सूरत ही नहीं,फिर इन शायरी का क्या करूँ ?
दिल में घुटती है आवाज़ किस क़दर हमदम,
फंसी दरारों में जो, उन बेचैन रूहों का क्या करूँ?
चाहते तुम भी नहीं,चाहते है हम भी नहीं,
बढ़ती दूरियों का जिकर, अब करूँ भी तो क्या करूँ?
तुझसे लिपटा मेरी जिंदगी का तराना है,
जब जिंदगी ही नहीं फिर उन खजानों का क्या करूँ?
तड़प के रोज कई, इज़हार कर दिया मैंने,
हँसकर वो बोल दिए तेरी इस दिल्लगी का क्या करूँ?
ना समझे बेरहम,"दर्शी"है किस क़दर तन्हा,
दरकती दीवार की ज़मी को अब मज़बूत क्या करूँ?
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