गीत - लो हवा की तरंगे भी दुल्हन हुईं
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कुछ ठहर कर चलीं कुछ झिझक कर चलीं
लो हवा की तरंगे भी दुल्हन हुईं
काकली कूँज से मन हुआ बाँवरा
बंसवारी में गूँजा स्वतः दादरा
कामनाओं से कम्पित हो काया नगर
चूड़ियों-नूपुरों की छननछन हुईं
झोर पुरवा चलीं झोर पछुआ चलीं
घेर कर हर तरफ से हुईं मनचलीं
सबसे छुपकर पवन आँचरा ले उड़ा
धड़कने जिस्म की हैं सुहागन हुईं
टहनियों से मिलीं टहनियाँ झूमकर
फूल खिलने लगे मौज में डूबकर
बरखा आँगन में बरसी बिना बादरी
नर्म माटी ही चन्दन का लेपन हुईं
एक स्वस्तिक पवन प्रेमियों के लिए
फूल झरने लगे वेणियों के लिए
एक मीठी छुअन कोरे अहसास की
सारी बगिया ही मानों तपोवन हुईं
.....आदर्शिनी श्रीवास्तव ....
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कुछ ठहर कर चलीं कुछ झिझक कर चलीं
लो हवा की तरंगे भी दुल्हन हुईं
काकली कूँज से मन हुआ बाँवरा
बंसवारी में गूँजा स्वतः दादरा
कामनाओं से कम्पित हो काया नगर
चूड़ियों-नूपुरों की छननछन हुईं
झोर पुरवा चलीं झोर पछुआ चलीं
घेर कर हर तरफ से हुईं मनचलीं
सबसे छुपकर पवन आँचरा ले उड़ा
धड़कने जिस्म की हैं सुहागन हुईं
टहनियों से मिलीं टहनियाँ झूमकर
फूल खिलने लगे मौज में डूबकर
बरखा आँगन में बरसी बिना बादरी
नर्म माटी ही चन्दन का लेपन हुईं
एक स्वस्तिक पवन प्रेमियों के लिए
फूल झरने लगे वेणियों के लिए
एक मीठी छुअन कोरे अहसास की
सारी बगिया ही मानों तपोवन हुईं
.....आदर्शिनी श्रीवास्तव ....
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