करते थे बाज़ार जाने में वे सदैव तैयार रहते या शायद विरोध उनका स्वाभाव नहीं था परन्तु लौटने की समय सीमा निर्धारित ना होती अगर कहीं मन रम गया तो उन्हें समय का ज्ञान न होता
वे मुझे अन्य जेठ के सामान ही आदरणीय है बुलाए जाने पर वो जब रसोई में आते तब सदैव इस बात का ध्यान रखते की जेठ होने के नाते स्पर्श न हो जाए अतः वो थाली जमीं पर रखवा देते और स्वंय उठाते
दुर्भाग्य वश उन्हें अकेला छोड़ मेरे चचेरे सास ससुर परलोक सिधार गए गाँव के बड़े घर में उनके ही अधिकार क्षेत्र में चार कमरे उनके थे परन्तु उस परिवार में अब वो वहाँ अकेले थे और चचेरे हम लोगो के साथ रहने पर उनके स्वंम् के पांच भाई जो शहर में थे उनके सम्मान को ठेस पहुँचती अतः सभी भाइयों ने विचार विमर्श कर समाधान निकला की वे सभी भाइयों के यहाँ एक एक महीना रहेंगे पता नहीं ये स्नेह था या किसी एक के द्वारा आपने भाई का बोझ उठाने की असमर्थता उनके उलझे हुए व्यक्तित्व को देख उन्हें विवाह बंधन में बंधना भी उचित न समझा गया
साधारण लोग जिस दर्द से पीड़ित हो घर अस्पताल एक कर देते थे उस दांत के दर्द में मैंने उन्हें रात-रात भर चुपचाप टहलते हुए देखा अगर किसी ने सुबह पूछा "भैया आप रात में अँधेरे में आँगन में टहल रहे थे"तो उनका "हाँ दांत में दर्द था"कहना पर्याप्त था सहनशीलता की असीम शक्ति उनमे देखी मैंने
कुछ दिन शहर में राह कर वो गाँव लाए गए कहाँ गाँव के स्वच्छंद वातावरण में स्वच्छंद विचरण और कहाँ शहर का सीमित दाएरा ,इसकी उलझन भी उनमे साफ़ देखने को मिलती थी जिस तरह कमरे के उसी सामान को स्थानांतरित कर कमरे में नवीनता आ जाती है उसी तरह वे भी एक सामान की भांति एक-एक माह के लिए एक-एक भाई के यहाँ रख दिए जाते और तब तक अन्य के यहाँ पुनः के लिए उर्जा आ जाती क्षुधा के मामले में भी वो अन्य से पृथक थे वहाँ भी उन्हें कुछ न कुछ समझौता अवश्य करना पड़ता होगा एक बार उनके ही मुह से सुना था "भाभी आज ३० तारीख है कल मुझे मनोज भैया के यहाँ जाना है न? सुन कर मै सन्न राह गई, आवाक उन्हें देख मनोभावों को समझने का प्रयास करने लगी फिर स्वंम् पद प्रतिष्ठा का ख्याल कर आँख नीची कर ली
सोचने लगी पता नहीं उनके मौन के परोक्ष में उनके हृदय में और क्या-क्या प्रश्न चलता होगा मौन का नाम ही तो मनन है जो मौन है वो मनन शील तो जरूर होगा और वे कितना वे कितना समायोजन मूक बन निभाते आ रहे होंगे किस तरह से लोग उन्हें अविवेकी समझते है मुझे सदा से ही लगा की मार्ग दर्शन का आभाव और भावनाओं को अनदेखा करना ही उनकी इस स्थित का परिणाम है
यदि मै चचेरी भयो के स्थान पर उनकी भाभी,भयो या उनके परिवार की कोई सदस्या होती तो करीब रह कर गौर से उनके मनोभावों को पढ़ने का प्रयास और वार्ता के द्वारा उन्हें समझने पा प्रयास अवश्य करती परन्तु घर और जेठ के प्रति व्यवहार की मर्यादा तो रखनी ही थी
` स्थानांतरित हो मै भी आपने ससुरालवालो से दूर दुसरे शहर में चली आई, अभी उनकी उम्र लगभग ५५ वर्ष होगी शरीर धीरे-धीरे कमजोर हो रहा है घर संस्कारी है और उनमे अभी शक्ति, दोनों ही विशेषताए उनके जीवन में सामंजस्य बनाए हुए हैं देखना तब होगा जब वास्तव में उन्हें सेवा की आवश्यकता होगी ,तब वो सामान नुमा किसका,कितनाऔर कितने दिन टिकता है

Wednesday, January 4, 2012

सुधियों के विश्वासी साथी

सुधियों के विश्वासी साथी
राह दिखा खो मत जाना,
सुधियों के आँगन से प्रियतम!
यूँ सहज नहीं उठ कर जाना,
विस्मृत कर तुम्हें भला
संभव है कैसे राह पाना,
मीन सिंधु से विरत रहे
क्या रुचता है ये कह पाना?
विश्वासों के सुमन खिलाकर
बगिया कर रीती मत जाना,
स्मृतियों के चौबारे से
यूँ सहज नहीं उठकर जाना,