आज आकाश के मणिमय चादर पर एक चकाचौंध करने वाला
अद्भुत श्वेत तेजरत्न दीप्तिमान हो रहा था
l जो सूर्य चन्द्र जैसे ग्रह, नक्षत्रों, सप्तर्षियों, से भी ऊपर दिपदिप करता हुआ
सोच रहा था – धन्य हैं मेरी माँ जिन्होंने मेरी बाल्यावस्था में ही पुण्योपार्जन
का उपदेश दिया और उनके उपदेश को आदेश मान आज मैं इस महान पुण्यलोक को प्राप्त कर
सका l धन्य हैं वे ऋषिगण जिन्होंने मनोवांछित सिद्धि की प्राप्ति का दुर्लभ मार्ग
सुझाया और मेरे तप के प्रभाव से ह्रदय में सर्वभूतान्तार्यामी भगवान स्वयं प्रकट
हुए l मैं वो सौभाग्यशाली हूँ जो जबतक मैं रहूँगा मेरी माँ मेरे साथ रहेगी मेरे
पास, मेरे बगल, अत्यन्त निकट l अहोभाग्य ! सत्य और हितकर वचन बोलने वाली माँ
सुनृता नाम के ही योग्य हैं l आज उस परमपिता का आशीर्वाद है और धर्म का मार्ग
सुझाने वाली माँ, दोनों को नतमस्तक हो प्रणाम करता हूँ l इन्ही दोनों के कृपा
प्रसाद से मेरे प्रभाव में वृद्धि हुई है और समस्त लोकों के समस्त प्राणी मेरे
प्रभाव का श्लोक पढ़ रहे हैं l धन्य है परिश्रम का बल, परिश्रम का प्रभाव l जिसने
विमाता के कटुवचन से आहत बालक की उपेक्षा के बदले में ये दिव्यलोक प्रदान किया l
क्या विमाता की तरह मेरी माँ भी पिता की संगिनी
और राजमहिषी न थीं ? क्या वो मात्र मेरे भाई के पिता हैं मेरे नहीं? क्या मैं उनका
पुत्र नहीं? फिर इन सम संबंधों में द्विभाव क्यों? कहाँ हम दोषी हैं? क्या उनका
पुत्र होना मेरा दोष था? या मेरी माँ का उनकी अर्धांगिनी होना ?
नमन हैं माँ को जिन्होंने मुझे क्रोध त्यागने
का उपदेश दिया l उन्हीं ने पुण्य कर्मों की महत्ता परिभाषित की, कि पुन्यकर्मी को
ही राजासन, राजच्छत्र प्राप्त होता है l जिसको जितना मिलाता है वो उसके
पूर्वकर्मों का ही प्रसाद है l उन्होंने कहा था “ और अगर तू सचमुच विमाता के वचनों
से आहत है तो पुण्य का संग्रह कर, तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी, समस्त प्राणियों
का हितैषी बन l क्योंकि जैसे नीची भूमि की ओर ढलकता जल अपने आप ही पात्र में आ जाता है उसी प्रकार सत्पात्र मनुष्य के पास
स्वत: ही समस्त संपत्तियाँ आ जातीं हैं l “
स्नेह और आदर तो मैं अपने भ्राता, विमाता और
पिता जी का उसी तरह करता हूँ जैसे लेखनी माँ सरस्वती से आदर और प्रेम करे l किन्तु
आज मेरा ये स्थान भ्राता विमाता और पिता भी देख संभवतः प्रसन्न होंगे l मैंने कभी राजेच्छा या धन की
अभिलाषा नहीं की l बल्कि इस बालक ने भी मात्र अनुज की तरह पिता के अंक में क्षणिक
स्थान ही हो चाहा था उसमे विमाता या पिताश्री के मन में क्या भाव थे जो मुझे कठोरता
से उस सुख से वंचित रखा l अब सभी को संतुष्ट कर तप के प्रभाव से मैं आकाश पटल पर
अधिष्ठित हूँ l लोग मुझे ध्रूव कहते हैं आज से मैं एक कल्प तक अपनी माँ के आँचल
तले स्थिर भाव से दमकता रहूँगा l
किन्तु एक बात जो सिर्फ और सिर्फ मुझे ज्ञात है
माँ को भी नहीं l जो आज भी मेरे ह्रदय को मथती है l....... किसी भी बालक के लिए वो
अमूल्य उपहार जिसको पाकर किसी राजठाठ की आवश्यकता नहीं l कहाँ ये आकाशतल जो शीतल भी है स्वच्छ, निर्मल,
अद्भुत भी, द्वेष रहित, मानवीय दुर्बलताओं से दूर भी किन्तु........ पिता का स्नेह
हस्त, उनका सुरभित, कोमल, सुरक्षित अंक, जिसके सामने सृष्टि की समस्त निधियां फीकी
हैं l कहाँ से लाऊँ ? कहूँ भी तो किससे ? कौन समझेगा मुझे ? सब मुझे आकाश में
अधिष्ठित जो देख रहे हैं l.... भ्राता उत्तम तुमने निश्चय ही ध्रुव से अधिक पुण्य
का संग्रह किया होगा जो तुम्हे माता-पिता दोनों का सानिध्य प्राप्त है l
....आदर्शिनी ....मेरठ .....
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