Friday, October 25, 2013

एकल काव्य मंच की ओर से चित्र उन्वान .....ह्रदय विहंग



 
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पाँखी बन उड़कर तो देखो
भावों को पढ़कर तो देखो
तण्डुल बिखरी तमिस्र निशा में
क्षीर उगलती श्वेत विभा में 
पंख खोल उड़कर तो देखो
पाँखी बन उड़कर तो देखो

एक परिंदा भर उम्मीदें
है उड़ चला फलक को छूने
तन के पागल पंछी को
दीवारों दर से मतलब क्या?
एक शिकारी दौड़ रहा है
खोल हथेली हाथ उठाये
साँकल चाहे जितनी जड़ लो
नश्वर घर से मतलब क्या?
एक बार भरोसा कर तो देखो
पाँखी बन उड़कर तो देखो

अरुण भोर की स्वर्ण प्रभा में
क्या कहता है मन का पंछी
शायद आँखों से आँखे मिल
किसी विधा से प्यार हो रहे
या शायद पहला वो हूँ मैं
जिस तक नज़र नहीं पहुँची हो
नभ की किरणों में से मेरी
एक किरण एक बार हो रहे
तनिक वक़्त देकर तो देखो
पाँखी बन उड़कर तो देखो
..........आदर्शिनी "दर्शी"....मेरठ, गोंडा ...

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