Thursday, October 17, 2013

क्या चल पड़े इधर सजन ....गीत

उस गोरी के मन की बात जिसका सांवरा रोज़ शहर नौकरी करने सुबह-सुबह जाये और सांझ ढले आये ..तो वो बिचारी रोज़-रोज़ का बिछोह कैसे सह पाए .....प्रस्तुत है ....
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ये चाँद कुछ झुका-झुका 
ये दीप से सजी सड़क 
ये द्वार पूजती पवन 
क्या चल पड़े इधर सजन?

तारे कुछ ही बच रहे 
विहग के शोर मच रहे 
किरण धरा को चूमती 
अधर-कपोल रच रहे 
खड़ी है भोर रंग लिए 
सुबह बढ़ी तुरंग लिए 
नयन-युगल विकल हुए 
विछोह कर रहे सहन 

ये पत्तियों की जालियाँ 
हिला उठी हैं बालियाँ
क्यों हरसिंगार बेसमय 
सजा रहा है डालियाँ ?
हवा की साँस तेज है 
कुछ पीर निस्तेज है 
ह्रदय धड़क-धड़क उड़ा 
पकड़ जरा चला गगन 

आ प्रीत को सँवार लूँ 
निशा को बलिहार लूँ 
साँझ से सुबह तलक 
को कतरा-कतरा हार लूँ 
हर एक क्षण सुभग रहे
ये चेतना सजग रहे 
गुलों से ले के गंध-रंग 
सजा लूँ रैन का वसन 

ये चाँद कुछ झुका-झुका 
ये दीप से सजी सड़क 
ये द्वार पूजती पवन 
क्या चल पड़े इधर सजन?
........आदर्शिनी......मेरठ, गोण्डा....

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