तुम्हारी पुकार...,
प्रेमडोर की ग्रंथि को
गीले सन की तरह कस देती है,
और संवाद का अंतराल
सूखे सावन सा रसहीन,
तुम्हे उलाहना नहीं देती
मैं ही तुम्हारा मन नहीं छू पाई,
तभी तो .............
उसकी आवाज़ भी मुझ तक कहाँ पहुचती थी
फिर अपने लिए खेद क्यूँ करूँ?
फिर भी... फिर भी मैं थक गई
अब तुम्हे आवाज़ नहीं दूंगी,
क्यूँ न अपना कद ही ऊँचा कर लूँ,
प्रेमडोर की ग्रंथि को
गीले सन की तरह कस देती है,
और संवाद का अंतराल
सूखे सावन सा रसहीन,
तुम्हे उलाहना नहीं देती
मैं ही तुम्हारा मन नहीं छू पाई,
तभी तो .............
उसकी आवाज़ भी मुझ तक कहाँ पहुचती थी
फिर अपने लिए खेद क्यूँ करूँ?
फिर भी... फिर भी मैं थक गई
अब तुम्हे आवाज़ नहीं दूंगी,
क्यूँ न अपना कद ही ऊँचा कर लूँ,
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