निशि दिन की मेरी हठ से
शिकन न माथे तक आई ,
नयन सकारे जब जागे
भर क्षीर कटोरा ले आई,
अंजन-मंजन दुलरा-दुलरा
सजा-धजा श्रृंगार किया,
ऊँगली मेरी थामे-थामे
आँगन के बिरवा तक आई,
नित रोज़ नए अध्याय खुले,
मेरे परिवर्तित कल होते,
मैं तो बदला-बदला होता,
उसके हर दिन बीते कल होते,
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