लो सोलहो सिंगार कर सँवर गई वसुन्धरा
विवश हुए हैं देवता भी देखने को ये धरा
गगन से छन उतर रही
है गुनगुनी सी धूप अब
निखर-निखर, बिखर रहा
है रूपसी का रूप अब
अनेक पुष्प रंग से
सजा हुआ है आँचरा
समय की कर उपासना
समीर अनवरत बहा
देख ऋतु बसंत को है खुश हुआ पपिहरा
किरण को ओढ़ दूर्वा
हुई है और मखमली
गुलाल गाल हो गए
सजा के ओस जब चली
निरख रहा है दूर से
हेमंत कुछ डरा-डरा
लो एक वर्ष के लिए
मैं अब ढहा कि तब ढहा
लता का पीत पात ज्यों सुवर्ण पत्र हो खरा
हवा में पुष्प गंध की
लहर रहीं हैं चादरें
पलाश बिछ जमीन को
लगा रहा महावरें
बसंत से सजी धरा
सम्हल-सम्हल-सम्हल जरा
अनंग मद की आपगा में डुबकियाँ लगा रहा
पलक-पलक निहारते
सभी इसे हैं प्यार से
कि जैसे पंखुड़ी को ओस
छू रही दुलार से
नक्षत्र दीपिका लिए
है ज्योति नग झरा-झरा
गगन के बीच चन्द्रमा
है मंद-मंद हँस रहा
नशे में सप्त स्वर हुए खिला खिला है मोंगरा
......आदर्शिनी श्रीवास्तव ........
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