रोपा बीज आज पुलक रहा है,
आतुर है कुछ कहने को,
मुस्काकर वो झाँक रहा है,
ऊपर गिरती बूँदों को,
शीतल सिक्त उर मचले मेरा,
बाँहों में भर लेने को,
बरस ले तू झूम-झूम, मै
बैठूँ हार पिरोने को,
मेघों को तू समझ ले काजल,
बदरी को अलकें बनने दे,
नैनो को दोना तू कह दे,
कन्चे पुतली को बनने दे,
अधर बने गर पंखुडियाँ,
अलिनी सी बोझिल पलकें हों,
कुंभ मदिरा से भरा लगे,
विधु को मुखड़ा तू बनने दे,
उलझी डाली का घेरा,
तुझको बाँहों का हार लगे,
मृगया कि चंचल गति,
तुझको मधुबाला कि चाल लगे,
कंपन से छनके पैजनियाँ,
पग-तल गुडहल का फूल लगे,
डग-डग कि कोमलता ऐसी,
वसुधा हरियाली दूब लगे,
उदित भाव में आज पिया,
तू अपने शब्द पिरोकर देख,
पीर हरेंगे वो निश्चय ही,
तू बौछार उड़ाकर देख,
भावों को दो छोड़ निरंकुश,
स्वच्छंद उसे बहने दो आज,
घर-संसार संग बदले अंतस,
तू वो गीत सजा कर देख,
नहीं फिकर कर ओ बाँवरी,
भावस्रोत बहजाने दो,
क्या होगा और क्या न होगा,
बात परे हट जाने दो,
अंतर्मन जगा कर देखो,
प्यासी कलम पुकार रही,
पृष्ठ-पृष्ठ छूने दो उसको,
धार और घिस जाने दो,
अलकें=बाल
अलिनी=भ्रमरी
विधु=चंद्रमा
वसुधा=धरती
No comments:
Post a Comment